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लग गयी... इस वाक्य के पूरा होते होते तक मेरी भी आँखें भर आयीं। सामने देखा, थरे सभी के कपोल तर हो रहे हैं ! सेठ जी तो बिना कुछ कहें सुने ही आँसू पोंछते हुये यहाँ से उठकर चले ही गये। मैं भी अपने को रोक न पाया । इसी समय अपने आँसू पोछते हुये सुधीर ने कहा"प्रसंगान्तर की आवश्यकता है ।" "ठीक कहते हो, सचमुच 'मूड' बिगाड़ दिया लेकिन क्या कहूँ ?" "कुछ नहीं ! यह जीवन है। फिर आपको क्या बताना ? अच्छा, आप वहाँ से सुनाइये - जब श्राप पेट में नहीं थाये थे, उसके पूर्व अपने पिताजी की जीवन गाथा और पेट में आने के बाद आप माँ को किन परिस्थितियों के कारण अपनी ससुराल छोड़नी पड़ी क्योंकि श्रब काणिक प्रसंग सुनते-सुनते जी भर गया है। आखिकार बाबूजी से बर्दाश्त नहीं ही हुआ और वह चले गये । " "अच्छी बात है, तो सुनो, मेरे मामा का गाँव शहर से कोई छेः सात भील उत्तर गङ्गाजी के किनारे पर बसा है। वहाँ से कोई पचाससाठ मील दक्षिण राबर्ट सगञ्ज तहसील में 'पलाशपुर' नाम का एक गाँव है । वही मेरा असली स्थान है। वहाँ मेरा जन्म नहीं हुआ तो इससे क्या ? माँ के पेट में तो वहीं थाया। पिताजी गाँव के एक अच्छे खासे खेतिहर किसान थे । पिताजी के दो छोटे भाई भी थे। मेरे दोनों चाचा अब भी हैं बल्कि अब तो मेरी खूब खातिरदारी करते हैं। हमेशा हर पसल पर तरह-तरह का सामान माँ के पास पहुँचाते रहते हैं और पहले यह हालत थी कि माँ उन लोगों का मुँह भी देखना नहीं चाहती थीं किन्तु मैंने ही उनको बहुत समझाया । मान गयीं लेकिन इसके लिये राजी नहीं ही कर सका कि एक बार वह पलाश पुर चलकर, वहाँ घण्टे सर ही रहकर चल झावें ! सभी लोगों ने बहुत समझाया, दोनों चाचा उनके पैरों पड़े मगर माँ नहीं हो गयीं वहाँ। मैंने भी उन लोगों से कह दिया कि ज्यादा जिद न करें। मैं हर काम-
काज में शामिल होता रहूँगा । जब कभी मुझे मौक मिलता तो मैं वहाँ यजा भी जाता रहा हूँ किन्तु पचास बोधा के ऊपर खेत, बारी, बगीचा, घर-द्वार जो माँ ने छोड़ा तो फिर उनकी तरफ फूटी थाँखों से भी नहीं देखा। जब शहर में रहकर मैं पढ़ने लगा तब से चाचा लोगों का मुझप्ले मिलने-जुलने का सिलसिला चालू हुआ। मुझे भी वे बाज़ौकात सहायता करते ही रहे किन्तु ये बातें माँ की चोरी-चोरी ही कुछ दिनों तक चल पायीं ।" इसी समय सुधीर ने प्रश्न किया"लेकिन इन्हीं लोगों के कारण शायद माँ को अपना घर-द्वार छोड़ना बड़ा रहा हो ? ऐसी सूरत में भला वह कैले इन लोगों से खुश रह सकतीं थीं ? अपनी माँ की इच्छा के विरुद्ध अपने चाचा लोगों से सम्बन्ध स्थापित करके क्या आपने उचित किया ?" " सुधीर ! क्यों भूल जाते हो कि मैं आदमी को मूलतः स्वभाव से दुष्ट नहीं मानता । शैतान मी आदमी बनना चाहता है, जानवर भी आदमी बनना चाहता है, और तो और, देवता तक आदमी बनने की ख्वाहिश रखता है। यह मानव महान है न ? पिता जी की मृत्यु के समय मेरे दोनों चौचा काफो नौजवान हो चुके थे। उनकी बहुयें या चुकी थीं । कई बाल-बच्चे तक उन्हें हो चुके थे । वे कायदे से चले होते तो न घर गृहस्थी ही मेरी बिगड़ती और न माँ पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूटता पिता की मृत्यु से माँ जर्जर हो ही चलीं थीं, अनाथ हो गयी थीं कि तत्काल उनपर दूसरा साङ्घातिक प्रहार हो गया । एक घाव भरा नहीं था कि दूसरा फोड़ा निकल आया । हमारे देश की विधवाथों की कहानी न पूछो । हाँ, तो बात यह है कि पिता जी की जिन्दगी में उनके साथ-साथ घर और परिवार के सभी लोग उस जमीदार का डटकर मुकाबिला करते रहे किन्तु उनके मरते ही जमीदार [ गाँधी चबूतर ने मेरे चाचा लोगों को अपने पक्ष में कर लिया। उन लोगों को बहूकाया कि भौजाई को मारो ज्ञात और बस कोई ऐसा फसाद पैदा करो कि वह ऊबकर या तो आत्महत्या ही कर डाले या घर ही छोड़कर भाग जाय । उस वक्त तक मेरी माँ को कोई भी सन्तान नहीं हुयी थी । और दोनों चाचा के कई बच्चे कच्चे हो गये थे। घर की बहुथों ने भी सुर में सुर मिलाया । कितना फायदा था । जमीदार से चलनेवाली रञ्जिश खतम हो जाती, भाई की सारी जायदाद दोनों मिलकर बाँट लेते । फिर बात इतनी ही तो थी नहीं और इतनी ही होती तो शायद माँ को घर न छोड़ना पड़ता मगर वहाँ तो एक तीसरी और बहुत ही भयङ्कर किस्म की बात पैदा हो गयी थी। " इतना कहकर मैं चुप होकर कुछ सोचने लगा । " माँ और दोनों चाचियों में झगड़ा होना भी रहा होगा ।" सुधीर ने कहाशुरू ही हो गया "यह तो मामूली बात है। यह जानते ही मृत्यु के समय मेरी माँ को तीन महीने का गर्भ पैदा हुआ । माँ खद्दर, सुत, चर्खा, तकली श्रादि की प्रेमी शुरू से ही रही हैं। गरीबों के लिये अपने हृदय का दरवाजा हमेशा खुला रखती. थीं। गाँव के हरिजन चमार जब कभी उनसे किसी प्रकार की आर्थिक सहायता के लिये कहते तो वह खुले श्राम या छिपाकर उन सबों की मदद गल्ले से, रुपये से कर देतीं थीं। उन्हीं की प्रेरणा से गाँव के सारे गरीब, विशेषतः हरिज
न समाज, पिताजी की पूजा पीर की तरह करते थे। गाँव के जमींदार को यह सब कत्तई पसन्द नहीं था। उन दोनों के बीच रञ्जिस की यही वजह थी। उनकी मृत्यु के छः महीने पूर्व की बात है कि गाँव के पूरब तरफ, हरिजन बस्ती से सटकर, एक तालाब था, जो काफी छिछला था किन्तु पानी उसमें फिर भी बरसात का जमा हो ही जाता था । आसपास के मवेशियों के पानी पीने की यही एक जगह रही हो, ऐसी बात बिलकुल नहीं थी । वहाँ और भी कई तालाब थे। हाँ, हरिजनों को इस तालाब से ज्यादा फायदा था। इसी लिये इस तालाब को जुतवा कर फसल बोने की योजना जो जमींदार ने हरिजनों से नाराज होकर बनायी कि बेचारे सभी के सभी हैरान हो गये। हरिजनों के बीच युग की चेतना एवं जागृति की लहर पहुँच चुकी थी । वे पहले की अपेक्षा अब अधिक सङ्गठित थे। जमींदार द्वारा मुफ्त में उनसे पुरवट वाला मोट, कच्चे चमड़े का जूता, हरी-बेगारी आदि की वसूली अरसे से चली आ रही थी किन्तु जन-जागृति के परिणाम स्वरूप ये चीजें धीरे-धीरे बन्द होने लग गयी थीं। इतना तो यहाँ भी हो चुका था कि जहाँ एक चमार को चार जोड़ा जूता जमींदार को साल में देना पड़ता था मुफ्त में, वहाँ जमींदार को अब एक ही जोड़ा पाकर सन्तोष कर लेना पड़ता था । पुराना रोब-दाब भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। उनकी जागृति एवं सङ्गठन को कुचलने के ख्याल से जमींदार ने यह कुचक्र चलाया था । बस यहीं से महाभारत का श्रीगणेश हुना समझो । " सुधीर ने कहा"कांग्रेस के हाथ में ताकत थायी नहीं कि जमींदारी प्रथा का पहले ही विनाश करेंगे ।" "कोई एहसान थोड़े ही करेंगे। यह युग की माँग है। युग के. साथ कदम में कदम मिलाकर चलेंगे, तभी वे लोग भी कुछ दिनों तक. टिक सकेंगे। लेकिन अभी तो हमें गोरे जमींदारों को भगाना है। बाद में कालों से निबट लिया जायगा ।" "सही कहा आ
पने। हाँ, तो पिताजी ने हरिजनों के नेतृत्व की बागडोर निश्चय ही सम्भाल ली होगी । "उस 'कुर्गजवार' में और कौन था ही उन बे-ज़बानों की तरफ.. * पास-पड़ोस । से बोलने वाला। शव धीरे-धीरे जमींदार के यादमियों के द्वारा हरिजनों को सताया जाना शुरू हो गया। वे सर पटक कर रह गये । बाख प्रयत्न किया किन्तु उस तालाब में जमींदार का हल नहीं ही चल पाया । -हरिजनों के सङ्गठित विरोध ने व्यापक रूप धारण कर लिया। शास-पास के लोगों ने इस संक्रामक बीमारी को समझौते की दवा के द्वारा बढ़ने से रोका । बन्दूक की गोलियाँ, लठैतों का बल, पुलिस, सरकार समी का नैतिक समर्थन प्राप्त किये रहने पर तथा सभी साधनों से सम्पन होने पर भी स्थिति की गम्भीरता ने जमींदार को हरिजनों से समझौता करने को विवश किया। इस अल्पकालीन संघर्ष में जमींदार की जो छीछालेदर हुयी कि उसका सारा जमींदारी का रङ्ग ही हवा हो गया । लेकिन वह टुटपुँजिया सामन्त इतनी बेइज्जती बर्दाश्त करके कभी चुप बैठा रह सकता था ? पिताजी उसकी आँखों में गड़ गये। वह जरा रोज शाम को भाँग की दो पत्ती सिलबट्टे पर रखकर शिवजी की परसादी' के रूप में उसे ग्रहण कर लेने के शादी से हो गये थे । षड्यन्त्र रचकर उन्हें भाँग में जहर दिलवा दिया और वह श्रानन-फानन की बीमारी में चल बसे । लेकिन उनकी मौत जहर खोरी ही से हुयी, इस बात की खबर, उस वक्त, किसी को भी कानों-कान नहीं लग सकी। उन दिनों पास-पड़ोस के गाँवों में हैजे की बीमारी का प्रकोप फैला हुआ था। उन्हें भी कै-दस्त होने लगी थी और चटपट दो-तीन घन्टे में खून का के करते हुये वे चल बसे । इस थाक्समिक मृत्यु से कुछ लोगों को उस समय अवश्य थोड़ा शक हुआा किन्तु जमींदार के सधे हुये गोइन्दे जैसे पटवारी, पुरोहित, मुखिया मेरे चाचा-द्वय को तुरन्त ही दाह-क्रिया कर डालने को जोर देने लगे। शायद उन्हें डराया-धमकाया भी कि कहीं जमींदार ने पुलिस को उकसा दिया और पुलिस थाकर कहने लगी कि पंडितजी ने शात्महत्या की है तब तो एक दूसरा ही बावेला मचा जायगा । मुसीबत अकेले नहीं आती। बस चाचा-द्वय ने तुरन्त ही पास ही नदी के किनारे उनका दाह संस्कार सम्पन्न कर डाला। सच तो यह है कि वे कोई 'कॉलरा' से मरे नहीं थे। साफ जहर खोरी का मामला था । बेचारे चाचा-द्वय विपत्ति में पड़ गये थे। वे दोनों उसी मुसीबत से औौर-तौर हुये जा रहे थे और यहाँ यार लोगों ने एक नयो मुसीबत का नकशा लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । इसलिये अपनी से चे काम ले नहीं पाये। अव गाँव के वे ही गुर्गे लग गये दोनों चाचा का कान भरने और उनको इस बात का यकीन दिलाने कि पंडितजी को जहर देकर मार डाला गया है। ऐसे ही गुर्गों का एक दूसरा 'सेट' था जो बाग्वा द्वय एवं जमींदार में छाब समझौता कराने को प्रयत्नशील हो गया था। चाचा-द्वय जमींदार के उन गोइन्दों को बातों में आ गये और इस तरह ब्राह्मण ठाकुर की बहुत पुरानी लड़ाई खतम हुयी । देखते-देखते जमींदार और चाचा-द्वय में इतनी सुहब्बत गयी कि पिताजी की 'तेरही' में ब्राह्मण भोजन की सारी व्यव
स्था को जमींदार ने अपने हाथों में ले लिया तथा अपनी निजी देख-रेख में वह सारा कार्य सम्पादन करता रहा। जमींदार कहने लग गया था. माई, शान की लड़ाई थी हमारी और पंडितजी की। मेरे लिये उनके भाई वैसे ही हैं जैसे मेरे अपने भाई । अब वह उनकी तारीफ करते नहीं था। उधर उनका काम-काज बीता और इधर मेरे चाचाद्वय अपने विश्वासीजनों के साथ जहर देने वालों की तलाश में पड़े। सुधीर, जरा यहीं से गौर करना । इसी जगह से एक अन्य भयकर कोटि के काण्ड की भूमिका तुम्हारे सामने आ रही है। वहीं तीसरी भयकर बात...।" "यही न कि जमींदार ने जहर दिलवाया लेकिन अपने चाचा-द्रय को विश्वास न हुआ होगा ।" "क्या तमाशा करते हो ! चाचा-द्वय के सामने जहरखोरी कीं चर्चा के सिलसिले में ठाकुर का नाम तक नहीं आया। आश्चर्य है कि उस गाँव में चिड़िया का कोई पूत भी उन दोनों को यह सुझाव देने वाला नहीं रह गया था कि इस सारे कुकृत्य के पीछे जमींदार का ही हाथ है। बेचारे हरिजनों की बात कौन सुनने ही जाता। फिर जब उनका नेता ही इस दुनियाँ में नहीं रहा तो वे किस बिरते पर सिर उठाते । जनाब ! वहाँ बिलकुल ही नयी 'थियरी' की बुनियाद डाली गयी ?" "आखिर वह क्या ?" "सुनकर ताज्जुब होगा। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि पिता जी के गत होने के एक महीना बीतते-बीतते माँ को वह गाँव छोड़कर डूब मरने की नौबत श्री गयी । वह कहीं मुँह नहीं दिखा सकती थीं । जो स्त्री गाँव में नमूने की नारी थी, वही अब घीर दुश्चरित्रा घोषित की जाने लगी थी और उसे ऐसा कहने वाले थे उसके दोनों देवर और ये दोनों जमींदार और गाँव के गुर्गों की बातों में था गये थे। गाँव के एक चमार के साथ लगाकर माँ के शरीर की हवा उड़ाने लग गये उनके दोनों देवर। इतना ही नहीं, दोनों लाठी लेकर उस चमार को जान से मार डालने के लिये घूमने
लग गये । " सुधीर के चेहरे पर चिह्नित हैरानी की भावनाओं को देखकर में जरा चुप हो गया। बस सुधीर मेरा मुँह ही ताकते ताकते, जैसे मुझे चुप देखकर यकायक बोल उठा - "अरे मास्टरजी ! भला यह आप क्या कह रहे हैं ? माँ के सम्बन्ध में ऐसी बातें कहने की मला उन दोनों को कैसे हिम्मत पड़ी ? माँ क्या उनकी इज्जत नहीं थीं ?" " सुधीर ! गँवारों की खोपड़ी की बनावट कुछ और ही किस्म की होती है। उनके दिमाग में जहाँ कोई चीज बैठा दी गयी तो उसपर वे अन्त तक कायम रहेंगे, चाहे जान निकल जाय, चाहे आय बर्बाद हो जाय किन्तु अक्क से काम लेंगे नहीं। उन दोनों का कान इस तरह भर दिया गया था कि उन दोनों को वैसा ही कुछ यकीन हो गया था । बे
।इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" आज मैं अकेला जाकर मोदी के यहाँ खड़ा हो गया। परिचय पाकर मोदी ने एक छोटा-सा पुराना चिथड़ा बाहर निकाला और गाँठ खोलकर उसमें से दो सोने की बालियाँ और पाँच रुपये निकाले। उन्हें मेरे हाथ में देकर वह बोला, "बहू ये दो बालियाँ मुझे इकतीस रुपये में बेचकर शाहजी का समस्त ऋण चुकाकर, चली गयी हैं। किन्तु कहाँ गयी हैं सो नहीं मालूम।" इतना कहकर वह किसका कितना ऋण था इसका हिसाब बतलाकर बोला, "जाते समय बहू के हाथ में कुल साढ़े पाँच आने पैसे थे।" अर्थात् बाईस पैसे लेकर उस निरुपाय निराश्रय स्त्री ने संसार के सुदुर्गम पथ में अकेले यात्रा कर दी है! पीछे से, उसके ये दोनों प्यारे बालक, कहीं उसे आश्रय देने के व्यर्थ प्रयास में, उपायहीन वेदना से व्यथित न हों, इस भय से बिना कुछ कहे ही वे बिना किसी लक्ष्य के घर से बाहर चली गयी हैं- कहाँ, सो भी किसी को उन्होंने जानने नहीं दिया। नहीं दिया-इतना ही नहीं, किन्तु मेरे पाँच रुपये भी नहीं स्वीकार किये। फिर भी, मन में यह समझकर कि वे उन्होंने ले लिये हैं, मैं आनन्द और गर्व से, न जाने कितने दिनों तक, न जाने कितने आकाश-कुसुमों की सृष्टि करता रहा था। पर वे मेरे सब कुसुम शून्य में मिल गये। अभिमान के मारे ऑंखों में जल छल छला आया जिसे उस बूढ़े से छिपाने के लिए मैं तेज़ीसे बाहर चल दिया। बार-बार मन ही मन कहने लगा कि इन्द्र से तो उन्होंने कितने ही रुपये लिये, किन्तु, मुझसे कुछ भी नहीं लिया- जाते समय 'नहीं' कहकर वापिस करके चली गयीं! किन्तु अब मेरे मन में वह अभिमान नहीं है। सयाना होने पर, अब मैंने समझा है कि मैंने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो उन्हें दान दे सकता! उस जलती अग्नि-शिखा में जो भी मैं देता वह जलकर खाक हो जाता- इसीलिए जीजी ने मेरा दान वापिस कर दिया! किन्तु इन्द्र? इन्द्र और मैं क्या एक ही धातु के बने हुए हैं जो जहाँ वह दान करे वहाँ ढीठता से मैं भी अपना हाथ बढ़ा दूँ? इसके सिवा, यह भी तो मैं समझ सकता हूँ कि आखिर किसका मुँह देखकर उन्होंने इन्द्र के आगे हाथ फैलाया था- खैर जाने दो इन बातों को। इसके बाद अनेकों जगह मैं घूमा-फिरा हूँ; किन्तु इन जली ऑंखों से मैं कहीं भी उन्हें नहीं देख पाया। मुझे वे फिर नहीं दिखाई दीं, किन्तु हृदय में वह हँसता हुआ मुँह हमेशा वैसा ही दीख पड़ता है। उनके चरित्र की कहानी का स्मरण करके जब कभी, मैं मस्तक झुकाकर मन ही मन उन्हें प्रणाम करता हूँ, तब केवल यही बात मेरे मन में आती है कि भगवान, यह तुम्हारा कैसा न्याय है? हमारे इस सती-सावित्री के देश में, तुमने पति के कारण सहधर्मिणी को अपरिसीम दुःख देकर, सती के माहात्म्य को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर करके संसार को दिखाया है, यह मैं जानता हूँ। उनके समस्त दुःख दैन्य को चिर-स्मरणीय कीर्ति के रूप में रूपान्तरित करके, जगत की सम्पूर्ण नारी जाति को कर्तव्य के ध्रुव-पथ पर आकर्षित करने की तुम्हारी इच्छा है, इसको भी मैं
अच्छी तरह समझ सकता हूँ; किन्तु हमारी ऐसी जीजी के भाग्य में इतनी बड़ी विडम्बना और अपयश क्यों लिख दिया? किसलिए तुमने ऐसी सती के मुँह पर असती की गहरी काली छाप मारकर उसे हमेशा के लिए संसार से निर्वासित कर दिया? उनको तुमने क्यों नहीं छुड़ा लिया? उनकी जाति छुड़ाई, धर्म छुड़ाया- समाज, संसार, प्रतिष्ठा, सभी कुछ तो छुड़ा लिया। और जो अपरिमित, दुःख तुमने दिया है, उसका तो मैं आज भी साक्षी हूँ। इसका भी मुझे दुःख नहीं है जगदीश्वर! किन्तु जिनका आसन, सीता, सावित्री आदि सतियों के समीप है, उन्हें उनके माँ-बाप, कुटुम्बी, शत्रु-मित्र आदि ने किस रूप में जाना? कुलटा रूप में, वेश्या रूप में! इससे तुम्हें, क्या लाभ हुआ? और संसार को भी क्या मिला? हाय रे, कहाँ हैं उनके वे सब आत्मीय स्वजन और भाई-बन्धु? यदि एक दफे भी मैं जान सकता, वह देश फिर कितनी ही दूर क्यों न होता, इस देश से बाहर ही क्यों न होता, तो भी, मैंने वहाँ जाकर अवश्य कहा होता- यही हैं तुम्हारी अन्नदा और यही उनकी अक्षय कहानी! तुमने अपनी जिस लड़की को कुल-कंलकिनी मान लिया है, उसका नाम यदि सुबह एक दफे भी ले लिया करोगे तो अनेक पापों से छुट्टी पा जाओगे? इस घटना से मैंने एक सत्य को प्राप्त किया है। पहले भी मैं एक दफे कह चुका हूँ कि नारी के कलंक की बात पर मैं सहज ही विश्वास नहीं कर सकता; क्योंकि मुझे जीजी याद आ जाती हैं। यदि उनके भाग्य में भी इतनी बड़ी बदनामी हो सकती है, तो फिर संसार में और क्या नहीं हो सकता? एक मैं हूँ, और एक वे हैं जो सर्व काल के सर्व पाप-पुण्य के साक्षी हैं- इनको छोड़कर दुनिया में ऐसा और कौन है, जो अन्नदा को जरा से स्नेह के साथ भी स्मरण करे। इसीलिए, सोचता हूँ कि न जानते हुए नारी के कलंक की बात पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भ
ला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं! उसके बाद बहुत दिनों तक इन्द्र को नहीं देखा। गंगा के तीर घूमने जाता था तो देखता था कि उसकी नाव किनारे बँधी हुई है। वह पानी में भीग रही है और धूप में फट रही है। सिर्फ एक दफे और हम दोनों उस नाव पर बैठे थे। उस नौका पर वही हमारी अन्तिम यात्रा थी। इसके बाद न वही उस नाव पर चढ़ा और न मैं ही। वह दिन मुझे खूब याद है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि वह हमारी नौका-यात्रा का समाप्ति-दिवस था, किन्तु इसलिए कि उस दिन अखण्ड-स्वार्थपरता का जो उत्कृष्ट दृष्टान्त देखा था, उसे मैं सहज में नहीं भूल सका। वह कथा भी कहे देता हूँ। वह कड़ाके की शीत-काल की संध्याख थी। पिछले दिन पानी का एक अच्छा झला पड़ चुका था, इसलिए जाड़ा सूई की तरह शरीर में चुभता था। आकाश में पूरा चन्द्रमा उगा था। चारों तरफ चाँदनी मानो तैर रही थी। एकाएक इन्द्र आ टपका; बोला, "थियेटर देखने चलेगा?" थियेटर के नाम से मैं एकबारगी उछल पड़ा। इन्द्र बोला, "तो फिर कपड़े पहिनकर शीघ्र हमारे घर आ जा।" पाँच मिनट में एक रैपर लेकर बाहर निकल पड़ा। उस स्थान को ट्रेन से जाना होता था। सोचा, घर से गाड़ी करके स्टेशन पर जाना होगा- इसलिए इतनी जल्दी है। इन्द्र बोला, "ऐसा नहीं, हम लोग नाव पर चलेंगे। मैं निरुत्साहित हो गया, क्योंकि, गंगा में नाव को उस ओर खेकर ले जाना पड़ेगा, और इसलिए बहुत देर हो जाने की सम्भावना थी। शायद समय पर पहुँचा न जा सके। इन्द्र बोला, "हवा तेज है, देर न होगी। हमारे नवीन भइया कलकत्ते से आए हैं, वे गंगा से ही जाना चाहते हैं।" खैर, दाँड लेकर, पाल तानकर ठीक तरह से हम लोग नाव में बैठ गये- बहुत देर करके नवीन भइया घाट पर पहुँचे। चन्द्रमा के आलोक में उन्हें देखकर मैं तो डर गया। कलकत्ते के भयंकर बाबू! रेशम के मोजे, चमचमाते पम्प शू, ऊपर से नीचे तक ओवरकोट में लिपटे हुए, गले में गुलूबन्द, हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी- शीत के विरुद्ध उनकी सावधानी का अन्त नहीं था। हमारी उस साधाकी डोंगी को उन्होंने अत्यन्त 'रद्दी' कहकर अपना कठोर मत ज़ाहिर कर दिया; और इन्द्र के कन्धों पर भार देकर तथा मेरा हाथ पकड़कर, बड़ी मुश्किल से, बड़ी सावधानी से, वे नाव के बीच में जाकर सुशोभित हो गये। "तेरा नाम क्या है रे?" डरते-डरते मैंने कहा, "श्रीकान्त।" उन्होंने आक्षेप के साथ मुँह बनाकर कहा, "श्रीकान्त- सिर्फ 'कान्त' ही काफ़ी है। जा हुक़्क़ा तो भर ला। अरे इन्द्र, हुक्का-चिलम कहाँ है? इस छोकरे को दे, तमाखू भर दे!" अरे बाप रे! कोई अपने नौकर को भी इस तरह की विकट भाव-भंगी से आदेश नहीं देता। इन्द्र अप्रतिभ होकर बोला, "श्रीकान्त, तू आकर कुछ देर डाँड़ पकड़ रख। मैं हुक़्क़ा भरे देता हूँ।" उसका जवाब न देकर मैं खुद ही हुक़्क़ा भरने लगा। क्योंकि वे इन्द्र के मौसेरे भाई थे, कलकत्ते के रहने वाले थे और हाल ही में उन्होंने एल.ए. पास किया था। परन्तु मन मेरा बिगड़ उठा। तमाखू भरकर हुक़्क़ा हाथ में देते ही उन्होंने प्रसन्न मुख से पीते
-पीते पूछा, "तू कहाँ रहता है रे कान्त? तेरे शरीर पर वह काला-काला सा क्या है रे? रैपर है? आह! रैपर की क्या ही शोभा है। इसके तेल की बास से तो भूत भी भाग जावें! छोकरे-फैलाकर बिछा तो दे यहाँ उसे, बैठें उस पर।" "मैं देता हूँ, नवीन भइया, मुझे ठण्ड नहीं लगती। यह लो" कहकर इन्द्र ने अपने शरीर पर की अलवान चट से उतारकर फेंक दी। वह उसे मजे से बिछाकर बैठ गया और आराम से तमाखू पीने लगा। शीत ऋतु की गंगा अधिक चौड़ी नहीं थी- आधा घण्टे में ही डोंगी उस किनारे से जा भिड़ी। साथ ही साथ हवा बन्द हो गयी। इन्द्र व्याकुल हो बोला, "नूतन भइया, यह तो बड़ी मुश्किल हुई- हवा बन्द हो गयी। अब तो पाल चलेगा नहीं।" नूतन भइया बोले, "इस छोकरे के हाथ में दे न, डाँड़ खींचे।" कलकत्तावासी नूतन भइया की जानकारी पर कुछ मलिन हँसी हँसकर इन्द्र बोला, "डाँड़! कोई नहीं ले जा सकता। नूतन भइया, इस रेत को ठेलकर जाना किसी के किये भी सम्भव नहीं। हमें लौटना पड़ेगा।" प्रस्ताव सुनकर नूतन भइया मुहूर्त भर के लिए अग्निशर्मा हो उठे, "तो फिर ले क्यों आया हतभागे? जैसे हो, तुझे वहाँ तक पहुँचाना ही होगा। मुझे थियेटर में हारमोनियम बजाना ही होगा- उनका विशेष आग्रह है।" इन्द्र बोला, "उनके पास बजाने वाले आदमी हैं नूतन भइया, तुम्हारे न जाने से वे अटके न रहेंगे।" "अटके न रहेंगे? इस गँवार देश के छोकरे बजावेंगे हारमोनियम! चल, जैसे बने वैसे ले चल।" इतना कहकर उन्होंने जिस तरह का मुँह बनाया, उससे मेरा सारा शरीर जल उठा। उसका हारमोनियम बजाना भी हमने बाद में सुना, किन्तु वह कैसा था सो बताने की ज़रूरत नहीं। इन्द्र का संकट अनुभव करके मैं धीरे से बोला, "इन्द्र, क्या रस्सी से खींचकर ले चलने से काम न चलेगा?" बात पूरी होते न होते मैं चौंक उठा। वे इस तरह दाँत किटकि
टा उठे, कि उनका वह मुँह आज भी मुझे याद आ जाता है। बोले, "तो फिर जा न, खींचता क्यों नहीं? जानवर की तरह बैठा क्यों है?" इसके बाद एक दफे इन्द्र और एक दफे मैं रस्सी खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। कहीं ऊँचे किनारे के ऊपर से, कहीं नीचे उतर कर, और बीच-बीच में उस बरफ सरीखे ठण्डे जल की धारा में घुसकर, हमें अत्यन्त कष्ट से नाव ले चलना पड़ा। और फिर बीच-बीच में बाबू के हुक्के को भरने के लिए भी नाव को रोकना पड़ा। परन्तु बाबू वैसे ही जमकर बैठे रहे- जरा भी सहायता उन्होंने नहीं की। इन्द्र ने एक बार उनसे 'कर्ण' पकड़ने को कहा तो जवाब दिया, कि "मैं दस्ताने खोलकर ऐसी ठण्ड में निमोनिया बुलाने को तैयार नहीं हूँ।" इन्द्र ने कहना चाहा, "उन्हें खोले बगैर ही..." "हाँ, कीमती दस्तानों को मिट्टी कर डालूँ, यही न! ले, जा जो करना हो कर।" वास्तव में मैंने ऐसे स्वार्थ पर असज्जन व्यक्ति जीवन में थोड़े ही देखे हैं। उनके एक वाहियात शौक़ को चरितार्थ करने के लिए हम लोगों को- जो उनसे उम्र में बहुत छोटे थे- इतना सब क्लेश सहते हुए अपनी ऑंखों देखकर वे जरा भी विचलित न हुए। कहीं से जरा-सी ठण्ड लगाकर उन्हें बीमार न कर दें, एक छींटा जल पड़ जाने से कहीं उनका कीमती ओवरकोट ख़राब न हो जाय, हिलने-चलने में किसी तरह का व्याघात न हो- इसी भय से वे जड़ होकर बैठे रहे और चिल्ला-चिल्लाकर हुक्मों की झड़ी लगाते रहे। और भी एक आफत आ गयी- गंगा की रुचिकर हवा में बाबू साहब की भूख भड़क उठी और, देखते-ही-देखते, अविश्राम बक-झक की चोटों से, और भी भीषण हो उठी। इधर चलते-चलते रात के दस बज गये हैं-थियेटर पहुँचते-पहुँचते रात के दो बज जाँयगे, यह सुनकर बाबू साहब प्रायः पागल हो उठे। रात के जब ग्यारह बजे तब, कलकत्ते के बाबू बेकाबू होकर बोले, "हाँ रे इन्द्र, पास में कहीं हिन्दुस्तानियों की कोई बस्ती-अस्ती है कि नहीं? चिउड़ा-इउड़ा कुछ मिलेगा?" इन्द्र बोला, "सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीज़ें मिलती हैं।" "तो फिर चला चल- अरे छोकरे, जरा खींच न ज़ोर से- क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और ज़ोर करके खींच ले चले?" इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली। बाबू साहब बोले, "हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।" अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे। हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा
के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, "नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा- हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।" नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, "डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं- यमराज से भी नहीं डरते- यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत ख़राब हो जाए।" वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्तर होकर उनका हुक़्क़ा भरता रहूँ। किन्तु उनके व्यवहार से मन ही मन में इतना नाराज हो गया था कि इन्द्र के इशारा करने पर भी मैं किसी तरह, इस आदमी के संसर्ग में, अकेले रहने को राजी नहीं हुआ। इन्द्र के साथ ही चल दिया। दर्जीपाड़े के बाबू साहब ने हाथ-ताली देते हुए गाना शुरू कर दिया। हम लोगों को बहुत दूर तक नाक के स्वर की उनकी जनानी तान सुनाई देती रही। इन्द्र खुद भी मन ही मन अपने भाई के व्यवहार से अतिशय लज्जित और क्षुब्ध हो गया था। धीरे से बोला, "ये कलकत्ते के आदमी ठहरे, हमारी तरह हवा-पानी सहन नहीं कर सकते- समझे न श्रीकान्त?" मैं बोला, "हूँ।" तब इन्द्र उनकी असाधारण विद्या बुद्धि का परिचय, शायद श्रद्धा आकर्षित करने के लिए देते हुए चलने लगा। बातचीत में यह भी उसने कहा कि वे थोड़े ही दिनों में बी.ए. पास करके डिप्टी हो जाँयगे। जो हो, अब इतने दिनों के बाद भी इस समय वे कहाँ के डिप्टी हैं अथवा उन्हें वह पद प्राप्त हुआ या नहीं, मुझे नहीं मालूम। परन्तु, जान पड़ता है कि वे डिप्टी अवश्य हो गये होंगे, नहीं तो बीच-बीच में बंगाली डिप्टियों की इतनी सुख्याति कैसे सुन पड़ती? उस समय उनका प्रथम यौवन था। सुनते हैं, जीवन
के इस काल में हृदय की प्रशस्सता, संवेदना की व्यापकता, जितनी बढ़ती है उतनी और किसी समय नहीं। लेकिन, इन कुछ घण्टों के संसर्ग में ही जो नमूना उन्होंने दिखाया इतने समय के अन्तर के बाद भी वह भुलाया नहीं जा सका। फिर भी, भाग्य से ऐसे नमूने कभी-कभी दिखाई पड़ जाते हैं- नहीं तो, बहुत पहले ही यह संसार बाकायदा पुलिस थाने के रूप में परिणत हो जाता। पर रहने दो अब इस बात को। परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा ज़मींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फ़िक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाज़ा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा- ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता। हम दोनों जनें बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद ख़ाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है- फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, "कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!" भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हीं नहीं दिया था! सहसा दोनों जनों की नजर पड़ी कि कुछ दूर बालू के ऊपर कोई वस्तु चाँदनी में चमचमा रही है। पास जाकर देखा तो उन्हीं के बहुमूल्य पम्प-शू की एक फर्द है? इन्द्र भीगी बालू पर लेट गया- "हाय श्रीकान्त! साथ में मेरी मौसी भी तो आई हैं। अब मैं घर लौटकर न जाऊँगा!" तब धीरे-धीरे सब बातें स्पष्ट होने लगीं। जिस समय हम लोग मोदी की दुकान पर जाकर
उसे जगाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे, उसी समय, इस तरफ कुत्तों का झुण्ड इकट्ठा होकर आर्त्त चीत्कार करके इस दुर्घटना की खबर हमारे कर्णगोचर करने के लिए व्यर्थ मेहनत उठा रहा था, यह बात अब जल की तरह हमारी ऑंखों के आगे स्पष्ट हो गयी। अब भी हमें दूर पर कुत्तों का भूँकना सुन पड़ता था। अतएव जरा भी संशय नहीं रहा कि बाघ उन्हें खींच ले जाकर जिस जगह भोजन कर रहे हैं, वहीं आस-पास खड़े हो ये कुत्ते भी अब भौंक रहेहैं। अकस्मात् इन्द्र सीधा होकर खड़ा हो गया और बोला, "मैं वहाँ जाऊँगा।" मैंने डरकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "पागल हो गये हो भइया!" इन्द्र ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। नाव पर जाकर उसने कन्धों पर लग्गी रख ली, एक बड़ी लम्बी छुरी खीसे में से निकालकर बाएँ हाथ में ले ली और कहा, "तू यहीं रह श्रीकान्त, मैं न आऊँ तो लौटकर मेरे घर खबर दे देना- मैं चलता हूँ।" उसका मुँह बिल्कुतल सफेद पड़ गया था, किन्तु दोनों ऑंखें जल रही थीं। मैं उसे अच्छी तरह चीन्हता था। यह उसकी निरर्थक, ख़ाली उछल-कूद नहीं थी कि हाथ पकड़ कर दो-चार भय की बातें कहने से ही, मिथ्या दम्भ मिथ्या में मिल जायेगा। मैं निश्चय से जानता था कि किसी तरह भी वह रोका नहीं जा सकता- वह ज़रूर जायेगा। भय से जो चिर अपरिचित हो, उसे किस तरह और क्या कहकर रोका जाता? जब वह बिल्कुसल जाने ही लगा तो मैं भी न ठहर न सका; मैं भी, जो कुछ मिला, हाथ में लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। इस बार इन्द्र ने मुख फेरकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया और कहा, "तू पागल हो गया है श्रीकान्त! तेरा क्या दोष है? तू क्यों जायेगा?" उसका कण्ठ-स्वर सुनकर मेरी ऑंखों में एक मुहूर्त में ही जल भर आया। किसी तरह उसे छिपाकर बोला, "तुम्हारा ही भला, क्या दोष है इन्द्र? तुम ही क्यों जाते हो?" जवाब में इन
्द्र ने मेरे हाथ से बाँस छीनकर नाव में फेंक दिया और कहा, "मेरा भी कुछ दोष नहीं है भाई, मैं भी नवीन भइया को लाना नहीं चाहता था। परन्तु, अब अकेले लौटा भी नहीं जा सकता, मुझे तो जाना होगा।" परन्तु मुझे भी तो जाना चाहिए। क्योंकि, पहले ही एक दफे कह चुका हूँ कि मैं स्वयं भी बिल्कुतल डरपोक न था। अतएव बाँस को फिर उठाकर मैं खड़ा हो गया और वाद-विवाद किये बगैर ही हम दोनों आगे चल दिए। इन्द्र बोला, "बालू पर दौड़ा नहीं जा सकता-खबरदार, दौड़ने की कोशिश न करना। नहीं तो, पानी में जा गिरेगा।" सामने ही एक बालू का टीला था। उसे पार करते ही दीख पड़ा, बहुत दूर पर पानी के किनारे छह-सात कुत्ते खड़े भौंक रहे हैं। जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक थोड़े से कुत्तों को छोड़कर, बाघ तो क्या, कोई शृंगाल भी नहीं दिखाई दिया। सावधानी से कुछ देर और अग्रसर होते ही जान पड़ा कि कोई एक काली-सी वस्तु पानी में पड़ी है और वे उसका पहरा दे रहे हैं। इन्द्र चिल्ला उठा, "नूतन भइया!" नूतन भइया गले तक पानी में खड़े हुए अस्पष्ट स्वर से रो पड़े, "यहाँ हूँ मैं!" हम दोनों प्राणपण से दौड़ पड़े, कुत्ते हटकर खड़े हो गये, और इन्द्र झप से कूद कर गले तक डूबे हुए मूर्च्छित प्रायः अपने दर्जीपाड़े के मौसेरे भाई को खींचकर किनारे पर उठा लाया। उस समय भी उनके एक पैर में बहुमूल्य पम्प-शू, शरीर पर ओवरकोट, हाथ में दस्ताने, गले में गुलूबन्द और सिर पर टोपी थी। भागने के कारण फूलकर वे ढोल हो गये थे! हमारे जाने पर उन्होंने हाथ-ताली देकर जो बढ़िया तान छेड़ दी थी, बहुत सम्भव है, उसी संगीत की तान से आकृष्ट होकर, गाँव के कुत्ते दल बाँधकर वहाँ आ उपस्थित हुए थे! और उस अभूतपूर्व गीत और आदरपूर्ण पोशाक की छटा से विभ्रान्त होकर इस महामान्य व्यक्ति के पीछे पड़ गये थे। पीछा छुड़ाने के लिए इतनी दूर भागने पर भी आत्मरक्षा का और कोई उपाय न खोज सकने के कारण अन्त में झप से पानी में कूद पड़े; और इस दुर्दान्त शीत की रात में, तुषार-शीतल जल में आधे घण्टे गले तक डूबे रहकर अपने पूर्वकृत् पापों का प्रायश्चित करते रहे। किन्तु, प्रायश्चित के संकट को दूर करके उन्हें फिर से चंगा करने में भी हमें कम मेहनत नहीं उठानी पड़ी। परन्तु सबसे बढ़कर अचरज की बात यह हुई की बाबू साहब ने सूखे मैं पैर रखते ही पहली बात यही पूछी, "हमारा एक पम्प-शू कहाँ गया?" "वह वहाँ पड़ा हुआ है।" यह सुनते ही वे सारे दुःख-क्लेश भूलकर उसे शीघ्र ही उठा लेने के लिए सीधे खड़े हो गये। इसके बाद, कोट के लिए गुलूबन्द के लिए, मोजों के लिए, दस्तानों के लिए, पारी-पारी से एक-एक के लिए शोक प्रकाशित करने लगे और उस रात को जब तक हम लोग लौटकर अपने घाट पर नहीं पहुँच गये, तब तक यही कहकर हमारा तिरस्कार करते रहे कि क्यों हमने मूर्खों की तरह उनके शरीर से उन सब चीजों को जल्दी-जल्दी उतार डाला था। न उतारा होता तो इस तरह धूल लगकर वे मिट्टी न हो जाते। हम दोनों असभ्य लोगों में रहने वाले ग्रामीण किसान हैं, हम लोगों ने इन चीजों को पह
ले कभी ऑंख से देखा तक नहीं होगा- यह सब वे बराबर कहते रहे। जिस देह पर, इसके पहले, एक छींटा भी जल गिरने से वे व्याकुल हो उठते थे, कपड़े-लत्तों के शोक में वे उस देह को भी भूल गये। उपलक्ष्य वस्तु असल वस्तु से भी किस तरह कई गुनी अधिक होकर उसे पार कर जाती है, यह बात, यदि इन जैसे लोगों के संसर्ग में न आया जाए, तो इस तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकती। रात को दो बजे बाद हमारी डोंगी घाट पर आ लगी। मेरे जिस रैपर की विकट बूसे कलकत्ते के बाबू साहब, इसके पहले, बेहोश हुए जाते थे, उसी को अपने शरीर पर डालकर- उसी की अविश्रान्त निन्दा करते हुए तथा पैर पोंछने में भी घृणा होती है, यह बार-बार सुनाते हुए भी- और इन्द्र की अलवान ओढ़कर, उस यात्रा में आत्म रक्षा करते हुए घर गये। कुछ भी हो, हम लोंगों पर दया करके जो वे व्याघ्र-कवलित हुए बगैर सशरीर वापिस लौट आए, उनके उसी अनुग्रह के आनन्द से हम परिपूर्ण हो रहे थे। इतने उपद्रव-अत्याचार को हँसते हुए सहन करके और आज नाव पर चढ़ने के शौक़ की परिसमाप्ति करके, उस दुर्जय शीत की रात में, केवल एक धोती-भर का सहारा लिये हुए, काँपते-काँपते, हम लोग घर में लौट आए। लिखने बैठते ही बहुत दफा मैं आश्चर्य से सोचता हूँ कि इस तरह की बेसिलसिले घटनाएँ मेरे मन में निपुणता से किसने सज़ा रक्खी हैं? जिस ढंग से मैं लिख रहा हूँ इस ढंग से वे एक-के बाद एक श्रृंखलाबद्ध तो घटित हुई नहीं। और फिर साँकल की क्या सभी कड़ियाँ साबुत बनी हुई हैं? सो भी नहीं। मुझे मालूम है कि कितनी ही घटनाएँ तो विस्मृत हो चुकी हैं, किन्तु फिर भी तो श्रृंखला नहीं टूटती। तो कौन फिर उन्हें नूतन करके जोड़ रखता है? और भी एक अचरज की बात है। पण्डित लोग कहा करते हैं कि बड़ों के बोझ से छोटे पिस जाते हैं। परन्तु यदि ऐसा ही होता तो फिर
जीवन की प्रधन और मुख्य घटनाएँ तो अवश्य ही याद रहने की चीज़ें होतीं। परन्तु सो भी तो नहीं देखता हूँ। बचपन की बातें कहते समय एकाएक मैंने देखा कि स्मृति-मन्दिर में बहुत-सी तुच्छ क्षुद्र घटनाएँ भी, न जाने कैसे, बहुत बड़ी होकर ठाठ से बैठ गयी हैं और बड़ी घटनाएँ छोटी बनकर न जाने कब कहाँ झड़कर गिर गयी हैं। इसलिए बोलते समय भी यही बात चरितार्थ होती है। तुच्छ बातें बड़ी हो कर दिखाई देती हैं, और बड़ी याद भी नहीं आतीं। और फिर ऐसा क्यों होता है इसकी कैफियत भी पाठकों को मैं नहीं दे सकता। जो होता है, सिर्फ उसे ही मैंने बता दिया है। इसी प्रकार की एक तुच्छ-सी बात है जो मन के भीतर इतने दिनों तक चुपचाप छिपी रहकर, इतनी बड़ी हो उठी है कि आज उसका पता पाकर मैं स्वयं भी बहुत विस्मित हो रहा हूँ। उसी बात को आज मैं पाठकों को सुनाऊँगा। किन्तु, बात ठीक-ठीक क्या है सो, जब तक कि मैं उसका पूरा परिचय न दे दूँ तब तक, उसका रूप किसी तरह भी स्पष्ट न होगा! क्योंकि, यदि मैं प्रारम्भ में ही कह दूँ कि वह एक 'प्रेम का इतिहास' है- तो उससे यद्यपि मिथ्या भाषण का पाप न होगा, किन्तु वह व्यापार अपनी चेष्टा से जितना बड़ा हो उठा है, मेरी भाषा शायद उसको भी उल्लंघन कर जायेगी। इसलिए बहुत ही सावधन होकर कहने की ज़रूरत है। वह बहुत बाद की बात है। जीजी की स्मृति भी उस समय धुँधली हो गयी थी। जिनके मुख की याद मन में लाते ही, न मालूम कैसे, प्रथम यौवन की उच्छृंखलता अपने आप अपना सिर झुका लेती है, उन जीजी की याद उस समय उस तरह नहीं आती थी। यह उसी समय की कहानी है। एक राजा के लड़के के द्वारा निमन्त्रित होकर मैं उसकी शिकार-पार्टी में जाकर शामिल हुआ था। उसके साथ बहुत समय तक स्कूल में पढ़ा था, गुपचुप अनेक बार उसके गणित के सवाल हल कर दिए थे- इसीलिए वह मुझे खूब चाहता था। इसके बाद एन्ट्रेंस क्लास से हम दोनों अलग हो गये। मैं जानता हूँ कि राजाओं के लड़कों की स्मरण-शक्ति कम हुआ करती है, किन्तु यह नहीं सोचा था कि वह मेरा स्मरण करके पत्र-व्यवहार करना शुरू कर देगा। बीच में एक दिन उससे एकाएक मुलाकात हो गयी। उसी समय वह बालिग हुआ था। बहुत-से जमा किये हुए रुपये उसके हाथ लगे और उसके बा... इत्यादि इत्यादि। राजा के कानों में बात पहुँची- अतिरंजित होकर ही पहुँची, कि राइफल चलाने में मैं बेजोड़ हूँ, तथा और भी कितने ही तरह के गुणों से मैं, इस बीच में ही, मण्डित हो गया हूँ कि जिनसे मैं एकमात्र बालिग राजपूत्र का अन्तरंग मित्र होने के लिए सर्वथा योग्य हूँ। आत्मीय बन्धु-बान्धव तो अपने आदमी की प्रशंसा कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही करते हैं, नहीं तो सचमुच ही, इतनी विद्याएँ इतने अधिक परिमाण में मैं उस छोटी-सी उम्र में ही अर्जित करने में समर्थ हो गया था; यह अहंकार मुझे शोभा नहीं देता। कम से कम कुछ विनय रखना अच्छा है खैर, जाने दो इस बात को। शास्त्रकारों ने कहा है कि राजे-रजवाड़ों के सादर आह्नान की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हिन्दू का लड़का ठहरा, शास्त्र अमान्य तो
कर नहीं सकता था, इसलिए मैं चला गया। स्टेशन से दस-बारह कोस हाथी पर बैठकर गया। देखा, बेशक राजपूत्र के बालिग होने के सब लक्षण मौजूद हैं! कोई पाँच तम्बू गड़े हुए हैं, एक स्वयं उनका, एक मित्रों का, एक नौकरों का और एक रसोई का। इनके सिवाय और एक तम्बू कुछ फासले पर था- उसके दो हिस्से करके उनमें दो वेश्याएँ और उनके साजिन्दे अवजमाए हैं। संध्यार हो चुकी है। प्रवेश करते ही मैं जान गया कि राजकुमार के ख़ास कमरे में बहुत देर से संगीत की बैठक जमी हुई है। राजकुमार ने बड़े आदर से मेरा स्वागत किया यहाँ तक कि आदर के अतिरेक से खड़े होने को तैयार होकर वे तकिये के सहारे लेट गये! मित्र दोस्त, विह्वल-कण्ठ से आइए, आइए, पधारिए, कहकर संवर्धन करने लगे। मैं सर्वथा अपरिचित था। किन्तु वह, उन लोगों की जो अवस्था थी उससे, अपरिचय के कारण रुकने वाली नहीं थी। ये 'बाईजी' पटने से, बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर, दो सप्ताह के लिए आई थीं। इस काम में राजकुमार ने जिस विवेचना और विलक्षणता का परिचय दिया था उसकी तारीफ तो करनी ही होगी। बाईजी, खूब सुन्दर, सुकण्ठ और गाने में निपुण थीं। मेरे प्रवेश करते ही गाना थम गया। इसके बाद समयोचित वार्तालाप और अदब-कायदे का कार्य समाप्त होने में भी कुछ समय चला गया। राजकुमार ने अनुग्रह करके मुझसे गाने की फरमाइश करने का अनुरोध किया। राजाज्ञा पाकर पहले तो मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा, किन्तु थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि संगीत की उस मजलिस में, सिर्फ मैं ही कुछ धुँधला-सा देख सकता हूँ और सब ही छछूँदर के माफिक अन्धे हैं। बाईजी खिल उठीं। पैसे के लोभ से बहुत-से काम किये जा सकते हैं, सो मैं जानता था; किन्तु, इन निराट मूर्खों के दरबार में वीणा बजाना वास्तव में ही इतनी देर तक, उसे बड़ा कठिन मालूम हो
रहा था। इस दफे एक समझदार व्यक्ति पाकर मानो वे बच गयीं। इसके बाद, रात को देर तक, मानो केवल मेरे लिए ही, उन्होंने अपनी समस्त विद्या, समस्त सौन्दर्य और कण्ठ के समस्त माधुर्य में हमारे चारों तरफ की उस समस्त कदर्न्य मदोन्मत्ता को डुबा दिया और अन्त में वे स्तब्ध हो गयीं। बाईजी पटने की रहने वाली थीं। नाम था 'प्यारी'। उस रात्रि को उन्होंने जिस तरह अपनी सारी शक्ति लगाकर गाना सुनाया उस तरह शायद पहले कभी नहीं सुनाया होगा॥ मैं तो मुग्ध हो गया था। गाना बन्द होते ही मेरे मुँह से यही निकला- "वाह, खूब!" प्यारी ने मुँह नीचा करके हँस दिया। इसके बाद दोनों हाथों को मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया- सलाम नहीं। मजलिस उस रात के लिए खत्म हो गयी। उस समय दर्शकों में कोई सो रहा था, कोई तन्द्रा में था और अधिकांश बेहोश थे। अपने तम्बू में जाने के लिए बाईजी सब सदलबल बाहर निकल रही थीं, तब मैं आनन्द के अतिरेक से हिन्दी में बोल उठा-"बाईजी मेरा, बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हारा गाना रोज दो सप्ताह तक सुनने को मिलेगा।" बाईजी पहले तो ठिठककर खड़ी हो रहीं, पर दूसरे ही क्षण कुछ नजदीक आकर अत्यन्त कोमल कण्ठ से परिष्कृत बंगला में बोलीं, "रुपये लिये हैं, सो मुझे तो गाना ही पड़ेगा; परन्तु क्या आप भी इन पन्द्रह सोलह दिनों तक इनकी मुसाहबी करते रहेंगे? जाइए, कल ही आप अपने घर चले जाइए।" यह बात सुनकर हतबुद्धि-सा होकर मैं मानो काठ हो गया और क्या जवाब दूँ, यह ठीक कर सकने के पहले ही देखा कि बाईजी तम्बू के बाहर हो गयी हैं। सुबह शोर गुल मचाकर कुमार साहब शिकार के लिए बाहर निकले। मद्य-मांस की तैयारी ही सबसे अधिक थी। साथ में दस-बारह शिकारी नौकर थे। पन्द्रह बन्दूकें थीं- जिसमें छः राइफलें थीं। स्थान था एक अधसूखी नदी के दोनों किनारे। इस पार गाँव था और उस पार रेत का टीला। इस पार कोस भर तक बड़े-बड़े सेमर के वृक्ष थे और उस पार रेती के ऊपर जगह-जगह काँस और कुशों के झुरमुट। यहाँ ही उन पन्द्रह बन्दूकों को लेकर शिकार किया जायेगा। सेमर के वृक्षों पर मुझे कबूतर की जाति के पक्षी दीख पड़े और अधसूखी नदी के मोड़ के पास ऐसा जान पड़ा कि दो पक्षी, चकवा-चकई, तैर रहे हैं। कौन-किस ओर जाय, इस बात पर अत्यन्त उत्साह से परामर्श करते-करते सब ही ने दो-दो प्याले चढ़ाकर देह और मन को वीरों की तरह कर लिया। मैंने बन्दूक नीचे रख दी। एक तो बाईजी के व्यंग्य की चोट खाकर रात से ही मन विकल हो रहा था, उस पर यह शिकार का क्षेत्र देखकर तो सारा शरीर जल उठा। कुमार ने पूछा, "क्यों जी कान्त, तुम तो बड़े गुमसुम हो रहे हो? अरे यह क्या! बन्दूक ही रख दी!" "मैं पक्षियों को नहीं मारता।" "यह क्या जी? क्यों, क्यों?" "मुँह पर रेख निकलने के बाद से मैंने छर्रेवाली बन्दूक नहीं चलाई- मैं उसे चलाना भी भूल गया हूँ।" कुमार साहब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। किन्तु उस हँसी का द्रव्य-गुण से कितना सम्बन्ध था, यह बात अवश्य दूसरी है। सूरज के ऑंख-मुँह लाल हो उठे। वे इस दल के प्रधन शिकारी और राज
पूत्र के प्रिय पार्श्वचर थे। उनके अचूक निशाने की ख्याति मैंने आते ही सुन ली थी। वे रुष्ट होकर बोले, "चिड़ियों का शिकार क्या कुछ शर्म की बात है?" मेरा मिज़ाज भी ठिकाने पर नहीं था, इसलिए जवाब दिया, "सबके लिए नहीं, परन्तु मेरे लिए तो है! खैर! कुमार साहब, मेरी तबियत ठीक नहीं है।" कहकर मैं तम्बू में लौट आया। इस पर कौन हँसा, किसने ऑंखें मिचकाईं। किसने मुँह बनाया, सो मैंने नजर उठाकर भी नहीं देखा। तम्बू में लौटकर मैं फर्श पर चित्त लेटा ही था और एक प्याला चाय तैयार करने का आदेश देकर एक सिगरेट पी ही रहा था कि बैरे ने आकर अदब के साथ कहा, "बाईजी आपसे मिलना चाहती हैं।" ठीक इसी बात की मैं आशा कर रहा था और आशंका भी। पूछा, "क्यों मिलना चाहती हैं?" "सो तो मैं नहीं जानता।" "तुम कौन हो?" "मैं बाईजी का खानसामा हूँ।" "बंगाली हो?" "जी हाँ, जाति का नाई हूँ। नाम मेरा रतन है।" "बाईजी हिन्दू हैं?" रतन हँसकर बोला, "न होतीं तो मैं कैसे रहता बाबू?" मुझे साथ ले जाकर और तम्बू का दरवाज़ा दिखाकर रतन चला गया। पर्दा उठाकर भीतर देखा कि बाईजी अकेली बैठी हुई प्रतीक्षा कर रही हैं। कल रात को पेशवाज और ओढ़नी के कारण मैं ठीक तौर से पहिचान न सका था, परन्तु आज देखते ही पहिचान लिया कि हो कोई; पर बाईजी हैं बंगाली की ही लड़की। बाईजी गरद की साड़ी पहने हुए मूल्यवान कार्पेट के ऊपर बैठी थीं। भीगे हुए बिखरे बाल पीठ के ऊपर फैल रहे थे। हाथों के पास पान-दान रक्खा था और सामने हुक्का। मुझे देखकर उठ खड़ी हुयीं और हँसकर सामने का आसन दिखाते हुए बोलीं, "बैठिए। आपके सामने अब और तमाखू नहीं पीऊँगी- अरे रतन, हुक़्क़ा उठा ले जा। यह क्या खड़े क्यों हैं! बैठ जाइए न!" रतन आकर हुक़्क़ा ले गया। बाईजी बोलीं, "आप तमाखू पीते हैं, यह मैं जानती हूँ;
किन्तु दूँ किस तरह? और जगह आप चाहे जो करें, किन्तु मैं जान-बूझकर तो आपको अपना हुक़्क़ा दे न सकूँगी। अच्छा, चुरुट लाए देती हूँ। अरे ओ..." "ठहरो, ठहरो, ज़रूरत नहीं। मेरी जेब में चुरुट हैं।" "हैं? अच्छा तो ठण्डे होकर जरा बैठ जाइए, बहुत-सी बातें करनी हैं। भगवान कब किससे मिला देते हैं, सो कोई नहीं कह सकता, यह स्वप्न में भी अगोचर है। शिकार के लिए गये थे, एकाएक लौट क्यों आए?" "तबीयत न लगी।" "न लगने की ही बात है। कैसी निष्ठुर है यह पुरुषों की जात। निरर्थक जीव-हत्या करने में इन्हें क्या मजा आता है सो ये ही जानें। बाबूजी तो अच्छे हैं न?" "बाबूजी का स्वर्गवास हो गया।" "हैं, स्वर्गवास हो गया! और माँ?" "वे तो उनसे भी पहले चल बसी थीं।" "ओह-तभी तो!" कहकर बाईजी एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर मेरी ओर देखती रह गयीं। एक दफा तो जान पड़ा मानो उनकी ऑंखें छलछला आयीं हैं, किन्तु, शायद वह मेरी भूल हो। परन्तु, दूसरे ही क्षण जब वे बोलीं तब भूल के लिए कोई जगह न रही। उस मुखरा नारी का चंचल और परिहास लघु कण्ठस्वर सचमुच ही मृदु और आर्द्र हो उठा था। बोलीं, "तो फिर यों कहो कि अब तुम्हारा जतन करने वाला कोई न रहा। बुआजी के पास ही रहते हो न? नहीं तो, और फिर कहाँ रहोगे? ब्याह हुआ नहीं, यह तो मैं देख ही रही हूँ। पढ़ते-लिखते हो? या वह भी इसके साथ ही समाप्त कर दिया?" अब तक तो मैं उसके कुतूहल और प्रश्नमाला को भरसक बरदाश्त करता रहा। किन्तु न जाने क्यों पिछली बात मानो मुझे एकाएक असह्य हो उठी। मैं खीझकर रूखे स्वर में बोल उठा, "अच्छा, कौन हो तुम? तुम्हें जीवन में कहाँ देखा है, यह तो याद आता नहीं। मेरे सम्बन्ध में इतनी बातें तुम जानना ही क्यों चाहती हो और जानने से तुम्हें लाभ क्या है?" बाईजी को गुस्सा न आया, वे हँसकर बोलीं, "लाभ-हानि ही क्या संसार में सब कुछ है? माया, ममता, प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं? मेरा नाम है प्यारी, किन्तु जब मेरा मुख देखकर भी न पहिचान सके, तब लड़कपन का नाम सुनकर भी मुझे कैसे पहिचान सकोगे? इसके सिवाय मैं तुम्हारे उस गाँव की लड़की भी तो नहीं हूँ।" "अच्छा तुम्हारा घर कहाँ है?" "नहीं, सो मैं नहीं बताऊँगी।" "तो फिर, अपने बाप का नाम ही बताओ?" बाईजी जीभ काटकर बोलीं, "वे स्वर्ग चले गये हैं-राम-राम, क्या उनका नाम इस मुँह से उच्चारण कर सकती हूँ?" मैं अधीर हो उठा। बोला, "यदि नहीं कर सकतीं तो फिर मुझे तुमने पहिचाना किस तरह, यही बताओ? शायद यह बतलाने में कोई दोष न होगा।" प्यारी ने मेरे मन के भाव को लक्ष्य करके मुसकरा दिया। कहा, "नहीं, इसमें कुछ दोष नहीं है, परन्तु क्या तुम विश्वास कर सकोगे?" "कह देखो न।" प्यारी ने कहा, "तुम्हें पहिचाना या महाराज, दुर्बुद्धि की मार से- और किस तरह? तुमने मेरी ऑंखों से जितना पानी बहवाया है, सौभाग्य से सूर्यदेव ने उसे सुखा दिया है। नहीं तो ऑंखों के उस जल से एक तालाब भर गया होता। पूछती हूँ, क्या इस पर विश्वास कर सकते हो?" सचमुच ही मैं विश्वास न कर सका। परन्तु वह मेरी भूल थी।
उस समय यह किसी तरह खयाल भी न आया कि प्यारी के होठों की गठन कुछ इस किस्म की है कि मानो हर बात वह मजाक में ही कहती है और मन ही मन हँसती हैं। मैं चुप रह गया। वह भी कुछ देर तक चुप रहकर इस बार सचमुच ही हँस पड़ी। परन्तु, इतनी देर में न जाने किस तरह मुझे जान पड़ा कि उसने अपनी लज्जित अवस्था को मानो सँभाल लिया है। हँसकर कहा, "नहीं महाराज, तुम्हें जितना भोला समझा था उतने भोले तुम नहीं हो। यह जो मेरा कहने का ढंग है, इसे तुमने बराबर समझ लिया है। किन्तु, यह भी कहती हूँ कि तुम्हारी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान भी इस बात पर अविश्वास नहीं कर सकते। सो यदि आप इतने अधिक बुद्धिमान हैं तो यह मुसाहबी का व्यवसाय आपने किसलिए ग्रहण किया है? यह नौकरी तो तुम्हारे जैसे आदमी से होने की नहीं। जाओ, यहाँ से चटपट खिसक जाओ!" क्रोध के मारे मेरा सर्वांग जल उठा, किन्तु मैंने उसे प्रकट नहीं होने दिया। सहज भाव से कहा, "नौकरी जितने दिन हो, उतने ही दिन अच्छी। बैठे से बेगार भली- समझीं न! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। बाहर के लोग शायद और ही कुछ समझ बैठें।" प्यारी बोली, "समझ बैठें, तो यह तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है महाराज, यह क्या कोई अफ़सोस की बात है?" उत्तर दिये बिना ही जब मैं द्वारपर आ खड़ा हुआ तब वह अकस्मात् हँसी की फुहार छोड़कर कह उठी, "किन्तु देखो बाबू, मेरी वह ऑंखों के ऑंसुओं की बात मत भूल जाना। दोस्तों में, कुमार साहब के दरबार में, प्रकट कर दोगे तो सम्भव है तुम्हारी तकदीर खुल जाय।" मैं उत्तर दिये बिना ही बाहर हो गया, परन्तु उस निर्लज्जा की वह हँसी और यह कदर्य परिहास मेरे सर्वांग में व्याप्त होकर बिच्छू के काँटे की तरह जलने लगा। अपने स्थान पर आकर, एक प्याला चाय पीकर और चुरुट मुँह में दबाकर अपने को भरसक ठण्डा करके मैं सो
चने लगा- यह कौन है? मैं अपनी पाँच-छः वर्ष की उम्र तक की सब घटनाएँ स्पष्ट तौर से याद कर सकता हूँ। किन्तु अतीत में जितनी भी दूर तक दृष्टि जा सकती थी, उतनी दूर तक मैंने खूब छान-बीन कर देखा, कहीं भी इस प्यारी को नहीं खोज पाया। फिर भी, यह मुझे खूब पहचानती है। बुआ तक की बात जानती है। मैं दरिद्र हूँ, सो भी इससे अज्ञात नहीं है। इसीलिए, और तो कोई गहरी चाल इसमें हो नहीं सकती; फिर भी, जिस तरह हो, मुझे यहाँ से भगा देना चाहती है। परन्तु यह किसलिए? मेरे यहाँ रहने न रहने से इसे क्या? बातों ही बातों में उस समय इसने कहा था- संसार में लाभ-हानि ही क्या सब कुछ है? प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं है? मैंने जिसे पहले कभी ऑंख से भी नहीं देखा, उसके मुँह की यह बात याद करके भी मुझे हँसी आ गयी। किन्तु सारी बातचीत को दबाकर, उसका आखिरी व्यंग्य ही मानो मुझे लगातार छेदने लगा। संध्याय के समय शिकारियों का दल लौट आया। नौकरों के मुँह से सुना कि आठ पक्षी मारकर लाय गये हैं। कुमार ने मुझे बुला भेजा। तबीयत ठीक न होने का बहाना करके बिस्तरों पर ही मैं पड़ रहा; और इसी तरह पड़े-पड़े रात को देर तक प्यारी का गाना और शराबियों की वाह-वाह सुनता रहा। इसके बाद तीन-चार दिन प्रायः एक ही तरह से कट गये। 'प्रायः' कहता हूँ, क्योंकि, सिर्फ शिकार को छोड़कर और सब बातें रोज एक-सी ही होती थीं। प्यारी का अभिशाप मानो फल गया हो- प्राणी-हत्या के प्रति किसी में कुछ भी उत्साह मैंने नहीं देखा। मानो कोई तम्बू के बाहर भी न निकलना चाहता हो। फिर भी मुझे उन्होंने नहीं छोड़ा। मेरे वहाँ से भाग जाने के लिए कोई विशेष कारण हो, सो बात न थी; किन्तु इस बाईजी के प्रति मुझे मानो घोर अरुचि हो गयी। वह जब हाजिर होती, तब मानो मुझे कोई मार रहा हो ऐसा लगता- उठकर वहाँ से जब चला जाता तभी कुछ शान्ति मिलती। उठ न सकता, तो फिर और किसी ओर मुँह फिराकर, किसी के भी साथ, बातचीत करते हुए अन्यमनस्क होने की चेष्टा किया करता। इस पर भी वह हर समय मुझसे ऑंखें मिलाने की हज़ार तरह से चेष्टा किया करती, यह भी मैं अच्छी तरह अनुभव करता। शुरू में दो-तीन दिन उसने मुझे लक्ष्य करके परिहास करने की चेष्टा भी की; किन्तु, फिर मेरे भाव को देखकर वह बिल्कुरल सन्न हो रही। शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया। पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्विग्नज होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि "प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विव
ाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ ऑंख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं- उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।" मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, "आप मेरे पास आइए।" मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, "आप विश्वास नहीं करते?" "क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?" "तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी ऑंखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।" कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, "देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने ऑंखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरा धारणा है।" उस भले आदमी ने चट से मेरे दाहिने हाथ को पकड़कर कहा, "क्या आप आज रात को श्मशान जा सकते है?" मैं हँसकर बोला, "जा सकता हूँ, बचपन से ही मैं अनेक रात्रियों में अनेक श्मशानों में गया हूँ।" वृद्ध चिढ़कर बोल उठे, "आप शेखी मत बघारिए बाबू।" इतना कहकर उन्होंने उस श्मशान का, सारे श्रोताओं को स्तम्भित कर देने वाला, महाभयावह विवरण विगतवार कहना शुरू कर दिया। "यह श्मशान कुछ ऐसा-वैसा स्थान नहीं है। यह महाश्मशान है। यहाँ पर हजारों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं। इस श्म
शान में, हर रात को, महाभैरवी अपने साथियों सहित नर-मुण्डों से गेंद खेलती हैं और नृत्य करती हुई घूमती हैं। उनके खिलखिला कर हँसने के विकट शब्द से कितनी ही दफे, कितनी ही अविश्वासी अंगरेज जजों, मजिस्ट्रेटों के भी हृदय की धड़कन बन्द हो गयी है।" इस किस्म की लोमहर्षक कहानी वे इस तरह से कहने लगे कि इतने लोगों के बीच, दिन के समय, तम्बू के भीतर बैठे रहने पर भी, बहुत से लोगों के सिर के बाल तक खड़े हो गये। तिरछी नजर से मैंने देखा कि प्यारी न जाने कब पास आकर बैठ गयी है और उन बातों को मानो सारे शरीर से निगल रही है। इस तरह जब वह महाश्मशान का इतिहास समाप्त हुआ तब वक्ता ने अभिमान के साथ मेरी ओर कटाक्ष फेंककर प्रश्न किया, "क्यों बाबू साहब, आप जाँयगे?" "जाऊँगा क्यों नहीं?" "जाओगे! अच्छा, आपकी मरजी। प्राण जाने पर-" मैं हँसकर बोला, "नहीं महाशय, नहीं। प्राण जाने पर भी तुम्हें दोष न दिया जायेगा, तुम इससे मत डरो। किन्तु बेजानी जगह में मैं भी तो ख़ाली हाथ नहीं जाऊँगा- बन्दूक साथ जायेगी!" आलोचना अत्यधिक तेज हो उठी है, यह देखकर मैं वहाँ से उठ गया। "पक्षी मारने की तो हिम्मत नहीं पड़ती, बन्दूक की गोली से भूत मारेंगे साहब! बंगाली लोग अंगरेजी पढ़कर हिन्दू-शास्त्र थोड़े ही मानते हैं- ये मुर्गी तक तो खा जाते हैं- मुँह से ये लोग कितनी ही शेखी क्यों न मारें, काम के समय भाग खड़े होते हैं-एक धौंस पड़ते ही इनके दन्त कपाट लग जाते हैं!" इस तरह की समालोचना शुरू हुई। अर्थात्, जिन सब सूक्ष्म युक्ति-तर्कों की अवधारणा करने से हमारे राजा रईसों को आनन्द मिलता है, और जो उनके मस्तिष्क को अतिक्रम नहीं कर जाते- अर्थात् वे स्वयं भी जिनमें घुसकर दो शब्द कह सकते हैं- ऐसे ही वे सब युक्तितर्क थे। इन लोगों के दल में सिर्फ एक आदमी ऐसा था जिसने स्वीकार किया कि मैं शिकार करना नहीं जानता और जो साधारणतः बातचीत भी कम करता था, शराब भी कम पीता था। नाम था उसका पुरुषोत्तम। शाम को आकर उसने मुझे पकड़ लिया और कहा, "मैं भी साथ चलूँगा- क्योंकि इसके पहले मैंने भी कभी भूत नहीं देखा। इसलिए, आज अब ऐसा अच्छा मौक़ा मिला है, तब मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता।"- ऐसा कहकर वह खूब हँसने लगा। मैंने पूछा, "तुम क्या भूत नहीं मानते?" "बिल्कुील नहीं।" "क्यों नहीं मानते?" "भूत नहीं है, इसलिए नहीं मानता।" इतना कहकर वह प्रचलित तर्क उठा-उठाकर बारम्बार अस्वीकार करने लगा। किन्तु, मैंने इतने सहज में उसे साथ ले जाना स्वीकार नहीं किया। क्योंकि, बहुत दिनों की जानकारी से मैंने जाना था कि, यह सब युक्ति-तर्क का व्यापार नहीं- यह तो संस्कार है। बुद्धि के द्वारा जो बिल्कुकल ही नहीं मानते, वे भी भय के स्थान पर आ पड़ने पर भय के मारे मूर्च्छित हो जाते हैं। पुरुषोत्तम किन्तु इस तरह सहज में छोड़ने वाला नहीं था। वह लाँग कसकर एक पक्के बाँस की लकड़ी कन्धों पर रखकर बोला, "श्रीकान्त बाबू, आपकी इच्छा हो तो भले ही आप बन्दूक ले चलें; किन्तु अपने हाथ में लाठी रहते, भूत हो चाहे
प्रेम- मैं किसी को भी पास न फटकने दूँगा।" "किन्तु वक्त पर हाथ में लाठी रहेगी भी?" "ठीक इसी तरह रहेगी बाबू, आप उस समय देख लेना। कोस-भर का रास्ता है, रात को ग्यारह के भीतर ही रवाना हो जाना चाहिए।" मैंने देखा, उसका आग्रह मानो कुछ अतिरिक्त-सा है। जाने के लिए उस समय भी क़रीब घण्टे-भर की देर थी। मैं तम्बू के बाहर टहलकर इस विषय पर मन ही मन आन्दोलन करके, देख रहा था कि वस्तु वास्तव में क्या हो सकती है। इन सब विषयों में मैं जिसका शिष्य था, उसे भूत का भय बिल्कुसल नहीं था। लड़कपन की बातें याद आ रही थीं- उस रात्रि को जब इन्द्र ने कहा था, "श्रीकान्त, मन ही मन राम-नाम लेता रह; वह लड़का मेरे पीछे बैठा हुआ है।" केवल उसी दिन भय के मारे मैं बेहोश हो गया था, और किसी दिन नहीं। फिर डरने का मौक़ा ही नहीं आया। किन्तु आज की बात सच हो, तो वह वस्तु है क्या? इन्द्र स्वयं भूत में विश्वास करता था। किन्तु उसने भी कभी ऑंखों से नहीं देखा। मैं भी अपने मन ही मन चाहे जितना अविश्वास क्यों न करूँ, स्थान और काल के प्रभाव से मेरे शरीर में उस समय सनसनी न पैदा हो, यह बात नहीं। सहसा सामने के उस दुर्भेद्य अमावस्या के अन्धकार की ओर देखकर मुझे एक और अमावस्या की रात की बात याद आ गयी। वह दिन भी ऐसा ही एक शनिवार था। पाँच-छह वर्ष पहले, हमारी पड़ोसिन, हतभागिनी नीरू जीजी बाल विधवा होकर भी जब प्रसूति रोग से पीड़ित होकर और छह महीने तक दुःख भोग भोगकर मरीं, तब उनकी मृत्यु-शय्या के पार्श्व में मेरे सिवा और कोई नहीं था। बाग के बीच एक मिट्टी के घर में वे अकेली रहती थीं। सब लोगों की सब तरह से रोग-शोक में, सम्पत्ति-विपत्ति में इतनी अधिक सेवा करने वाली, निःस्वार्थ परोपकारिणी स्त्री मुहल्ले-भर में और कोई नहीं थी। कितनी स्त्रियों को लिखा-
पढ़ाकर, सूई का काम सिखाकर और गृहस्थी के सब किस्म के दुरूह कार्य समझाकर, उन्होंने मनुष्य बना दिया था, इसकी कोई गिनती नहीं थी। अत्यन्त स्निग्धा शान्त-स्वभाव और चरित्र के कारण मुहल्ले के लोग भी उन्हें कुछ कम नहीं चाहते थे। किन्तु उन्हीं नीरू जीजी का जब तीस वर्ष की उम्र में हठात् पाँव फिसल गया और भगवान ने इस अत्यन्त कठिन व्याधि के आघात से उनका जीवनभर का ऊँचा मस्तक बिल्कुछल मिट्टी में मिला दिया, तब इस मुहल्ले के किसी भी आदमी ने उस दुर्भागिनी का उद्धार करने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। पाप-स्पर्श लेशहीन निर्मल हिन्दू समाज ने उस हतभागिनी के मुख के सामने ही अपने सब खिड़की-दरवाज़े बन्द कर लिये, और जिस मुहल्ले में शायद एक भी आदमी ऐसा नहीं था जिसने कि किसी न किसी तरह नीरू जीजी के हाथ की प्रेमपूर्ण सेवा का उपयोग न किया हो, उसी मुहल्ले के एक कोने में, अपनी अन्तिम शय्या डालकर वह दुर्भागिनी, घृणा और लज्जा के मारे सिर नीचा किये हुये अकेली, एक-एक दिन गिनती हुई, सुदीर्घ छः महीने तक बिना चिकित्सा के पड़ी-पड़ी अपने पैर फिसलने का प्रायश्चित करके, श्रावण महीने की एक आधी रात के समय, इस लोक को त्याग कर जिस लोक को चली गयी उसका ठीक-ठीक ब्यौरा चाहे जिस स्मार्ट पण्डित से पूछते ही जाना जा सकता है। मेरी बुआ अत्यन्त गुप्त रीति से उनकी सहायता करती थीं, यह बात मैं और मेरे घर की एक बड़ी दासी के सिवा इस दुनिया में और कोई नहीं जानता था। बुआ एक दिन मुझे अकेले में बुलाकर बोलीं, "भइया श्रीकान्त, तू तो इस तरह रोग-शोक में जाकर अनेकों की खबर लिया करता है; उस छोकरी को भी एकाध दफे क्यों नहीं देख आया करता?" तब से मैं बराबर बीच-बीच में जाकर उन्हें देखा करता और बुआ के पैसों से यह चीज- वह चीज- ख़रीद कर दे आया करता। उनकी मृत्यु के समय केवल मैं ही अकेला उनके पास था। मरण-समय में ऐसा परिपूर्ण विकास और परिपूर्ण ज्ञान मैंने और किसी के नहीं देखा। विश्वास न करने पर भी, भय के मारे शरीर में जो सनसनी फैल जाती है, उसी के उदाहरण स्वरूप मैं यह घटना लिख रहा हूँ। वह श्रावण की अमावस्या का दिन था। रात्रि के बारह बजने के बाद ऑंधी और पानी के प्रकोप से पृथ्वी मानो अपने स्थान से च्युत होने की तैयारी कर रही थी। सब खिड़की-दरवाज़े बन्द थे- मैं खाट के पास ही एक बहुत पुरानी आधी टूटी हुई आराम-कुर्सी पर लेटा हुआ था। नीरू जीजी ने अपने स्वाभाविक मुक्त स्वर से मुझे अपने पास बुलाकर, हाथ उठाकर, मेरा कान अपने मुख के पास ले जाकर, धीरे से कहा, "श्रीकान्त, तू अपने घर जा।" "सो क्यों नीरू जीजी, ऐसे ऑंधी-पानी में?" "रहने दे ऑंधी-पानी। प्राण तो पहले हैं।" वे भ्रम में प्रलाप कर रही हैं, ऐसा समझकर मैं बोला, "अच्छा जाता हूँ, पानी जरा थम जाने दो।" नीरू जीजी अत्यन्त चिन्तित होकर बोल उठीं, "नहीं, श्रीकान्त, तू जा, जा भाई, जा- अब थोड़ी भी देर मत ठहर- जल्दी भाग जा।" इस दफा उनके कण्ठस्वर के भाव से मेरी छाती का भीतरी भाग काँप उठा। मैं बोला, "मुझसे जाने के लिए
क्यों कहती हो?" प्रत्युत्तर में मेरा हाथ खींचकर और बन्द खिड़की की ओर लक्ष्य करके, वे चिल्ला उठीं, "जायेगा नहीं, तो क्या जान दे देगा? देखता नहीं है, मुझे ले जाने के लिए वे काले-काले सिपाही आए हैं। तू यहाँ पर मौजूद है, इसीलिए वे खिड़की में से ही मुझे डरा रहे हैं।" इसके बाद उन्होंने कहना शुरू किया, "वे इस खाट के नीचे हैं, वे सिर के ऊपर हैं। वे मारने आ रहे हैं! यह लिया! वह पकड़ लिया!" यह चीत्कार रात के अन्तिम समय में तब समाप्त हुआ जब कि उनके प्राण भी प्रायः शेष हो चुके थे। चौंककर मैं घूमा, देखा, रतन है। "क्या है रे?" "बाईजी ने प्रणाम कहा है।" जितना मैं विस्मित हुआ उतना ही खीझा भी। इतनी रात को अकस्मात् बुला भेजना केवल अत्यन्त अपमानकारक स्पर्धा ही मालूम हो, सो बात नहीं, गत तीन-चार दिनों के दोनों तरफ के व्यवहारों को याद करके भी यह प्रणाम कहला भेजना मानो मुझे बिल्कुील बेहूदा मालूम हुआ। किन्तु, इसके फलस्वरूप नौकर के सामने किसी तरह की उत्तेजना प्रकट न हो जाय; इस आशंका से अपने प्राणपण से सँभालकर मैंने कहा, "आज मेरे पास समय नहीं है रतन, मुझे बाहर जाना है, कल मिल सकूँगा।" रतन सिखाया-पढ़ाया नौकर था- अदब-कायदे में पक्का। अत्यन्त आदर भरे मृदु स्वर से बोला, "बड़ी ज़रूरत है बाबूजी, एक दफे अपने कदमों की धूल देनी ही होगी। नहीं तो, बाईजी ने कहा है, वे स्वयं ही आ जाँयगी।"- सर्वनाश! इस तम्बू में इतनी रात को, इतने लोगों के सामने! मैं बोला, "तू समझाकर कहना रतन, आज नहीं, कल सवेरे ही मिल लूँगा। आज तो मैं किसी भी तरह नहीं जा सकता।" रतन बोला, "तो फिर वे ही आएँगी बाबूजी, मैं गत पाँच वर्षों से देख रहा हूँ कि बाईजी की बात में कभी जरा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। आप नहीं चलेंगे तो वे निश्चय ही आवेंगी।" इस अन्याय अ
संगत ज़िद को देखकर मैं एड़ी से चोटी तक जल उठा। बोला, "अच्छा ठहरो, मैं आता हूँ।" तम्बू भीतर देखा, वारुणी की कृपा से जागता कोई नहीं है। पुरुषोत्तम भी गम्भीर निद्रा में मग्न है। नौकरों के तम्बू में सिर्फ दो-चार आदमी जाग रहे हैं। झटपट बूट पहिनकर एक कोट शरीर पर डाल लिया। राइफल ठीक रखी ही थी। उसे हाथ में लेकर रतन के साथ-साथ बाईजी के तम्बू में पहुँचा। प्यारी सामने ही खड़ी थी। मुझे आपादमस्तक बार-बार देखती हुई, किसी तरह की भूमिका बाँधो बगैर ही, क्रुद्धस्वर में बोल उठी, "मसान-वसान में तुम्हारा जाना न हो सकेगा-किसी तरह भी नहीं।" बहुत ही आश्चर्यचकित होकर मैं बोला, "क्यों?" "क्यों और क्या? भूत-प्रेत क्या हैं नहीं, जो इस शनिवार की अमावस्या को तुम श्मशान जाओगे? क्या तुम अपने प्राणों को लेकर फिर लौट आ सकोगे वहाँ से?" इतना कहकर प्यारी अकस्मात् रोने लगी और ऑंसुओं की अविरल धारा बहाने लगी। मैं विह्वल-सा होकर चुपचाप उसकी ओर देखता रह गया। क्या करूँ, क्या जवाब दूँ, कुछ सोच ही न सका। सोच न सकने में अचरज की बात ही क्या थी? जिससे जान नहीं, पहिचान नहीं, वह यदि हिताकांक्षा से आधी रात को बुलाकर ख़ामख्वाह रोना शुरू कर दे, तो कौन है ऐसा जो हत-बुद्धि न हो जाय! मेरा जवाब न पाकर प्यारी ने ऑंखें पोंछते हुए कहा, "तुम क्या किसी दिन भी शान्त-शिष्ट नहीं होओगे? ऐसे हठी बने रहकर ही जीवन बिता दोगे? जाओ, देखूँ तुम कैसे जाते हो? मैं भी फिर तुम्हारे साथ चलूँगी।" इतना कहकर उसने शाल उठाकर अपने शरीर पर डालने की तैयारी कर दी। मैंने संक्षेप में कहा, "अच्छा है चलो!" मेरे इस छिपे हुए ताने से जल-भुनकर प्यारी बोली, "आहा! देश-विदेश में तब तो तुम्हारी सुख्याति की सीमा-परिसीमा न रहेगी! बाबू शिकार खेलने के लिए आकर, एक नाचने वाली को साथ लेकर, आधी रात को भूत देखने गये थे! वाह! मैं पूछती हूँ, घर से क्या बिल्कुरल ही 'आउट' होकर आए हो? घृणा, विरिक्त, लाज-शरम आदि क्या कुछ भी नहीं रह गयी?" यह कहते-कहते उसका तीव्र कण्ठ मानो आर्द्र होकर भारी हो गया। बोली, "कभी तो तुम ऐसे नहीं थे। तुम्हारा इतना अधःपतन होगा, यह तो किसी ने भी कभी सोचा-समझा न था।" उसकी पिछली बात पर और कोई समय होता तो मैं इतना खीझ उठता कि जिसका पार न रहता; परन्तु इस समय क्रोध नहीं आया। मन ही मन मुझे लगा कि प्यारी को मानो मैंने पहिचान लिया है। ऐसा क्यों मन में आया सो फिर कहूँगा। उस समय मैं बोला, "लोगों के सोचने-समझने का मूल्य कितना है, सो तो तुम खुद भी जानती हो। तुम भी इतने अधःपतन के रास्ते जाओगी, क्या कभी किसी ने सोचा था?" क्षण-भर के लिए प्यारी के मुख के ऊपर शरद ऋतु की बदली वाली चाँदनी के समान हँसी की एक सहज आभा दिखाई दे गयी। किन्तु वह क्षण-भर के लिए ही। दूसरे ही क्षण उसने डरती हुई आवाज़ से कहा, "मेरे विषय में तुम क्या जानते हो? कौन हूँ मैं, बताओ?" "तुम हो प्यारी।" "सो तो सभी जानते हैं।" "सब जो नहीं जानते, सो भी मैं जानता हूँ- उसे सुनकर क्या तुम खुश होओगी? यदि
होती तो खुद ही अपना परिचय दे देतीं। किन्तु जब नहीं दिया है, तब मेरे मुँह से भी कोई बात नहीं सुन पाओगी। इस बीच सोचकर देखो, अपने आपको प्रकट करोगी कि नहीं? किन्तु अब और समय नहीं है- मैं जाता हूँ।" प्यारी ने बिजली की सी तेज़ीके साथ मेरा रास्ता रोककर कहा, "यदि न जाने दूँ, तो क्या जबरन चले जाओगे?" "किन्तु, जाने ही क्यों न दोगी?" प्यारी बोली, "जाने दूँ? सचमुच क्या भूत नहीं होते जो तुम्हारे 'जाने दो' कहने से ही जाने दूँगी? मैं कहे देती हूँ कि मैं बात की बात में 'मैया री मैया' चिल्लाकर हाट लगा दूँगी।" यह कहकर उसने बन्दूक छीन लेने की चेष्टा की। मैं एक क़दम पीछे हट गया। कुछ क्षणों से मेरी खीझ हँसी के रूप में परिवर्तित हो रही थी। इस दफे खूब हँसकर कह दिया, "सचमुच के भूत होते हैं कि नहीं, सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु झूठ-मूठ के भूत हैं, यह ज़रूर जानता हूँ। वे सामने खड़े होकर बातचीत करते हैं, रास्ता रोकते हैं- ऐसे न जाने कितनी तरह के कीर्ति के काम करते हैं- और ज़रूरत पड़ने पर गर्दन दबोचकर खा भी जाते हैं!" प्यारी मलिन हो गयी और क्षण-भर के लिए शायद सोच न सकी कि क्या कहे। इसके बाद बोली, "यदि ऐसी बात है, तो जो तुम यह कहते हो कि तुमने मुझे पहिचान लिया, सो तुम्हारी भूल है। वे अनेक कीर्ति के काम करते हैं, यह सच है, किन्तु दबोचने के लिए रास्ता रोककर नहीं खड़े होते। उन्हें अपने पराए का बोध होता है।" मैंने फिर भी हँसकर प्रश्न किया, "यह तो हुई तुम्हारी खुद की बात, किन्तु तुम क्या भूत हो?" प्यारी बोली, "भूत ही तो हूँ, और नहीं तो क्या? जो लोग मरकर भी नहीं मरते, वे ही तो भूत हैं; यही तो कहने का मतलब है?" थोड़ी देर ठहरकर वह स्वयं ही फिर कहने लगी, "एक हिसाब से तो, जो मैं मर चुकी हूँ सो सत्य है। किन्तु सच ह
ो चाहे झूठ, अपने मरने की बात मैंने प्रसिद्ध नहीं की, मामा के जरिए माँ ने फैलाई थी। सुनना चाहते हो सब हाल?" मरने की यह बात सुनते ही मेरा संशय दूर हो गया। मैंने ठीक पहिचान लिया कि यह राजलक्ष्मी है। बहुत दिन पहले यह अपनी माता के संग तीर्थ-यात्रा करने गयी थी और फिर लौटकर नहीं आई। माँ ने गाँव में आकर यह बात प्रसिद्ध कर दी कि काशी में हैजे की बीमारी से वह मर गयी। उसे मैंने कभी देखा है, यह बात अवश्य ही मुझे याद न आ रही थी किन्तु उसकी एक आदत पर, मैं जबसे यहाँ आया था तभी से, ध्याहन दे रहा था। जब वह गुस्से में होती थी तब दाँतों के नीचे अधर दबा लिया करती थी। कभी कहीं किसी को मानो ठीक इसी तरह करते अनेक बार देखा है, केवल यही बात बार-बार मन में आने लगी। किन्तु वह कौन था, कहाँ देखा था; कब देखा था- सो कुछ भी याद नहीं आता था। वही राजलक्ष्मी ऐसी हो गयी है, यह देखकर मैं क्षण-भर के लिए अचरज से अभिभूत हो गया। मैं जब अपने गाँव के मनसा पण्डित की पाठशाला में सब छात्रों का सरदार था, तब इसके दो पुश्त के कुलीन बाप ने अपना एक और ब्याह करके इसको घर से निकाल दिया। पति के द्वारा परित्यक्ता माता, सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी नामक दोनों कन्याओं को लेकर अपने बाप के घर चली आई। उम्र इसकी उस समय आठ-नौ की होगी और सुरलक्ष्मी की बारह-तेरह की। इसका रंग अवश्य ही खूब उजला था किन्तु मलेरिया और प्लीहा के मारे पेट मटके जैसा, हाथ पैर लकड़ी की तरह, सिर के बाल ताँबे के समान थे और कितने थे सो भी गिने जा सकते थे। मेरी मार के डर से यह लड़की करोंदों की झाड़ी में घुसकर करोंदों की माला गूँथ लाकर मुझे दिया करती थी। यदि वह माला किसी दिन छोटी होती तो, मैं पुराना पाठ पूछकर इसे जी भरकर चपतियाता था। मार खाकर यह लड़की होठ चबाती हुई गुमसुम होकर बैठ रहती, किन्तु किसी तरह भी यह नहीं कहती कि रोज करोंदे संग्रह करना उसके लिए कितना कठिन है। जो कुछ भी हो, इतने दिनों तक तो मैं यही समझता था कि वह मेरे भय से इतना क्लेश स्वीकार करती है; किन्तु आज मानो हठात् कुछ संशय उत्पन्न हुआ। खैर जाने दो। उसके बाद इसका विवाह हो गया। वह विवाह भी एक विचित्र व्यापार था। बेचारा मामा भानजियों के ब्याह की चिन्ता के मारे मरा जा रहा था। दैवात् कहीं से यह खबर आई कि विरंचि दत्त का रसोइया कुलीन की सन्तान है। इस कुलीन की सन्तान को दत्त महाशय बाँकुड़े से अपनी बदली होते समय साथ ही लिवा लाए थे। विरंचि दत्त के द्वार पर मामा धरना देकर पड़ गये- ब्राह्मण की जाति-रक्षा करनी ही होगी! इतने दिन तक तो सब यही जानते थे कि दत्त महाशय का रसोइया भोला भाला भला आदमी है परन्तु मतलब के समय देखा गया कि रसोइया महाराज की सांसारिक बुद्धि किसी से भी कम नहीं है। सिर्फ इक्यावन रुपये दहेज की बात सुनकर वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, "इतने सस्ते में नहीं हो सकता महाशय- बाज़ार जाँच देखिए। पचास और एक रुपये में तो एक जोड़ी बड़े बकरे भी नहीं मिलते- और इतने में आप जमाई खोजते हैं! एक सौ और एक रुपय
े दो, तो एक बार इस पाटे पर और एक बार उस पाटे पर बैठकर दो फूल छोड़ दूँगा। दोनों ही बहिनें एक ही साथ 'पार' हो जाँयगी। क्या एक सौ रुपये- दो साँड़ ख़रीदने का खर्च-भी आप न देंगे?" बात कुछ असंगत नहीं थी। फिर भी अनेक मोल-तोल और बड़ी सही सिफारिश के बाद सत्तर रुपये में तय होकर एक ही रात में एक साथ सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी का विवाह हो गया। दो दिन बाद सत्तर रुपये नकद लेकर वह दो पुश्त का कुलीन जमाई बाँकुड़ा चल दिया। इसके बाद फिर किसी ने उसे नहीं देखा। डेढ़ेक वर्ष बाद प्लिहा के ज्वर से सुरलक्ष्मी मर गयी और उसके भी वर्ष-डेढ़ वर्ष पीछे इस राजलक्ष्मी ने काशी में मरकर शिवत्व प्राप्त किया। यही है प्यारी बाईजी का संक्षिप्त इतिहास। बाईजी ने कहा, "तुम क्या सोच रहे हो, बताऊँ?" "क्या सोच रहा हूँ?" "तुम सोच रहे हो- आहा! लड़कपन में मैंने इसे कितना कष्ट दिया है। काँटों के बन में भेजकर रोज-रोज करौंदे मँगवाया किया हूँ, और उसके बदले केवल मार-पीट ही करता रहा हूँ। मार खाकर यह गुपचुप हमेशा रोया ही की है, परन्तु चाहा कभी कुछ नहीं। आज यदि यह कुछ बात कहती है तो सुन ही न लूँ। न सही, न गया आज श्मशान को। यही न?" मैं हँस पड़ा। प्यारी ने भी हँसकर कहा, "यह तो होना ही चाहिए। बचपन में जिससे एक दफा प्यार हो जाता है, क्या वह कभी भूलता है? वह यदि अनुरोध करे तो फिर क्या उसे पैर से ठोकर मारकर टाला जा सकता है? संसार में ऐसा निष्ठुर कौन है? चलो, थोड़ा बैठ लो, बहुत-सी बातें करनी हैं। रतन, बाबूजी के जूते तो खोल दे। अरे हँसते हो?" "हँसता हूँ यह देखकर, कि तुम लोग मनुष्य को भुलाकर किस तरह वश में कर लिया करती हो।" प्यारी ने भी हँस दिया बोली, "यह देखकर हँसते हो! दूसरों को तो बातों में भुलाकर वश में किया जा सकता है; किन्तु, होश सँभा
लते ही स्वयं जिसके वश में रही हूँ, उसे भी क्या बातों में भुलाया जा सकता है? अच्छा आज तो वैसे मैं बात कर लेती हूँ, किन्तु उस समय हर रोज जब काँटों में क्षत-विक्षत होकर माला गूँथ देती थी; तब कितनी बात किया करती थी, कहो न? वह क्या तुम्हारी मार के डर से? यह बात भूलकर भी मन में मत लाना। राजलक्ष्मी ऐसी नहीं है। किन्तु राम! राम! तुम तो मुझे बिल्कुेल ही भूल गये थे, देखकर पहिचान भी न सके!" यों कहकर हँसते ही, सिर हिलाने से उसके दोनों कानों के हीरे तक हिलकर हँस उठे। मैंने कहा, "मैंने तुम्हें मन में स्थान ही कब दिया था, जो भूलता नहीं? वरन् आज मैंने तुम्हें पहिचान लिया, यह देखकर मुझे खुद ही अचरज हो रहा है। अच्छा, बारह बज चुके- जाता हूँ।" प्यारी का हँसता हुआ चेहरा पल-भर में बिल्कुनल फीका पड़ गया। तनिक सँभलकर उसने कहा, "अच्छा, भूत-प्रेत मत मानों, किन्तु साँप-बिच्छू, बाघ-भालू, जंगली सूअर आदि भी तो वन-जंगल में अंधेरी रात में फिरते रहते हैं, उन्हें तो मानना चाहिए?" मैंने कहा, "इनको तो मैं मानता ही हूँ, और इनसे खूब सावधन रहकर चलता हूँ।" मुझे जाने को उद्यत देखकर वह धीरे से बोली, "तुम जिस धातु के बने आदमी हो, उससे मैं जानती थी कि तुम्हें अटका न सकूँगी। यह भय मुझे खूब ही हो रहा था, फिर भी मैंने सोचा कि रो-धोकर, हाथ-पैर जोड़कर, अन्त तक शायद तुम्हें रोक सकूँ। किन्तु देखती हूँ रोना ही सार रहा।" मुझे जवाब देते न देख वह फिर बोली, "अच्छा जाओ, पीछे लौटाकर अब और असगुन न करूँगी। किन्तु, यदि कुछ हो जायेगा तो इस विदेश में, पराई जगह, राजे-रजवाड़े या मित्र-दोस्त, कोई काम नहीं आवेंगे, तब मुझे ही भुगतना पड़ेगा। मुझे पहिचान नहीं सकते, यह मेरे मुँह पर ही कहकर तुम अपने पौरुष की डींग हाँककर चल दिए, किन्तु हमारा तो स्त्रियों का मन है! विपत्ति के समय मैं तो यह कह न सकूँगी कि "मैं तुम्हें पहिचानती ही नहीं।" यह कहकर उसने एक दीर्घ निःश्वास दबा लिया। जाते-जाते मैंने लौटकर, खड़े होकर हँस दिया। न जाने क्यों मानो मुझे कुछ कष्ट का अनुभव हुआ। मैं बोला, "अच्छा तो है बाईजी, यह तो मुझे एक बड़ा लाभ होगा। मेरा तो कोई कहीं नहीं है, तब ही तो मैं जान सकूँगा कि हाँ, मेरा भी कहीं कोई है- जो मुझे छोड़कर नहीं जा सकता!" प्यारी बोली, "सो क्या तुम जानते नहीं हो? एक सौ बार 'बाईजी' कहकर तुम मेरा चाहे जितना अपमान क्यों न करो, राजलक्ष्मी तुम्हें छोड़कर न जा सकेगी-यह बात क्या तुम मन ही मन नहीं समझ रहे हो? किन्तु यदि मैं छोड़कर जा सकती, तो अच्छा होता। तुम्हें एक सीख मिल जाती। किन्तु, कितनी बुरी है यह स्त्रियों की जाति। एक दफा भी किसी को प्यार किया कि मरी!" मैं बोला, "प्यारी, भले संन्यासी को भी भीख नहीं मिलती, जानती हो, क्यों?" प्यारी बोली, "जानती हूँ, किन्तु तुम्हारे इस व्यंग्य में इतनी धार नहीं रही है कि इससे तुम मुझे वेध सको। यह मेरा ईश्वरदत्त धन है। और, जब कि मुझे संसार में भले-बुरे तक का ज्ञान नहीं था; उस समय का यह है। आज का
नहीं।" मैं कुछ नरम होकर बोला, "अच्छी बात है, चाहता हूँ कि आज मुझ पर कोई आफत आवे और तब तुम्हारे इस ईश्वर-दत्त धन की हाथों-हाथ जाँच हो जाये।" प्यारी बोली, "राम-राम! ऐसी बात मत कहो। अच्छे-भले लौट आओ- इस सच्चाई की जाँच करने की ज़रूरत नहीं है। मेरे ऐसे भाग कहाँ कि वक्त-मौके पर अपने हाथ हिला-डुलाकर तुम्हें स्वस्थ सबल कर सकूँ। यदि ऐसा हो तो समझूँगी कि इस जन्म के एक कर्त्तव्य को पूरा कर डाला।" इतना कहकर उसने अपना मुँह फेरकर अपने ऑंसू छिपा लिये, यह हरीकेन के क्षीण प्रकाश में भी मैं अच्छी तरह जान गया। "अच्छा, भगवान तुम्हारी इस साध को कभी किसी दिन पूरा करें," कहकर और अधिक देर न करके मैं तम्बू के बाहर आ खड़ा हुआ। कौन जानता था कि हँसी-हँसी में ही मुँह से एक प्रचण्ड सत्य बाहर निकल जायेगी। तम्बू के भीतर से ऑंसुओं से रुँधे हुए कण्ठ से निकली हुई 'दुर्गा! दुर्गा!' की कातर पुकार कानों में आई और मैं तेज चाल से चल दिया। मेरा सारा मन प्यारी की ही बातों से ढँक गया। कब मैं आम के बगीचे के बड़े अंधियारे मार्ग को पार कर गया, और कब नदी के किनारे के सरकारी बाँध के ऊपर आ खड़ा हुआ, यह मैं जान ही न सका। सारी राह सिर्फ यही एक बात सोचता-सोचता आया कि स्त्री-जाति का मन भी कैसा विराट अचिन्तनीय व्यापार है। इस पिलही के रोगवाली लड़की ने अपने मटके जैसे पेट और लकड़ी जैसे हाथ-पाँव लेकर, सबसे पहले किस समय मुझे चाहा था और करोंदों की माला से अपनी दरिद्र-पूजा को सम्पन्न किया था, सो मैं बिल्कुहल ही न जान सका। और आज जब मैं जान सका, तब मेरे अचरज का पार नहीं रहा। अचरज कुछ इसलिए भी नहीं था- उपन्यास नाटकों में बाल्य-प्रणय की अनेकों कथाएँ पढ़ी हैं- किन्तु जिस वस्तु को गर्व के साथ, अपनी ईश्वर दत्त सम्पत्ति कहकर प्रकट करते हुए भी
वह कुण्ठित नहीं हुई, उसे उसने, इतने दिनों तक, अपने इस घृणित जीवन के सैकड़ों मिथ्या प्रणयाभिनयों के बीच, किस कोने में जीवित रख छोड़ा था? कहाँ से इसके लिए वह खुराक जुटाती रही? किस रास्ते से प्रवेश करके वह उसका लालन-पालन करती रही? मैं एकदम चौंक पड़ा। सामने ऑंख उठाकर देखा, भूरे रंग की बालू का विस्तीर्ण मैदान है और उसे चीरती हुई एक शीर्ण नदी की वक्र रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई सुदूर में अन्तर्हित हो गयी है। समस्त मैदान में जगह-जगह काँस के पेड़ों के झुण्ड उग रहे हैं। अन्धकार में एकाएक जान पड़ा कि मानो ये सब एक-एक आदमी हैं, जो आज की इस भयंकर अमावस्या की रात्रि को प्रेतात्मा का नृत्य देखने के लिए आमन्त्रित होकर आए हैं और बालू के बिछे हुए फर्श पर मानो अपना अपना आसन ग्रहण करके सन्नाटे में प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर के ऊपर, घने काले आकाश में, संख्यातीत गृह-तारे भी, उत्सुकता के साथ अपनी ऑंखों को एक साथ खोले हुए ताक रहे हैं। वायु नहीं, शब्द नहीं, अपनी छाती के भीतर छोड़कर, जितनी दूर दृष्टि जाती थी वहाँ तक कहीं भी, प्राणों की जरा-सी भी आहट अनुभव करने की गुंजाइश नहीं। जो रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर थम गया, वह भी और कुछ नहीं बोला। मैं पश्चिम की ओर धीरे-धीरे चला। उसी ओर वह महाश्मशान था। एक दिन शिकार के लिए आकर, जिस सेमर के झाड़ों के झाड़ को देख गया था, कुछ दूर चलने पर उनके काले-काले डाल-पत्र दिखाई दिए। यही थे उस महाश्मशान के द्वारपाल। इन्हीं को पार करके आगे बढ़ना होगा। इसी समय से प्राणों की अस्पष्ट आहट मिलने लगी, परन्तु वह ऐसी नहीं थी जिससे कि चित्त कुछ प्रसन्न हो। कुछ और दूर चलने पर वह कुछ और साफ़ हुई। किसी माँ के 'कुम्भकर्णी निद्रा' में सो जाने पर उसका छोटा बच्चा, रोते-रोते अन्त में बिल्कुील निर्जीव-सा होकर, जिस प्रकार रह-रहकर रिरियाना शुरू कर देता है, ऐसा मालूम हुआ कि ठीक उसी तरह श्मशान के एकान्त में कोई रिरिया रहा है। मैं बाज़ी लगाकर कह सकता हूँ कि, जिसने उस रोने का इतिहास पहले कभी जाना-सुना न हो, वह ऐसी गहरी अंधेरी अमावस्या की रात्रि में अकेला उस ओर एक पैर भी आगे बढ़ाना नहीं चाहेगा। वह मनुष्य का बच्चा नहीं चमगीदड़ का बच्चा था, जो अंधेरे में अपनी माँ को न देख सकने के कारण रो रहा था- यह बात, पहले से जाने बिना, सम्भव नहीं है कि कोई अपने आप निश्चयपूर्वक कह सके कि यह आवाज़ मनुष्य के बच्चे की है। और भी नजदीक जाकर देखा, ठीक यही बात थी। झोलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके हुए, असंख्य चमगीदड़ रात्रि-वास कर रहे हैं और उन्हीं में का कोई शैतान बच्चा इस तरह आर्त्त कण्ठ से रो रहा है। झाड़ के ऊपर वह रोता ही रहा और उसके नीचे से आगे बढ़ता हुआ मैं उस महाश्मशान के एक हिस्से में जा खड़ा हुआ। सुबह उस वृद्ध ने जो यह कहा था कि यहाँ लाखों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं- मैंने देखा, कि उसके कथन में जरा भी अत्युक्ति नहीं है- कपाल तो वहाँ असंख्य पड़े हुए थे; फिर भी, खिलाड़ी उस समय तक भी आकर नहीं जुट प
ाए थे। मेरे सिवाय कोई और अशरीरी दर्शक वहाँ उपस्थित था या नहीं, सो भी मैं इन दो नश्वर चक्षुओं से आविष्कृत नहीं कर सका। उस समय घोर अमावास्या थी। इसलिए, खेल शुरू होने में और अधिक देरी नहीं है, यह सोच करके मैं एक रेत के टीले पर जाकर बैठ गया। बन्दूक खोलकर, उसके टोंटे की और एक बार जाँच करके तथा फिर उसे यथास्थान लगाकर, मैंने उसे गोद में रख लिया और तैयार हो रहा। पर हाय रे टोंटे! विपत्ति के समय, उसने जरा भी सहायता नहीं की। प्यारी की बात याद आ गयी। उसने कहा था, "यदि निष्कपट भाव से सचमुच ही तुम्हें भूत पर विश्वास नहीं है, तो फिर, वहाँ कर्म-भोग करने जाते ही क्यों हो? और यदि विश्वास में ज़ोर नहीं है, तो फिर मैं, भूत-प्रेत चाहे हों चाहे न हों, तुम्हें किसी तरह जाने न दूँगी।" सच तो है, यहाँ आया आखिर क्या देखने हूँ? पाप मन से अगोचर तो है नहीं। मैं वास्तव में कुछ भी देखने नहीं आया हूँ। केवल यही दिखाने आया हूँ कि मुझमें कितना साहस है। सुबह जिन लोगों ने कहा था, "कायर बंगाली काम के समय भाग जाते हैं," मुझे तो उनके निकट प्रमाण सहित सिर्फ यही बताना है कि बंगाली लोग बड़े वीर होते हैं। मेरा यह बहुत दिनों का दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य के मरने पर फिर उसका अस्तित्व नहीं रहता। और यदि रहता भी हो, तो भी जिस श्मशान में उसकी पार्थिव देह को पीड़ा पहुँचाने में कुछ भी कसर नहीं रखी जाती वहाँ, उसी जगह लौटकर अपनी ही खोपड़ी में लातें मार मारकर उसे लुढ़काते फिरने की इच्छा होना उसके लिए न तो स्वाभाविक ही है और न उचित ही। कम-से-कम मैं अपने लिए तो ऐसा ही समझता हूँ। यह बात दूसरी है कि मनुष्य की रुचि भिन्न-भिन्न होती है। यदि किसी की होती हो तो, इस बढ़िया रात को रात्रि-जागरण करके, मेरा इतनी दूर तक का आना निष्फल नहीं होगा।
और फिर, आज उस वृद्ध व्यक्ति ने इसकी बड़ी भारी आशा भी तो दिलाई है। एकाएक हवा का एक झोंका कितनी ही रेत उड़ाता हुआ मेरे शरीर पर से होकर निकल गया; और वह खत्म भी होने नहीं पाया कि दूसरा और फिर तीसरा भी, ऊपर से होकर निकल गया। मन में सोचने लगा कि भला यह क्या है। इतनी देर तक तो लेश-भर भी हवा न थी। अपने आप चाहे कितना ही क्यों न समझूँ और समझाऊँ, फिर भी यह संस्कार, कि मरने के बाद भी कुछ अज्ञात सरीखा रहता है, हमारे हाड़-मांस में ही भिदा हुआ है, और जब तक हाड़-मांस हैं तब तक वह भी है, फिर चाहे मैं उसे स्वीकार करूँ चाहे न करूँ। इसलिए उस हवा के झोंके ने केवल रेत और धूल ही नहीं उड़ाई, किन्तु मेरे उस मज्जागत गुप्त संस्कार पर भी चोट पहुँचाई। क्रमशः धीरे-धीरे कुछ और ज़ोर से हवा चलने लगी। बहुत से आदमी शायद यह नहीं जानते कि मृत मनुष्य की खोपड़ी में से हवा के गुजरने से ठीक दीर्घ श्वास छोड़ने का-सा शब्द होता है। देखते ही देखते आसपास, सामने पीछे, चारों ओर से दीर्घ उसासों की झड़ी-सी लग गयी। ठीक ऐसा लगने लगा कि मानो कितने ही आदमी मुझे घेरकर बैठे हैं और लगातार जोर-जोर से हाय-हाय करके उसासें ले रहे हैं; और अंगरेजी में जिसे 'अन्कैनी फीलिंग' (अनमना-सा लगना) कहते हैं, ठीक उसी किस्म की एक आस्वस्ति या बेचैनी सारे शरीर को झकझोर गयी। चमगीदड़ का वह बच्चा तब भी चुप नहीं हुआ था। पीछे-पीछे मानो वह और भी अधिक रिरियाने लगा। मुझे अब मालूम होने लगा कि मैं भयभीत हो रहा हूँ। बहुत जानकारी के फलस्वरूप यह खूब जानता था कि जिस स्थान में आया हूँ वहाँ, समय रहते, यदि भय को दबा न सका, तो मृत्यु तक हो जाना असम्भव नहीं है। वास्तव में इस तरह की भयानक जगह में, इसके पहले, मैं कभी अकेला नहीं आया था। स्वच्छन्दता से जो यहाँ अकेला आ सकता था, वह था इन्द्र- मैं नहीं। अनेकों बार उसके साथ अनेकों भयानक स्थानों में जा-आने के कारण मेरी यह धारणा हो गयी थी कि इच्छा करने पर मैं स्वयं भी उसी के समान ऐसे सभी स्थानों में अकेला जा सकता हूँ। किन्तु, वह कितना बड़ा भ्रम था! और मैं केवल उसी झोंक में उसका अनुकरण करने चला था। एक ही क्षण में आज सब बातें सुस्पष्ट हो उठीं। मेरी इतनी चौड़ी छाती कहाँ? मेरे पास वह रामनाम का अभेद कवच कहाँ? मैं इन्द्र नहीं हूँ जो इस प्रेत-भूमि में अकेला खड़ा रहूँ, और ऑंखें गड़ाकर प्रेतात्माओं का गेंद खेलना देखूँ। मन में लगा कि कोई एकाध जीवित बाघ या भालू ही दिखाई पड़ जाय, तो मैं शायद जीवित बच जाऊँ! एकाएक किसी ने मानो पीछे खड़े होकर मेरे दाहिने कान पर निःश्वास डाला। वह इतनी ठण्डी थी कि हिम के कणों की तरह मानो उसी जगह जम गयी। गर्दन उठाए बगैर ही मुझे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि वह निःश्वास जिस नाक के बृहदाकार नकुओं में से होकर बाहर आ गयी है, उसमें न चमड़ा है न मांस- एक बूँद रुधिर भी नहीं है। केवल हाड़ और छिद्र ही उसमें हैं। आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ अन्धकार था। सन्नाटे की आधी रात साँय साँय करने लगी। आसपास की हाय-हाय क्रम-क्रम से
मानो, हाथों के पास से छूती हुई जाने लगी। कानों के ऊपर वैसी ही अत्यन्त ठण्डी उसासें लगातार आने लगीं और यही मुझे सबसे अधिक परिवश, करने लगीं। मन ही मन ऐसा मालूम होने लगा कि मानो सारे प्रेत-लोक की ठण्डी हवा उस गढ़े में से बाहर आकर मेरे शरीर को लग रही है। किन्तु, इस हालत में भी मुझे यह बात नहीं भूली कि किसी भी तरह अपने होश-हवास गुम कर देने से काम न चलेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मृत्यु अनिवार्य है। मैंने देखा कि मेरा दाहिना पैर थर-थर काँप रहा है। उसे रोकने की चेष्टा की, परन्तु वह रुका नहीं, मानो वह मेरा पैर ही न हो। ठीक इसी समय बहुत दूर से बहुत से कण्ठों की मिली हुई पुकार कानों में पहुँची, "बाबूजी! बाबू साहब!" सारे शरीर में काँटे उठ आय। कौन लोग पुकार रहे हैं? फिर आवाज़ आई, "कहीं गोली मत छोड़ दीजिएगा!" आवाज़ क्रमशः आगे आने लगी, तिरछे देखने से प्रकाश की दो क्षीण रेखाएँ आती हुई नजर पड़ीं। एक दफे जान पड़ा मानो उस चिल्लाहट के भीतर रतन के स्वर का आभास है। कुछ देर ठहरकर और भी साफ़ मालूम हुआ कि ज़रूर वही है। और भी कुछ दूर अग्रसर होकर, एक सेमर के वृक्ष के नीचे आड़ में होकर वह चिल्लाया "बाबूजी, आप जहाँ भी हों गोली-ओली मत छोड़िए, मैं हूँ रतन।" रतन सचमुच ही जात का नाई है, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं रहा। मैंने उल्लास से चिल्लाकर उत्तर देना चाहा, किन्तु कण्ठ से आवाज़ नहीं निकली। प्रवाद है कि भूत-प्रेत जाते समय कुछ-न-कुछ नष्ट कर जाते हैं। जो मेरे पीछे था, वह मेरा कण्ठ स्वर नष्ट करके ही बिदा हुआ था। रतन तथा और भी तीन आदमी हाथ में लालटेनें और लट्ठ लिये हुए समीप आ उपस्थित हुए। उनमें एक तो था छट्टूलाल जो तबला बजाया करता था, दूसरा था प्यारी का दरबान, और तीसरा गाँव का चौकीदार। रतन बोला, "चलिए, तीन बजते है
ं।" "चलो" कहकर मैं आगे हो लिया। रास्ता चलते-चलते रतन कहने लगा, "बाबू, धन्य है आपके साहस को। हम चार जने हैं फिर भी जिस तरह डरते-डरते यहाँ आए हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता।" "तुम आए क्यों?" रतन बोला, "रुपयों के लोभ से। हम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह जो नकद मिली है!" इतना कहकर वह मेरे पास आया और गला धीमा करके बोला, "आपके चले आने पर देखा, माँ बैठी रो रही हैं। मुझसे बोली, "रतन, न जाने का होनहार है भइया, तुम लोग पीछे-पीछे जाओ। मैं तुम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह इनाम दूँगी।" मैं बोला, "छट्टूलाल और गणेश को साथ लेकर मैं जा सकता हूँ माँ, परन्तु रास्ता तो मैंने देखा ही नहीं है।" इसी समय चौकीदार ने हाँक दी। माँ बोली, "उसे बुला ले रतन, वह ज़रूर रास्ता जानता होगा।" बाहर जाकर मैं उसे बुला लाया। चौकीदार जब नकद छः रुपये पा गया, तब रास्ता दिखाता हुआ ले आया। अच्छा बाबूजी, "आपने छोटे बच्चे का रोना सुना है?" इतना कहकर काँपते हुए रतन ने मेरे कोट के पीछे का छोर पकड़ लिया। कहने लगा, "हमारे गणेश पाण्डे ब्राह्मण हैं, इसी से हम लोग आज बच गये, नहीं तो..." मैंने कुछ कहा नहीं। प्रतिवाद करके किसी के भ्रम को भंग करने जैसी अवस्था मेरी नहीं थी। आछन्न-अभिभूत की तरह चुपचाप चलने लगा। कुछ दूर चलने के बाद रतन ने पूछा, "आज कुछ देखा बाबूजी?" मैं बोला, "नहीं।" मेरे इस संक्षिप्त उत्तर से रतन क्षुब्ध होकर बोला, "हमारे आने से आप क्या नाराज हो गये, बाबूजी? किन्तु यदि आप माँ का रोना देखते..." मैं चटपट बोल उठा, "नहीं रतन, मैं जरा भी नाराज नहीं हुआ।" तम्बू के पास आ जाने पर चौकीदार अपने घर चला गया, गणेश और छट्टूलाल नौकरों के तम्बू में चले गये। रतन ने कहा, "माँ ने कहा था कि जाते समय एक बार दर्शन दे जाइएगा।" मैं ठिठक कर खड़ा हो गया, ऑंखों के आगे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि प्यारी दिए के सामने अधीर उत्सुकता और सजल नेत्रों से बैठी-बैठी प्रतीक्षा कर रही है और मेरा सारा मन उन्मत्त उर्ध्वन श्वासें भरता हुआ उस ओर दौड़ा जा रहा है। रतन ने विनय के साथ बुलाया, "आइए।" क्षण-भर के लिए ऑंखें मींचकर अपने अन्तर में डूबकर देखा, वहाँ होश-हवास में कोई नहीं है, सब गले तक शराब पीकर मस्त हो रहे हैं। राम, राम, इन मतवालों के दल को लेकर मैं उससे मिलने जाऊँ? यह मुझसे किसी तरह न होगा। देर होती देखकर रतन विस्मय से बोला, "उस जगह अंधेरे में क्यों खड़े हो रहे हैं बाबूजी- आइए न?" मैं चटपट बोल उठा, "नहीं रतन, इस समय नहीं-मैं चलता हूँ।" रतन कुण्ठित होकर बोला, "माँ, किन्तु, राह देखती बैठी हैं..." "राह देखती हैं तो देखने दे। उन्हें मेरा असंख्य नमस्कार जताकर कहना, कल जाने के पहले मुलाकात होगी- इस समय नहीं। मुझे बड़ी नींद आ रही है रतन, मैं चलता हूँ।" इतना कहकर विस्मित, क्षुब्ध रतन को जवाब देने का अवसर दिए बगैर ही मैं, जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ, उस तरफ से तम्बू की ओर चल दिया।
तो वह भी वहाँ सो जाता था और हम भी सो जाते थे। अब जंगल में वह बेचारा कहाँ जाए ? उसे जहाँ जगह मिल जाए, वहीं पर उसका घर । उसका कोई ससुराल नहीं है न ! हम तो दो- एक दिन ससुराल भी जा आते हैं ! इसलिए हमने 'व्यवस्थित' कहा है न, 'एक्ज़ेक्टनेस' है। उसमें नाम मात्र भी गलती नहीं है । प्रत्येक पर्याय में से गुज़रकर ये सब तो मेरी पृथक्करण की हुई चीजें हैं और ये सभी एक जन्म की चीज़ें नहीं हैं। एक जन्म में क्या इतने सारे पृथक्करण हो सकते हैं ? अस्सी सालों में कितने पृथक्करण हो सकते हैं ?! यह तो कितने ही जन्मों का पृथक्करण है, वह सब आज हाज़िर हो रहा है । प्रश्नकर्ता : इतने सारे जन्मों का पृथक्करण, वह इकट्ठा होकर आज किस तरह हाज़िर होता है ? दादाश्री : आवरण टूट गया इसलिए । अंदर ज्ञान तो है ही सारा । आवरण टूटना चाहिए न ? ज्ञान की पूँजी तो है ही, लेकिन आवरण टूटने पर प्रकट होता है! सभी फेज़िज़ का ज्ञान मैंने ढूंढ निकाला है । हर एक फेज़ में से मैं गुज़र चुका हूँ और हर एक फेज़ का मैं एन्ड ला चुका हूँ। उसके बाद यह ज्ञान हुआ है । चंद्र के कितने फेज़ ? पूरे पंद्रह फेज़िज़ । उन पंद्रह फेज़िज़ में तो अनंत काल से वह पूरे जगत् को नचा रहा है । फेज़िज़ पूरे पंद्रह, और उसमें तो वह पूरे जगत् को अनंतकाल से नचा रहा है । वही का वही चंद्रमा आज तीज का चंद्रमा कहलाता है, इतना ही है । जगत् के लोग उसे तीज कहते हैं लेकिन चंद्रमा वही का वही है । और फिर चंद्रमा क्या कहेगा? 'मैं तीज हूँ, मैं तीज हूँ।' तब जगत् के लोग बाहर निकलकर कहेंगे, 'क्या बक-बक कर रहा है? कल चौथ नहीं हो जाएगी? कल बीज थी । क्यों बोलता ही रहता है ?' चंद्रमा वही का वही है । यह बीज, तीज, चौथ, पाँचम होती ही रहेगी ! और उस पर भी ये लोग शंका करते हैं। 'नहीं, यह तीज नहीं है, यह तो बीज है' कहेंगे । तब दूसरा क्या कहेगा, 'तीज है । इस पर भी शंका करते हैं कि यह बीज है ? ' ले ! शंका को क्या ढूँढने जाना पड़ता है ? इसीलिए तो दुःखी हैं सभी । लोग दुःखी हैं, उसका कारण शंका ही है। निरा दुःख, दुःख और दुःख ही है इसलिए मैं इस बात को समझने का कह रहा हूँ न, कि 'समझो, समझो, समझो !' सभी फेज़िज़ समझने जैसे हैं । जगत् के तमाम फेज़िज़ मेरे पास आ चुके हैं। ऐसा एक भी फेज़ बाकी नहीं है कि जिसमें से मैं गुज़रा नहीं हूँ। हर एक जन्म के फेज़िज़ मेरे ध्यान में हैं और यह बात हर एक फेज़ के अनुभव सहित है। 'वह' 'सेटल' करे, व्यवहार 'जो' व्यवहार से बाहर है, वह 'सेटल' कर सकता है ! वर्ना तब तक व्यवहार में सेटल नहीं हो सकता । जो व्यवहार में ही है, उसे तो व्यवहार का भान ही नहीं होता न ! व्यवहार का आग्रह होता है । वह व्यवहार में ही रहता है, इसलिए व्यवहार का उसे पता ही नहीं होता है न! 'ज्ञानीपुरुष' व्यवहार से बाहर होते हैं इसलिए उनकी वाणी ही ऐसी निकलती है कि सामने वाले का सबकुछ एक्ज़ेक्ट हो जाता है । शंका निकालने से नहीं जाती है, ज्ञानीपुरुष के कहने से शंका चली जाती है। वर्ना शंका न
िकालने से नहीं जाती, बल्कि बढ़ जाती है । शंका नुकसान ही करवाती है बाहर तो दूसरे लोग उल्टा कहते हैं, जिसे पूछने जाएँ वह कहेगा, 'भाई, सही बात हो तब भी शंका होती है न ! शंका नहीं होगी तो हम मनुष्य कैसे? क्या जानवरों को शंका होती है ? हम मनुष्य हैं इसलिए इन बेटियों पर शंका तो होगी ही न ?' ऐसा सिखाते हैं। मैं क्यों शंका खत्म कर देता हूँ? क्योंकि शंका तो कुछ भी हेल्प नहीं करेगी। एक बाल बराबर भी हेल्प नहीं करेगी और बेहद नुकसान करेगी इसलिए मैं शंका को खत्म कर देता हूँ । शंका यदि हेल्प करती तो मैं ऐसा नहीं कह सकता था । शंका से अगर दस प्रतिशत भी हेल्प होती और नब्बे प्रतिशत नुकसान होता, तब भी मैं ऐसा नहीं कह सकता था । यह तो एक बाल बराबर भी हेल्प नहीं करती और नुकसान बेहद है । शंका तो ठेठ मरण करवाए यह शंका ही विनाश का कारण है । शंका ने ही मार दिया है लोगों को । शंका होने लगे तो शंका का एन्ड नहीं आता। शंका का एन्ड नहीं आता, इसलिए मनुष्य खत्म हो जाता है । स्त्रियों को शंका होती है, तब भी लगभग वे भूल जाती हैं लेकिन यदि याद रह गई तो शंका ही उसे मार डालती है और पुरुष तो शंका नहीं हो रही हो, फिर भी उत्पन्न करते हैं । स्त्री शंका रखे, तब फिर वह डाकन कहलाती है। यानी भूत और डाकन दोनों चिपट गए। वे फिर मार ही डालते हैं इंसान को । मैं तो पूछ लेता हूँ कि किस किस पर शंका होती है ? घर में भी शंका होती है सब पर ? अड़ोसी - पड़ोसी, भाई, पत्नी पर, सभी पर शंका होती है ? तो फिर कहाँ पर होती है? आप मुझे बताओ तो मैं आपका ठीक कर दूँ । बाकी, यह शंका तो, संक्रामक रोग फैला हुआ है । शंका करनेवाला बहुत दुःखी होता है न! मुश्किल है न ! ये तो शंकाशील हुए इसलिए फिर सभी पर शंका होती है और इस दुनिया में शंकाशील और मृत, दोन
ों एक सरीखे ही हैं । जिस व्यक्ति को सब पर शंका होती है वह शंकाशील। शंकाशील और मृत व्यक्ति, दोनों में फर्क नहीं है । वह मृत समान ही जीवन जीता है। सुंदर संचालन, वहाँ शंका कैसी ? शंका किसी भी चीज़ पर नहीं रखनी चाहिए । शंका तो महादुःख है। उसके जैसा कोई दुःख है ही नहीं । रात को कभी आपने हांडवा ( एक गुजराती व्यंजन) खाया है ? और फिर वह हांडवा खाकर और थोड़ा दूध पीकर सो जाते हो या नहीं सो जाते ? तो फिर अंदर जाँच नहीं की कि अंदर पाचक रस डले या पित्त डला या नहीं डला, वह सब ? बाइल कितना डला, कितने पाचकरस डले, वह सब जाँच नहीं किया ? प्रश्नकर्ता : वह सब तो हो ही जाता है न! वह ऑटोमेटिकली होगा ही। उसके लिए जाँच करने की क्या ज़रूरत ? दादाश्री : तो क्या बाहर ऑटोमेटिक नहीं होता होगा? यह अंदर तो इतना बड़ा तंत्र अच्छी तरह से चलता है। बाहर तो कुछ करना ही नहीं है । अंदर तो खून, यूरिन, संडास सबकुछ अलग कर देता है, कितना सुंदर कर देता है ! फिर, छोटे बच्चे की माँ हो तो उस तरफ दूध भी भेज देता है। कितनी तैयारी है सारी ! और आप तो चैन से गहरी नींद सो जाते हो ! और अंदर तो सब अच्छा चलता रहता है। कौन चलाता है यह ? अंदर का कौन चलाता है ? और उस पर शंका नहीं होती ? दादाश्री : तो बाहर की भी शंका नहीं करनी चाहिए। अंतःकरण में जो कुछ हो रहा है वही बाहर होता है, तो किसलिए हाय-हाय करता है ? बीच में हाथ किसलिए डालते हो फिर ? यह परेशानी क्यों मोल लेते हो ? बिना बात की परेशानी ! शंका सर्वकाल जोखिमी ही ये बेटियाँ बाहर जाती हैं, पढ़ने जाती हैं, तब भी शंका । वाइफ पर भी शंका । इतना अधिक दगा ! घर में भी दगा ही है न, आजकल ! इस कलियुग में खुद के घर में ही दगा होता है । कलियुग अर्थात् दगेवाला काल । कपट और दगा, कपट और दगा, कपट और दगा ! ऐसे में कौन से सुख के लिए करता है ? वह भी बगैर भान के, बेभान रूप से ! बुद्धिशाली व्यक्ति में दगा और कपट नहीं होता है। निर्मल बुद्धि वाले में कपट और दगा नहीं होता । आजकल तो फूलिश इंसान में कपट और दगा होता है। कलियुग यानी सब फूलिश ही इकट्ठे हुए हैं न! प्रश्नकर्ता : लेकिन यह जो दगा और कपट होता है, उसमें राग और द्वेष काम करते हैं न ? दादाश्री : वह राग और द्वेष हैं, तभी ऐसा सब काम होता है न! वर्ना जिसे राग-द्वेष नहीं है, उसे तो कुछ भी है ही नहीं न ! जिसमें रागद्वेष नहीं हैं तो वह जो कुछ भी करे, वह कपट करे तो भी हर्ज नहीं और अच्छा करे तब भी हर्ज नहीं क्योंकि वह धूल में खेलता ज़रूर लेकिन तेल नहीं चुपड़ा है जबकि राग-द्वेष वाले तो तेल चुपड़कर धूल में खेलते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन यह दगा और कपट करने में बुद्धि का योगदान है न ? दादाश्री : नहीं, अच्छी बुद्धि कपट और दगे को निकाल देती है । बुद्धि सेफसाइड रखती है। एक तो शंका मार डालती है, और फिर यह कपट और दगा तो हैं ही, और फिर सभी अपने खुद के सुख में ही डूबे रहते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन खुद अपने सुख में रहने के लिए बुद्धि के उपयोग से दगा औ
र कपट कर सकता है न ? दादाश्री : जहाँ खुद अपने आपके लिए सुख ढूँढते हैं वहाँ पर अच्छी बुद्धि है ही नहीं न ? अच्छी बुद्धि तो सामुदायिक सुख खोजती है कि 'मेरा पूरा परिवार सुखी हो जाए ।' लेकिन यहाँ तो बेटा अपना सुख ढूँढता है, पत्नी अपना सुख ढूँढती है, बेटी अपना सुख ढूँढती है, बाप अपना सुख ढूँढता है, हर कोई अपना-अपना सुख ढूँढता है । इसे यदि खोलकर बता दें न, तो घर के लोग एक साथ नहीं रह सकेंगे, लेकिन ये सब तो इकट्ठे रहते हैं और खाते-पीते हैं ! ढँका हुआ है वही अच्छा है। वर्ना शंका रखने योग्य चीज़ है ही नहीं, किसी भी प्रकार से । वह शंका ही इंसान को मार डालती है। ये सब लोग शंका के कारण ही मर रहे हैं न! यानी इस दुनिया में सब से बड़ा भूत यदि कोई हो तो वह शंका का है ! सब से बड़ा भूत ! जगत् के कई लोगों को खा चुकी है, निगल चुकी है ! इसलिए शंका होने ही मत देना । शंका का जन्म होते ही मार देना । चाहे कैसी भी शंका हो तो जन्म होते ही उसे मार देना, उसकी बेल को बढ़ने मत देना । नहीं तो चैन से बैठने नहीं देगी शंका, वह किसी को चैन से नहीं बैठने देती । शंका ने तो लोगों को मार डाला है। बड़े-बड़े राजाओं को, चक्रवर्तियों को भी शंका ने मार डाला था। उसके जोखिम तो भारी यदि लोगों ने कहा हो कि 'यह नालायक इंसान है ' तब भी हमें उसे लायक कहना चाहिए क्योंकि शायद वह नालायक न भी हो । यदि उसे नालायक कहोगे तो बहुत दोष लगेगा। सती को यदि वेश्या कह दिया तो भयंकर गुनाह है । उसका फल कितने ही जन्मों तक भुगतते रहना पड़ेगा इसलिए किसी के भी चारित्र के संबंध में बोलना ही मत क्योंकि यदि वह गलत निकला तो? लोगों के कहने से यदि हम भी कहने लगे तो फिर हमारी क्या कीमत रही ? हम तो किसी को ऐसा कभी भी नहीं कहते और किसी को कहा भी नहीं है। म
ैं तो हाथ ही नहीं डालता न ! उसकी ज़िम्मेदारी कौन ले ? किसी के चारित्र संबंधी शंका नहीं करनी चाहिए। बहुत बड़ा जोखिम है । शंका तो हम कभी भी करते ही नहीं हैं। हम किसलिए जोखिम मोल लें ? अंधेरे में, आँखों पर कितना ज़ोर दें ? प्रश्नकर्ता : लेकिन मन में शंका सहित देखने की ग्रंथि पड़ गई हो तो वहाँ पर कैसा 'एडजस्टमेन्ट' लेना चाहिए ? दादाश्री : यह जो आपको दिखाई देता है कि इसका चारित्र खराब है, तो क्या पहले ऐसा नहीं था? यह क्या अचानक उत्पन्न हो गया है ? यानी कि यह जगत् समझ लेने जैसा है, कि यह तो ऐसा ही है । इस काल में चारित्र संबंधी किसी का देखना ही नहीं चाहिए । इस काल में तो सभी जगह ऐसा ही होता है। खुले तौर पर नहीं होता, लेकिन मन तो बिगड़ता ही है। उसमें भी स्त्री चारित्र तो निरा कपट और मोह का ही संग्रहस्थान है, इसीलिए तो स्त्री - जन्म मिलता है । इन सब के बीच सब से अच्छी बात यही है कि विषय से मुक्त हो जाएँ । प्रश्नकर्ता : चारित्र में तो ऐसा ही होता है, वह जानते हैं फिर भी जब मन शंका करता है तब तन्मयाकार हो जाते हैं । वहाँ पर कौन सा 'एडजस्टमेन्ट' लेना चाहिए ? दादाश्री : आत्मा हो जाने के बाद और किसी चीज़ में पड़ना ही मत। यह सब 'फॉरेन डिपार्टमेन्ट' का है । हमें 'होम' में रहना है । आत्मा में रहो न ! ऐसा 'ज्ञान' बार-बार नहीं मिलेगा, इसलिए काम निकाल लो । एक व्यक्ति को खुद की पत्नी पर शंका होती रहती थी । उसे मैंने कहा कि शंका किसलिए होती है ? तूने देख लिया इसलिए शंका होती है ? जब तक नहीं देखा था, तब तक क्या ऐसा नहीं हो रहा था? लोग तो जो पकड़ा जाता है, उसी को चोर कहते हैं। लेकिन जो पकड़े नहीं गए, वे सब भी अंदर से चोर ही हैं लेकिन ये तो, जो पकड़ा गया, उसी को चोर कहते हैं। अरे, उसे किसलिए चोर कहता है ? वह तो सीधा था । कम चोरियाँ करता है इसलिए पकड़ा गया । क्या ज़्यादा चोरी करने वाले पकड़े जाते होंगे ? प्रश्नकर्ता : लेकिन पकड़े जाते हैं तब चोर कहलाते हैं न ? दादाश्री : नहीं, क्योंकि जो कम चोरियाँ करते हैं, वे पकड़े जाते हैं, और क्योंकि वे पकड़े जाते हैं इसलिए लोग उन्हें चोर कहते हैं। अरे, चोर तो वे हैं जो पकड़ में नहीं आते हैं लेकिन जगत् तो ऐसा ही है । तब फिर वह व्यक्ति मेरा विज्ञान पूरी तरह से समझ गया । फिर उसने मुझसे कहा कि, 'मेरी वाइफ को अब कोई दूसरा हाथ लगाए, तब भी मैं गुस्सा नहीं करूँगा ।' हाँ, ऐसा होना चाहिए । मोक्ष में जाना हो तो ऐसा है। वर्ना झगड़े करते रहो । आपकी 'वाइफ' या आपकी स्त्री इस दुषमकाल में आपकी हो ही नहीं सकती और ऐसी गलत आशा रखना ही बेकार है । यह दुषमकाल है, इसलिए इस दुषमकाल में तो जितने दिन हमें रोटियाँ खिलाती है, उतने दिन तक अपनी । वर्ना अगर किसी और को खिलाए तो उसकी । सभी महात्माओं से कह दिया है कि शंका मत रखना। फिर भी मेरा कहना है कि, जब तक नहीं देखा हो, तब तक उसे सत्य मानते ही क्यों हो, इस कलियुग में ? यह सब घोटालेवाला है। जो मैंने देखा है उसका यदि मैं आपक
ो वर्णन करूँ तो कोई भी जीवित ही नहीं रहेगा । अब ऐसे काल में अकेले पड़े रहो मस्ती में और ऐसा 'ज्ञान' साथ में हो तो उसके जैसा तो कुछ भी नहीं । यानी कि काम निकाल लेने जैसा है अभी । इसलिए हम कहते हैं न, कि काम निकाल लो, काम निकाल लो, काम निकाल लो ! यह कहने का भावार्थ इतना ही है कि ऐसा किसी काल में मिलता नहीं है और मिला है तो सिर पर कफन बाँधकर निकल पड़ो ! यानी आपको समझ में आ गया न ? कि जब तक नहीं देखा, तब तक कुछ नहीं होता है, यह तो देखा उसका ज़हर है ! प्रश्नकर्ताः हाँ, दिख गया इसीलिए ऐसा होता है । दादाश्री : इस पूरे जगत् में अंधेरे में घोटाला ही चल रहा है। हमें यह सब 'ज्ञान' में दिखाई दिया था लेकिन आपको नहीं दिखाई दिया इसलिए आप इसे देखते हो और भड़क जाते हो ! अरे, भड़कते क्यों हो? इसमें तो सब, यह तो ऐसा ही चल रहा है, लेकिन आपको दिखाई नहीं देता है। इसमें भड़कने जैसा है ही क्या? आप आत्मा हो, तो भड़कने जैसा क्या रहा ? यह तो सब जो चार्ज हो चुका है, उसी का डिस्चार्ज है! जगत् शुद्ध (पूर्णरूप से) डिस्चार्जमय ही है । यह जगत् 'डिस्चार्ज' से बाहर नहीं है। तभी तो हम कहते हैं न कि डिस्चार्जमय है इसलिए कोई गुनहगार नहीं है । प्रश्नकर्ता : तो इसमें भी कर्म का सिद्धांत काम करता है न ? दादाश्री : हाँ, कर्म का सिद्धांत ही काम कर रहा है और कुछ भी नहीं । मनुष्य का दोष नहीं है, ये कर्म ही घुमाते हैं बेचारे को । लेकिन उसमें शंका रखे न, तो वह मर जाएगा बिना बात के । मोक्ष में जानेवालों को देहाध्यास छूटे तो समझना कि मोक्ष में जाने की तैयारी हुई । देहाध्यास मतलब देह में आत्मबुद्धि ! वह सब देहाध्यास कहलाता है । कोई गालियाँ दे, मारे, अपनी 'वाइफ' को अपने सामने ही उठाकर ले जाए, तब भी अंदर राग-द्वेष नहीं हों तो
समझना कि वीतरागों का मार्ग पकड़ा है ! लोग तो फिर खुद की कमजोरी के कारण उठाकर ले जाने देते हैं न! उठानेवाला बलवान हो तो 'वाइफ' को उठाकर ले जाने देते हैं न ! यानी इनमें से कुछ भी खुद का है ही नहीं । यह सब पराया है । इसलिए अगर व्यवहार में रहना हो तो व्यवहार में मज़बूत बनो और मोक्ष में जाना हो तो मोक्ष के लायक बनो ! जहाँ पर यह देह भी खुद का नहीं है वहाँ पर स्त्री अपनी कैसे हो सकती है? बेटी अपनी कैसे हो सकती है? यानी आपको तो हर प्रकार से सोच लेना चाहिए कि 'स्त्री को उठाकर ले जाएँ तो क्या करूँगा?' जो होना है, उसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता, 'व्यवस्थित' ऐसा ही है। इसलिए डरना मत । इसी वजह से ऐसा कहा है कि 'व्यवस्थित' है! यदि नहीं देखा हो तो तब कहेगा, 'मेरी पत्नी' और देख लिया तो छटपटाहट ! अरे, पहले से ऐसा ही था । इसमें नया ढूँढना ही मत। प्रश्नकर्ता : लेकिन 'दादा' ने बहुत ढील दे दी है। दादाश्री : मेरा कहना यह है कि दुषमकाल में अगर हम झूठी आशा रखें तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है न ! और इस सरकार ने भी 'डाइवोर्स' का नियम बनाया है। सरकार पहले से ही जानती थी कि ऐसा होगा, इसलिए पहले नियम बनता है । अर्थात् हमेशा दवाई का पौधा पहले उगकर तैयार होता है, उसके बाद फिर रोग उत्पन्न होता है । उसी तरह पहले ये नियम बनते हैं, उसके बाद लोगों में ऐसी घटनाएँ होती हैं ! चारित्र संबंधी 'सेफसाइड' अतः जिसे पत्नी के चारित्र संबंधी शांति चाहिए, उसे एकदम काली रंग की दाग़ वाली स्त्री लानी चाहिए ताकि उसका कोई ग्राहक ही न हो कोई, और उसे संभाले ही नहीं। और वही आपसे कहे कि, 'मुझे संभालनेवाला और कोई नहीं है । ये एक पति मिले हैं, वही संभालते हैं ।' तब वह आपके प्रति 'सिन्सियर' रहेगी, बहुत 'सिन्सियर' रहेगी । वर्ना, सुंदर होगी तो उसे तो लोग भोगेंगे ही। सुंदर होगी तो लोगों की दृष्टि बिगड़ेगी ही! कोई सुंदर पत्नी लाए तो मुझे यही विचार आता है कि 'इसकी क्या दशा होगी!' काली दाग़ वाली हो, तभी 'सेफसाइड' रहती है । पत्नी बहुत सुंदर हो, तब पति भगवान को भूल जाएगा न ! और पति बहुत सुंदर हो तो पत्नी भी भगवान को भूल जाएगी ! इसलिए सबकुछ संतुलित हो तो अच्छा है। अपने बड़े बूढ़े तो ऐसा कहते थे कि 'खेत राखवुं चोपाट और बैरुं राखवुं कोबाड' ('खेत रखना समतल और पत्नी रखना बदसूरत ) ऐसा किसलिए कहते थे ? कि यदि पत्नी बहुत सुंदर होगी तो कोई नज़र बिगाड़ेगा । इसके बजाय तो पत्नी ज़रा सी बदसूरत ही अच्छी, ताकि कोई नज़र तो नहीं बिगाड़ेगा न! ये बूढ़े लोग अलग तरह से कहते थे, वे धर्म की दृष्टि से नहीं कहते थे । मैं धर्म की दृष्टि से कहना चाहता हूँ । बहू बदसूरत होगी, तो हमें कोई भय ही नहीं रहेगा न ! घर से बाहर जाए फिर भी कोई नज़र बिगाड़ेगा ही नहीं न! अपने बड़े-बूढ़े तो बहुत पक्के थे लेकिन मैं जो कहना चाहता हूँ वह ऐसा नहीं है, वह अलग है । वह बदसूरत होगी न, तो आपके मन को बहुत परेशान नहीं करेगी, भूत बनकर चिपटेगी नहीं । कैसी दगाखोरी यह ये लोग तो कैसे ह
ैं ? कि जहाँ 'होटल' देखें वहाँ 'खा' लेते हैं । इसलिए यह जगत् शंका रखने योग्य नहीं है । शंका ही दुःखदाई है । अब जहाँ होटल देखे, वहीं पर खा लेते हैं, इसमें पुरुष भी ऐसा करते हैं और स्त्रियाँ भी ऐसा करती हैं। फिर उस पुरुष को ऐसा नहीं होता कि 'मेरी स्त्री क्या करती होगी?' वह तो ऐसा ही समझता है कि 'मेरी स्त्री तो अच्छी है।' लेकिन उसकी स्त्री तो उसे पाठ पढ़ाती है ! पुरुष भी स्त्रियों को पाठ पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ भी पुरुषों को पाठ पढ़ाती हैं ! फिर भी स्त्रियाँ जीत जाती हैं क्योंकि इन पुरुषों में कपट नहीं है न ! इसलिए पुरुष स्त्रियों द्वारा ठगे जाते हैं ! अतः जब तक 'सिन्सियारिटी-मॉरेलिटी' थी, तभी तक संसार भोगने लायक था। अभी तो भयंकर दगाखोरी है । हर एक को उसकी 'वाइफ' की बात बता दूँ तो कोई अपनी 'वाइफ' के पास नहीं जाएगा। मैं सब का जानता हूँ, फिर भी कुछ भी कहता नहीं हूँ । हालांकि पुरुष भी दगाखोरी में कम नहीं है लेकिन स्त्री तो निरा कपट का ही कारखाना है ! कपट का संग्रहस्थान और कहीं पर भी नहीं होता, सिर्फ स्त्री में ही होता है । ऐसे दगे में मोह क्या ? यह जो संडास है, उसमें हर कोई व्यक्ति जाता है या एक ही व्यक्ति जाता है ? प्रश्नकर्ता : सभी जाते हैं । दादाश्री : तो जिसमें सभी जाते हैं, वह संडास कहलाती है। जहाँ पर कई लोग जाते हैं न, वह संडास ! जब तक एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत रहे, तब तक वह बहुत उच्च चीज़ कहलाती है । तब तक चारित्र कहलाता है, नहीं तो फिर संडास कहलाता है। आपके यहाँ संडास में कितने लोग जाते होंगे ? प्रश्नकर्ता : घर के सभी लोग जाते हैं । दादाश्री : एक ही व्यक्ति नहीं जाता है न ? अतः फिर दो जाएँ या सभी जाएँ, लेकिन वह संडास कहलाएगा । यह तो जहाँ होटल आई, वहाँ पर खा लेता है । अरे,
खाता- पीता भी है ! इसलिए शंका निकाल देना । शंका से तो हाथ में आया हुआ मोक्ष भी चला जाएगा। अतः आपको ऐसा ही समझ लेना है कि इससे मैंने विवाह किया है और यह मेरी किराएदार है! बस, इतना मन में समझकर रखना। फिर वह चाहे अन्य किसी के भी साथ घूमती रहे, फिर भी आपको शंका नहीं करनी चाहिए। आपको काम से काम है न ? आपको संडास की ज़रूरत पड़े तो संडास में जाना ! जहाँ गए बगैर नहीं चलता, वह कहलाती है संडास । इसीलिए तो ज्ञानियों ने साफ-साफ कहा न कि संसार दगा है। प्रश्नकर्ता : दगा नहीं लगता है । वह किस कारण से ? दादाश्री : मोह के कारण ! और कोई बतानेवाला भी नहीं मिला न! लेकिन लाल झंडी दिखाएँगे, तो गाड़ी खड़ी रहेगी, वर्ना गाड़ी नीचे गिर पड़ेगी । शंका की पराकाष्ठा पर समाधान यानी कि शंका से ही यह जगत् खड़ा है । जिस पेड़ को सुखाना है, शंका करके उसी में पानी छिड़कते हैं तो उससे वह और अधिक मज़बूत बनता है। अतः यह जगत् किसी भी प्रकार की शंका करने जैसा नहीं है । अब आपको संसार से संबंधित और कोई शंका होती है? आपकी 'वाइफ' किसी और के साथ बैंच पर बैठी हो और दूर से आपको दिखाई दे तो आपको क्या होगा ? प्रश्नकर्ता : अब कुछ भी नहीं होगा। यों थोड़ा 'इफेक्ट' होगा, फिर कुछ नहीं होगा। फिर तो 'व्यवस्थित ' है और यह ऋणानुबंध है, ऐसा ध्यान आ जाएगा। दादाश्री : कैसे पक्के हैं ! कैसा हिसाब लगाया है ! फिर शंका तो नहीं होगी न ? प्रश्नकर्ता : नहीं होगी, दादा । दादाश्री : जबकि ये लोग तो, 'वाइफ' ज़रा सी भी देर से आई तो भी शंका करते हैं । शंका नहीं करनी चाहिए । ऋणानुबंध से बाहर कुछ भी नहीं होगा । वह घर पर आए तो उसे समझाना, लेकिन शंका मत करना। शंका तो बल्कि उसे और अधिक पानी छिड़केगी । हाँ, सावधान ज़रूर करना लेकिन कोई भी शंका मत रखना । शंका रखनेवाला मोक्ष खो देता है । यदि आपको मुक्त होना है, मोक्ष में जाना है तो आपको शंका नहीं करनी चाहिए। कोई दूसरा व्यक्ति आपकी पत्नी के गले में हाथ डालकर घूम रहा हो और आपने देख लिया, तो क्या आपको ज़हर खा लेना चाहिए ? प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा किसलिए करूँ ? दादाश्री : तो फिर क्या करना चाहिए ? प्रश्नकर्ता : थोड़ा नाटक करना पड़ेगा, फिर समझाऊँगा । फिर तो जो करे वह 'व्यवस्थित' । दादाश्री : हाँ, ठीक है। अब आपको 'वाइफ' पर या घर में किसी पर भी ज़रा सी भी शंका नहीं होगी न ? ! क्योंकि ये सब फाइलें हैं । इसमें शंका करने जैसा क्या है ? जो भी हिसाब होगा, जो ऋणानुबंध होगा, उस हिसाब से ये फाइलें भटकेंगी जबकि आपको तो मोक्ष में जाना है । वह तो भयंकर रोग अब अगर वहाँ पर हमें वहम हो गया, तो वह वहम बहुत सुख देगा? नहीं क्या ? प्रश्नकर्ता : अंदर कीड़े की तरह काम करेगा, कुतरता रहेगा । दादाश्री : हाँ, पूरा जागृतकाल उसे खा जाएगा। टी.बी. का रोग ! टी.बी. तो अच्छी है कि कुछ समय तक ही असर डालती है, फिर नहीं करती । यानी कि यह शंका तो टी.बी. का रोग है । जिसे वह शंका उत्पन्न हो गई उसमें टी. बी. की शुरुआत हो गई। यानी शंका
किसी भी प्रकार से 'हेल्प' नहीं करती, शंका नुकसान ही करती है इसलिए शंका को मूल में से, वह उगे तभी से बंद कर देनी चाहिए, पर्दा गिरा देना चाहिए । वर्ना पेड़ बन जाएगा उसका तो ! शंका का असर शंका का अर्थ क्या है ? जो खीर लोगों को खिलानी है उस खीर में एक सेर नमक डालना, वह शंका है । फिर क्या होगा? खीर फट जाएगी। इतनी सी ज़िम्मेदारी का तो लोगों को ध्यान नहीं है। हम तो शंका से बहुत दूर रहते हैं। हमें सभी प्रकार के विचार आते हैं। मन है तो विचार तो आएँगे, लेकिन शंका नहीं होती। मैं शंका की दृष्टि से किसी को देखूँ तो दूसरे दिन उसका मन मुझसे अलग ही पड़ जाएगा ! यानी कि किसी भी वस्तु में शंका हो, तो वह शंका नहीं रखनी चाहिए। हमें जागृत रहना चाहिए, लेकिन सामने वाले पर शंका नहीं रखनी चाहिए। शंका हमें मार डालती है। सामने वाले का जो होना होगा, वह होगा लेकिन हमें तो वह शंका मार ही डालेगी। क्योंकि वह शंका तो मरते दम तक इंसान को नहीं छोड़ती। शंका होती है, तब इंसान का वज़न बढ़ता है क्या? इंसान जैसे मुर्दे की तरह जी रहा हो, ऐसा हो जाता है। अतः किसी भी बात में अगर शंका नहीं करे तो उत्तम है । शंका तो जड़मूल से निकाल देनी चाहिए । व्यवहार में भी शंका निकाल देनी है। शंका 'हेल्प' नहीं करती, नुकसान ही करती है । रूठने से भी फायदा नहीं होता, नुकसान ही होता है। कितने ही शब्द एकांतिक रूप से नुकसान पहुँचाते हैं। एकांतिक रूप का मतलब क्या है ? लाभालाभ हों तब तो बात ठीक है लेकिन इससे तो सिर्फ अलाभ (नुकसान) ही है। ऐसे गुण ! हटा दें तो अच्छा । बुद्धि बिगाड़े संसार प्रश्नकर्ता : लेकिन अधिक बुद्धिशाली लोगों को क्यों अधिक शंका होती है ? दादाश्री : उसे बुद्धि से सभी पर्याय दिखाई देते हैं । ऐसा दिखता है कि शायद ऐसा होगा, ऐसे
हाथ रख दिया होगा । किसी व्यक्ति ने उसकी 'वाइफ' पर हाथ रख दिया, तब फिर सारे पर्याय खड़े हो जाते हैं, कि क्या होगा ? ! और फिर सिलसिला शुरू हो जाता है ! अबुध को तो कोई झंझट ही नहीं है, और वे भी वास्तव में अबुध नहीं होते हैं, उनका खुद का संसार चले उतनी उनमें बुद्धि होती है। उसे बाकी कोई झंझट नहीं होती । थोड़ा बहुत होकर फिर बंद हो जाता है । प्रश्नकर्ता : मतलब आप ऐसा कहना चाहते हो कि जो सांसारिक अबुध हैं, जो अभी बुद्धि में डेवेलप नहीं हुए हैं ? ? दादाश्री : नहीं, ऐसे लोग तो बहुत कम होते हैं, मज़दूर वगैरह ! प्रश्नकर्ता : लेकिन वे लोग बुद्धिशाली होने के बाद फिर अबुध दशा प्राप्त करेंगे न ? दादाश्री : उसकी तो बात ही अलग है न ! वह तो परमात्मापद कहलाता है। बुद्धिशाली होने के बाद अबुध होते हैं, वह तो परमात्मापद है ! लेकिन बुद्धिशाली लोगों को यह संसार बहुत तंग करता है । अरे, पाँच बेटियाँ हों और वह मनुष्य बुद्धिशाली हो तो, 'ये बेटियाँ बड़ी हो गई हैं।' अब वे सब जब बाहर जाती हैं, तब सभी पर्याय उसे याद आते हैं । बुद्धि से सबकुछ समझ में आता है, इसलिए उसे सबकुछ दिखाई देता है और फिर वह परेशान होता रहता है । फिर बेटियों को 'कॉलेज' तो भेजना ही पड़ता है और अगर ऐसा हो जाए तो वह भी देखना पड़ता है । और वास्तव में कुछ हुआ या नहीं हुआ, वह बात भगवान जाने, लेकिन वह तो शंका से मारा जाता है ! जहाँ हो जाता है, वहाँ उसे पता भी नहीं चलता, इसलिए वहाँ शंका नहीं है उसे और जहाँ नहीं होता है, वहाँ बेहद शंका है। अतः निरा शंका में ही जलता रहता है, और उसे भय ही लगता रहता है। यानी कि शंका हुई कि इंसान मारा जाता है। शंका, कुशंका, आशंका प्रश्नकर्ता : शंका, कुशंका, आशंका के बारे में समझाइए । दादाश्री : बेटी बड़ी हो जाए, तब बाप यदि बुद्धिशाली हो और मोही कम हो न, तो उसे समझ में आ जाता है कि इसके प्रति शंका रखनी ही पड़ेगी, अब शंका की नज़र से देखना पड़ेगा । वास्तव में जागृत इंसान तो जागृत ही रहेगा न ! अब अगर शंका की नज़र से देखना हो तो एक दिन शंका की नज़र से देखे, लेकिन क्या रोज़ शंका से देखना है ? और दूसरे दिन शंका की नज़र से देखे, तो वह सब आशंका कहलाती है। कोई 'एन्ड' है या नहीं है? तूने जिस दृष्टि से देखा, उसका 'एन्ड' तो होना चाहिए न ? उसे फिर आशंका कहते हैं । अब कुशंका कब होती है ? किसी लड़के के साथ घूम रही हो, तब मन में तरह-तरह की कुशंकाएँ करता है। अब ऐसा हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता । इंसान ऐसी सब शंकाएँ करता रहता है और दुःखी होता है । शंका करने लायक यह जगत् है ही नहीं, जागृति रखने लायक जगत् है। शंका अर्थात् तो खुद ही दुःख मोल लेना । वह कीड़ा फिर खाता ही रहता है उसे, रात-दिन खाता ही रहता है । जागृति रखने की ज़रूरत है। अपने हाथ में कुछ है नहीं और हाय-हाय करते रहते हैं, उसका क्या अर्थ है? यदि तुझे समझ में आता है तो बेटियों का पढ़ना बंद किया जा सकता है। तब फिर कहेगा, 'पढ़ाऊँगा नहीं तो कौन स्वीकार करे
गा उसे?' अरे, तब यह भी नहीं करता और वह भी नहीं करता, एक तरफ रह न! नहीं तो उस लड़की के साथ घूमता रह रात दिन ! वह 'कॉलेज' में जाए तो साथ - साथ जा, और बैठ वहाँ पर । वहाँ पर 'सर' पूछें कि, 'साथ में क्यों आए हो ?' तब कहना, 'भाई, इसलिए कि मुझे शंका रहती है न, साथ रहूँगा तो शंका नहीं रहेगी न!' तब लोग तो उसे घनचक्कर कहेंगे। अरे, उसकी बेटियाँ भी कहेगी न, कि 'पागल हैं ज़रा ।' इसलिए बेटियों पर शंका करने को मना करता हूँ और लोग बेटी पर शंका करें, ऐसे हैं भी नहीं । उन्हें ऐसी शंका नहीं रहती । उन्हें तो, सात बेटियाँ हों, तब भी कुछ नहीं । राम तेरी माया ! उन्हें तो दूसरी प्रकार की शंका होती है कि, 'हमारे पार्टनर रोज़ लगभग पाँच-दस रुपये घर ले जाते हैं।' उसे ऐसी शंका रहती है । पैसों के प्रति उसे प्रियता है न! यानी हमारे पार्टनर पैसे ले जाते हैं, उसे ऐसी शंका रहती है । एक ही दिन वैसी शंका की, तो वह शंका कहलाती है और बार-बार शंका करे, तो वह आशंका कहलाती है । मोह से मूर्छित दशा लड़कियों पर शंका नहीं होती क्योंकि लड़कियों पर मोह है न ! जहाँ पर मोह होता है, वहाँ उसकी भूल का पता नहीं चलता । मोह से मार खाता है न जगत् । सभी माँ - बाप ऐसा कहते हैं कि, 'हमारी बेटियाँ अच्छी हैं।' यदि ऐसा है तब तो सतयुग ही चल रहा है ऐसा कहा जाएगा न? सब माँ-बाप ऐसा ही कहते हैं न ? जिन्हें पूछें वे ऐसा ही कहते हैं तो फिर सत्युग ही चल रहा है न बाहर ! तब वे वापस कहते हैं, 'नहीं, लोगों की लड़कियाँ बिगड़ गई हैं ।' ऐसा भी कहते हैं । प्रश्नकर्ता : अभी तो उसकी बेटी के बारे में कुछ कहने जाएँ तो हमें दबोच लेंगे। दादाश्री : ऐसा तो कहना ही नहीं चाहिए । दबोच लेंगे और गालियाँ भी देंगे। किसी को कुछ कह ही नहीं सकते। इतना अच्छा है कि हर एक
माँ-बाप को उनके बेटे-बेटियों पर राग होता है अतः राग के कारण उनके दोष दिखाई ही नहीं देते जबकि दूसरे की बेटियों के सारे दोष देख सकते हैं। अपनी बेटी के दोष नहीं दिखाई देते इतना अच्छा है न, उससे तो शांति रहती है और फिर आगे की बात बाद में देख लेंगे । ऐसी टीका नहीं करनी चाहिए एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, 'मेरी बेटियाँ तो बहुत समझदार हैं ।' मैंने कहा, 'हाँ, अच्छा है।' फिर वह भाई दूसरी लड़कियों की टीका (टीका-टिप्पणी) करने लगे । तब मैंने उनसे कहा, 'टीका किसलिए करते हो लोगों की? आप लोगों की टीका करोगे तो लोग आपकी भी टीका करेंगे।' तब उसने कहा, 'मुझमें टीका करने जैसा है ही क्या ?' तब मैंने कहा, 'दिखाता हूँ, चुप रहना ।' फिर उसकी बेटियों की किताबें लाकर दिखाईं सब । 'देखो यह, ' कहा । तब उसने कहा, 'हें!' मैंने कहा, 'चुप हो जाओ। किसी की टीका मत करना । मैं जानता हूँ, फिर भी मैं आपके सामने क्यों चुप रहा हूँ ? इतना सब आप रौब मारते हो, तब भी मैं चुप क्यों रहा हूँ?' मैं जातना हूँ कि भले ही रौब मारे, लेकिन संतोष रहता है न, उन्हें! लेकिन जब टीका करने लगे तब कहा कि, 'मत करना टीका ।' क्योंकि बेटियों के माँ-बाप होकर हम किसी की बेटी पर टीकाटीप्पणी करें तो वह भूल है । जो बेटियों के बाप नहीं होते, जिनकी बेटियाँ नहीं होतीं, वे ऐसी टीका ही नहीं करता बेचारा । ये बेटी वाले बहुत टीका करते हैं। जबकि तू बेटियों का बाप होकर टीका कर रहा है ? तुम्हें शर्म नहीं आती ? ऐसा संशय रखने से कब अंत आएगा ? आजकल की लड़कियाँ भी बेचारी इतनी भोली होती हैं कि ऐसा मान लेती हैं कि मेरे पिता जी कभी भी मेरी डायरी नहीं पढ़ेंगे । उसके स्कूल की डायरी में पत्र रखती हैं और बाप भी भोले होते हैं, उन्हें बेटी पर विश्वास ही रहता है। पर मैं तो यह सब जानता हूँ कि ये बेटियाँ बड़ी हो चुकी हैं। मैं उसके फादर को इतना ही कहता हूँ कि इसकी शादी करवा देना जल्दी । हाँ, और क्या कहूँ फिर ? सावधान, बेटियों के माँ बाप एक हमारा खास रिश्तेदार था, उसकी चार बेटियाँ थीं । वह बहुत जागृत था। उसने मुझसे कहा, 'ये लड़कियाँ बड़ी हो गई हैं, कॉलेज में जाती हैं, तो मुझे विश्वास नहीं रहता ।' तब मैंने कहा, 'साथ में जाना । साथ में कॉलेज जाना और कॉलेज में से निकले तब वापस आना । वह तो एक दिन जाएगा, लेकिन दूसरे दिन क्या करेगा ? पत्नी को भेजना।' अरे, विश्वास कहाँ रखना है और कहाँ नहीं रखना उतना भी नहीं समझता ?! हमें यहीं से उसे कह देना चाहिए, 'देख बेटी, हम अच्छे लोग हैं, हम खानदानी हैं, कुलवान हैं।' इस तरह उसे सावधान कर देना । फिर जो हुआ वह करेक्ट । शंका नहीं करनी है। कितने लोग शंका करते होंगे? जो जागृत होते हैं, वे शंका करते रहते हैं । कमअक्ल को तो शंका ही नहीं होती न ! इसलिए किसी भी प्रकार की शंका उत्पन्न होने से पहले ही उसे उखाड़कर फेंक देना चाहिए। यह तो, ये लड़कियाँ बाहर घूमने जाएँ, खेलने जाएँ, उन पर शंका करता है और शंका उत्पन्न हुई तो वहाँ हमें सुख रहता है क
्या ? प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन फिर शंका करने का अर्थ नहीं है । दादाश्री : हाँ, बस! इसलिए चाहे कुछ भी कारण हो फिर भी शंका उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए, लेकिन शंका नहीं करनी चाहिए। शंका हुई कि 'मृत्यु' आई समझो । प्रश्नकर्ता : लेकिन शंका तो अपने आप ही उत्पन्न होती है न ? दादाश्री : हाँ, लेकिन वह भयंकर अज्ञानता है । उससे बहुत दुःख पड़ते हैं। बेटियाँ बाहर जाएँ और कोई कहे कि 'उसे उसका फ्रेन्ड मिल गया है ।' तब फिर लड़कियों पर शंका होती है, तो क्या स्वाद आएगा ? प्रश्नकर्ता : बस, फिर अशांति रहा करती है । दादाश्री : अशांति रखने से क्या बाहर सब ठीक हो जाएगा ? फ्रेन्ड के साथ घूमती है, क्या उसमें कुछ बदलाव आ जाएगा? बदलाव कुछ होगा नहीं और वह शंका से ही मर जाएगा! इसलिए शंका उत्पन्न हो कि तुरंत ही 'दादाजी ने मना किया है' इतना याद करके बंद कर देना चाहिए। बाकी सावधानी पूरी रखनी है । लोगों की अपनी लड़कियाँ तो होती हैं न ? तब क्या वे कॉलेज में नहीं जाएँगी ? ज़माना ऐसा है, इसलिए कॉलेज में तो जाएँगी न ? यह क्या पहले का ज़माना है कि बेटियों को घर में बिठाकर रखेंगे? इसलिए जैसा ज़माना है, उसके अनुसार चलना पड़ेगा न ! यदि दूसरी लड़कियाँ अपने फ्रेन्ड के साथ बात करती हैं, तब वैसे ही ये लड़कियाँ क्या अपने फ्रेन्ड के साथ बात नहीं करेंगी ? अब बेटियों की जब ऐसी कोई बात सुनने में या देखने में आए और शंका हो तब असल मज़ा आता है। अगर आकर मुझसे पूछे तो मैं तुरंत कह दूँगा कि 'शंका निकाल दे ।' यह तो तूने देखा इसलिए शंका हुई और नहीं देखा होता तो ? देखने से ही शंका हुई है तो, 'नहीं देखा, ' ऐसा कहकर करेक्ट कर ले न ! अन्डरग्राउन्ड में तो यह सब है ही लेकिन उसके मन में ऐसा होता है कि, 'ऐसा होगा तो ?'
तब फिर वह पकड़ लेता है उसे । फिर भूत छोड़ता नहीं है उसे, पूरी रात नहीं छोड़ता । रात को भी नहीं छोड़ता, एक - एक महीने तक नहीं छोड़ता। इसलिए शंका रखना गलत है शंका ? नहीं, संभाल रखो अब चार बेटियों का बाप सलाह लेने आया था, वह कह रहा था, 'मेरी ये चारों बेटियाँ कॉलेज में पढ़ने जाती हैं, तो उन पर शंका तो होगी ही न ! तो मुझे क्या करना चाहिए उन चारों लड़कियों का ? लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी तो मैं क्या करूँगा?' मैंने कहा, 'लेकिन सिर्फ शंका करने से नहीं सुधरेंगी।' अरे, शंका मत करना । घर आएँ, तब घर पर बैठे-बैठे उनके साथ कुछ अच्छी बातचीत करना, फ्रेन्डशिप करना । उनसे आनंद हो ऐसी बातें करनी चाहिए और ऐसा मत करना कि तू सिर्फ धंधे में, पैसे में ही पड़ा रहे। पहले बेटियों को संभाल । उनके साथ फ्रेन्डशिप कर। उनके साथ नाश्ता कर, ज़रा चाय पी, वह प्रेम जैसा है। यह तो, ऊपर-ऊपर से प्रेम रखते हो, इसलिए फिर वह बाहर प्रेम ढूँढती हैं । फिर मैंने कहा कि, और फिर भी आपकी बेटियों को किसी से प्रेम हो जाए, और वह फिर रात को साढ़े ग्यारह बजे घर लौटे तो क्या आप उसे निकाल दोगे? तब उसने कहा, 'हाँ, मैं तो गेटआउट कर दूँगा । उसे घर में घुसने ही नहीं दूंगा ।' मैंने कहा, 'ऐसा मत करना । वह किसके पास जाएगी रात को? वह किसके यहाँ आसरा लेगी ?' उससे कहना, आ, बैठ ! सो जा ।' वह नियम है न कि नुकसान तो हुआ लेकिन अब इससे अधिक नुकसान न हो, उसके लिए संभाल लेना चाहिए । बेटी कुछ नुकसान करके आई और हम वापस उसे बाहर निकाल दें तो हो चुका न! लाखों रुपये का नुकसान तो होने लगा है, लेकिन तब नुकसान कम हो, ऐसा करना चाहिए या बढ़ जाए ऐसा करना चाहिए ? नुकसान होने ही लगा है तो उसका उपाय तो होना ही चाहिए न ? इसलिए बहुत ज्यादा नुकसान मत उठाना। तू खुद ही उसे घर पर सुला देना, और फिर दूसरे दिन समझाना कि 'समय पर घर आना । मुझे बहुत दुःख होता है और इससे फिर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा' कहना । 'ऐसे-वैसे करके समझा देना।' फिर वह समझ गया । रात को निकाल देगा तो वापस कौन रखेगा ? लोग कुछ न कुछ कर देंगे। फिर खत्म हो जाएगा सबकुछ। रात को एक बजे निकाल देंगे तो लड़की कैसी लाचारी अनुभव करेगी बेचारी । यह तो कलियुग का मामला है। ज़रा सोचना तो चाहिए न ? यानी कभी रात को अगर बेटी देर से घर आए, तब भी शंका मत करना, शंका निकाल देना, तो कितना फायदा होगा? बेकार का डर रखने का अर्थ क्या है? एक जन्म में कुछ भी नहीं बदलेगा । उन बेटियों को बिना बात के दुःख मत देना । बेटों को दुःख मत देना । सिर्फ इतना ज़रूर कहना कि, 'बेटी, तू बाहर जाती है तो देर नहीं होनी चाहिए। हम खानदानी हैं। हमें यह शोभा नहीं देता इसलिए इतनी देर मत करना । ' इस तरह सारी बातचीत करना, समझाना लेकिन शंका करने से कुछ नहीं होगा कि 'किसके साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी ?' और फिर रात को बारह बजे आए तब भी फिर दूसरे दिन कहना कि, 'बेटी, ऐसा नहीं होना चाहिए।' उसे यदि निकाल देंगे तो वह किसके यहाँ जाएगी उसका ठिकाना न
हीं है। आपको समझ में आया न ? फायदा किसमें है ? कम से कम नुकसान होने में फायदा है न ? इसलिए मैंने सभी से कहा है कि 'बेटियाँ देर से घर में आएँ, तब भी उन्हें घर में आने देना, उन्हें निकाल मत देना ।' वर्ना बाहर से ही निकाल दें, ये सख्त मिज़ाज वाले लोग ऐसे ही हैं न ? काल कितना विचित्र है ! कितनी दुःख और जलनवाला काल है ! और फिर यह कलियुग है, इसलिए घर में बिठाकर फिर समझाना । मोक्षमार्गीय संयम अतः हमने क्या कहा है कि फाइलों का समभाव से निकाल करो । ये सभी फाइलें हैं। ये कहीं आपकी बेटियाँ नहीं हैं, या आपकी बहुएँ नहीं हैं। ये बहुएँ-बेटियाँ, सभी 'फाइलें' हैं। फाइलों का समभाव से निकाल करो। अगर लकवा हो जाए न, तब कोई आपका सगा नहीं रहेगा। बल्कि कई दिन हो जाएँगे न, तो लोग सब चिढ़ने लगेंगे । वह लकवेवाला भी मन में समझ जाता है कि सभी चिढ़ रहे हैं। क्या करे फिर ?! इन 'दादा' द्वारा दिखाया हुआ मोक्ष सीधा है, एक अवतारी है इसलिए संयम में रहो और फाइलों का समभाव से निकाल करो । बेटी हो या पत्नी हो या कोई और हो, लेकिन सब का समभाव से निकाल करो । कोई किसी की बेटी नहीं होती दुनिया में । यह सब कर्म के उदय के अधीन है। जिसे ज्ञान नहीं मिला है, उसे हम ऐसा कुछ कह नहीं सकते। ऐसा कहेंगे तब तो वह लड़ने को तैयार हो जाएगा । अब मोक्ष कब बिगड़ेगा ? भीतर असंयम हो जाएगा तब ! असंयम हो, अपना 'ज्ञान' ऐसा है ही नहीं । निरंतर संयमवाला ज्ञान है । सिर्फ, शंका की कि दुःख आएगा ! इसलिए, एक तो शंका करनी किसी भी प्रकार से शंकाशील बनना वह सब से बड़ा गुनाह है। नौ बेटियों के बाप को निःशंक घूमते हुए मैंने देखा है और वह भी भयंकर कलियुग में ! और नौ की नौ लड़कियों की शादी हुई । यदि वह शंका में रहा होता तो कितना जी सकता था? इसलिए कभी भी शंक
ा मत करना । शंका करने से खुद को ही नुकसान होता है । प्रश्नकर्ता : शंका में किस तरह का नुकसान होता है ? वह ज़रा समझाइए न! दादाश्री : शंका, वह दुःख ही है न ! प्रत्यक्ष दुःख ! वह क्या कम नुकसान है? शंका में गहरा उतरे तो मरणतुल्य दुःख होता है । प्रश्नकर्ताः वह शूल की तरह रहता है ? दादाश्री : शूल तो अच्छा है लेकिन शंका में तो उससे भी अधिक दुःख होता है। शूल तो बस इतना ही है कि, यदि कोई दूसरी चीज़ शरीर में घुस जाए तो यों चुभता रहता है जबकि शंका तो मार ही डालती है इंसान को, संताप उत्पन्न करती है । इसलिए शंका नहीं करनी चाहिए । शंका का उपाय बाकी, मनुष्य शंका के बगैर तो होते ही नहीं है न ! और, मुझे तो पहले, बा जीवित थे न, तब गाड़ी में से उतरते ही, बड़ौदा के स्टेशन पर ऐसा विचार आता था कि, 'बा यदि आज अचानक मर गए होंगे, तो मुहल्ले में कैसे प्रवेश करूँगा ? " ऐसी शंकाएँ उत्पन्न होती थीं । अरे, तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं मनुष्य को लेकिन खोज करके मैंने पता लगा लिया था कि इन सब पर ध्यान मत दो ! शंका करने योग्य यह जगत् है ही नहीं । प्रश्नकर्ता : वह तो, मुझे भी घर से फोन आए तो मुझे अभी भी शंका होती है कि, 'बा को कुछ हो गया होगा तो ?' दादाश्री : लेकिन वह शंका कुछ हेल्प नहीं करती, दुःख देती है । यह बूढ़ा इंसान कब गिर जाए, उसके लिए क्या कह सकते हैं ! क्योंकि हम थोड़े ही उसे बचा सकते हैं ? और ऐसी शंका होने लगे, तब उनके आत्मा से हमें उनके लिए विधि करते रहना कि, 'हे नामधारी बा, उनके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न ऐसे प्रकट शुद्धात्मा, उनकी आत्मा को शांति दीजिए ।' यानी शंका होने से पहले हमें ऐसे विधि रख देनी चाहिए। शंका हो तब हमें ऐसे पलट लेना है । 'व्यवस्थित' से निःशंकता जगत् अधिक तो शंका से ही दुःखी है । शंका तो मनुष्य को अधोगति में ले जाती है । शंका से कुछ नहीं होता है क्योंकि व्यवस्थित के नियम को तोड़नेवाला कोई है ही नहीं । व्यवस्थित के नियम को कोई नहीं तोड़ सकता, इसलिए शंका करके क्यों बेकार में परेशान होता है ? व्यवस्थित का अर्थ क्या है कि जो 'है' वह है, जो 'नहीं है वह नहीं है । जो 'है' वह है, वह 'नहीं है' नहीं होगा और जो 'नहीं' है वह नहीं है, वह 'है' नहीं बन सकता। इसलिए जो 'है' वह है, उसमें तू तू कुछ इधर-उधर करने जाएगा तो भी 'है' ही और जो 'नहीं है' उसमें इधर-उधर करने जाएगा तो भी 'नहीं' ही है इसलिए निःशंक हो जाओ। इस 'ज्ञान' के बाद अब आप आत्मा में निःशंक हो गए कि हमें जो यह लक्ष्य बैठा है, वही आत्मा है और बाकी सबकुछ निकाली बातें हैं ! इस प्रकार 'व्यवस्थित' का उपयोग करेंगे न, तो कोई भी भाव उत्पन्न ही नहीं होंगे। 'जैसा होना होगा वैसा होगा' ऐसा नहीं बोलना चाहिए। जो 'है' वह है और जो 'नहीं है' वह नहीं है । ऐसा यदि समझ जाए न तो शंका नहीं रहेगी और शंका हो तो मिटा देना वापस, कि भाई, जो 'है' वह है, इसमें शंका किसलिए? जो 'नहीं है' वह नहीं है, उसमें शंका किसलिए? सोचता है कि 'आएगा या न
हीं आएगा आएगा या नहीं आएगा? नुकसान रुकेगा या नहीं रुकेगा ? ' अरे, जो 'नहीं है' वह नहीं है। जो रुकना नहीं है, तो 'नहीं है' वह रुकेगा ही नहीं और रुकना है तो रुक जाएगा। तो उसके लिए क्या झंझट करनी ? इसलिए जो 'नहीं वह नहीं है और जो 'है' वह है, इसलिए शंका रखने का कोई कारण ही नहीं है । 'व्यवस्थित' के अर्थ में ऐसा नहीं कह सकते कि 'जो होना होगा वह होगा, कोई हर्ज नहीं है । जैसा होना होगा वैसा ही होगा, ' ऐसा नहीं कह सकते । वह तो एकांतिक वाक्य कहलाएगा । उसे दुरुपयोग करना कहा जाएगा। ये मन, बुद्धि वगैरह अज्ञ स्वभाव के हैं और जब तक विरोधी हैं, तब तक हमें जागृत रहना पड़ेगा न ! प्रश्नकर्ताः हमें भविष्यकाल की चिंता होने लगे कि 'यह ऐसा हो जाएगा, उससे तो ऐसा हो तो अच्छा ।' तो फिर ऐसे समय में ऐसा नहीं कह सकते कि 'व्यवस्थित में होना होगा वैसा होगा, तू किसलिए चिंता करता है ?' दादाश्री : 'व्यवस्थित' में जो होना होगा वैसा ही होगा, ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है कहा तो उसके संबंध में सोचने का रहा ही नहीं न! जो 'नहीं है' वह 'है' होगा नहीं, और जो 'है' वह 'नहीं है' होगा नहीं, फिर सोचने को रहा ही नहीं न ! उस संबंध में निःशंक हो गया न ! और भविष्यकाल 'व्यवस्थित' के ताबे में है। अपने ताबे में है ही क्या ? ! 'व्यवस्थित में होगा वैसा हो जाएगा, ' ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हमें ऐसा कहना चाहिए कि जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है। उँगली में थोड़ी सी भी चोट लगनी होगी तो अगर ' है ' तो होगा और 'नहीं है' तो नहीं होगा इसलिए जो 'नहीं है' वह नहीं है और जो होगा उसमें हमें आपत्ति नहीं है। यह संसार भी इसमें आपत्ति उठाकर कहाँ जाएगा?! सोचने से या कोई ऐसा पुरुषार्थ नहीं है क
ि जिससे यह बदल सके इसलिए जो 'है' वह है और जो 'नहीं है' वह नहीं है। लेकिन अज्ञानी यदि इसका उल्टा अर्थ निकाले तो नुकसान कर बैठेगा । ये बातें तो जिनके पास 'ज्ञान' है, उनके लिए हैं ! जिस प्रकार भगवान के बताए हुए तत्व हैं वे जो 'हैं' उतने ही तय कर रखे हैं न और जो 'नहीं है' उन्हें नहीं कहा है । वैसे ही इसमें भी जो 'है' वह है। हम यदि अभी से ऐसा सोचने लगें कि 'नाई नहीं मिलेगा तो अब क्या करेंगे? शायद दो-तीन महीने नहीं भी मिला, तब पूरी जिंदगी नहीं मिले तो अब क्या उपाय करें ?" ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत है क्या हमें ? क्या ऐसा सोचते हैं कि बाल इतने इतने लंबे हो जाएँगे तो क्या करेंगे ? अतः यदि शंका नहीं होगी तो कोई दुःख आएगा ही नहीं । शंका ही नहीं रहे तो फिर क्या बचा ? ! और शंका होगी तब भी हमें उसे हटा देना है, 'आप क्यों आए हो? हम हैं न ? आपको सलाह देने को किसने कहा है ? अब हम किसी वकील की सलाह नहीं लेते हैं और अन्य किसी की भी हम सलाह नहीं लेते हैं । हम तो दादा की सलाह लेते हैं, बस! जब जो रोग होता है तब दादा को दिखा देते हैं हम । हमें किसी को भी सलाह और नोटिस नहीं देना है। लोग भले ही हमें दें।' उसमें भी, व्यवस्थित से बाहर कोई कुछ कर सकता है क्या? तो अब विश्वास हो गया है न, कि व्यवस्थित से बाहर कोई कुछ नहीं कर सकता ? मोक्ष में जाना हो, तो... इसलिए शंका तो किसी पर भी नहीं करनी चाहिए। आप घर पहुँचो तब आपकी बहन से कोई दूसरा व्यक्ति बात कर रहा हो, तब भी शंका नहीं करनी चाहिए । शंका तो सब से अधिक दुःख देती है और वह पूरे ज्ञान को ही खत्म कर देती है, फेंक देती है । व्यवस्थित से बाहर कुछ भी नहीं होनेवाला और उस घड़ी आप बहन से कहो, 'यहाँ आ बहन, मुझे खाना दे दे।' इस तरह दोनों को अलग किया जा सकता है लेकिन शंका तो कभी भी नहीं करनी चाहिए । शंका से दुःख ही खड़ा होता है । व्यवस्थित में जो होना है वह होगा, लेकिन शंका नहीं रखनी है । प्रश्नकर्ता : लेकिन शंका भी उदयकर्म के कारण ही होती होगी न ? दादाश्री : शंका करना उदयकर्म नहीं कहलाता । शंका रखने से तो तेरा भाव बिगड़ जाता है, तूने उसमें हाथ डाला, इसलिए वह दुःख ही देगी । शंका कभी भी नहीं करनी चाहिए । आपकी बहन के साथ कोई बात कर रहा हो, लेकिन अब आपको तो मोक्ष में जाना है तो आपको शंका में नहीं पड़ना चाहिए। यदि आपको मोक्ष में जाना है तो ! क्योंकि एक जन्म में तो! क्योंकि एक जन्म में तो व्यवस्थित से बाहर कुछ भी नहीं होगा, आप जागृत रहोगे तब भी नहीं होगा और अजागृत रहोगे तब भी नहीं होगा। अगर आप ज्ञानी हो तब भी बदलाव नहीं होगा और अज्ञानी हो तब भी बदलाव नहीं होगा । इसलिए शंका रखने का कोई कारण नहीं है । में तो । प्रश्नकर्ता : क्योंकि कोई फर्क पड़ेगा ही नहीं । दादाश्री : हाँ, फर्क नहीं पड़ेगा और बहुत नुकसान है इस शंका प्रश्नकर्ता : लेकिन इस 'ज्ञान' के बाद तो 'चार्ज' होगा ही नहीं न ? दादाश्री : चार्ज नहीं होता, लेकिन इस तरह शंका रखेंगे तो चार्ज होगा। यदि मोक
्ष चाहिए तो शंका नहीं करनी चाहिए । वर्ना फिर भी, अज्ञानता में तो वैसा होगा ही। जबकि यह तो 'ज्ञान' का लाभ मिल रहा है, मुक्ति का लाभ मिल रहा है और जो 'है' वही हो रहा है । इसलिए शंका रखने का कोई कारण नहीं है । शंका बिल्कुल छोड़ देना । 'दादा' ने शंका करने को मना किया है । यह तो खुद की ही निर्बलता प्रश्नकर्ता : इस शंका से, पहले तो खुद का ही आत्मघात होता दादाश्री : हाँ, शंका से तो खुद का ही, करने वाले का ही नुकसान हैं! सामने वाले को क्या लेना-देना? सामने वाले का क्या नुकसान है ? सामने वाले को तो कुछ पड़ी ही नहीं है । सामनेवाला तो कहेगा कि 'मेरा तो जो होनेवाला होगा, वह होगा । आप क्यों शंका कर रहे हो ?' अब आप शंका करते हो तो वह आपकी निर्बलता है। मनुष्य में निर्बलता तो होती ही है, सहज रूप से होती ही है । निर्बलता नहीं हो तब तो बात ही अलग है । वर्ना, निर्बलता थोड़ी-बहुत तो होती ही है मनुष्य मात्र में! और निर्बलता गई कि भगवान बन गया ! एक ही वस्तु है, निर्बलता गई - वही भगवान ! शंका सुनते गैबी जादू से हम पर किसी को शंका हो न, तो फिर क्या वह उसे छोड़ेगी ? नींद में भी उसे परेशान करती रहेगी । हमारा शुद्ध बहीखाता है इसलिए सभी का शुद्ध कर देता है । हम पर शंका हो, तब भी हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है। शंका होती है तो वह उसकी खुद की कमज़ोरियाँ हैं। इसलिए कविराज ने लिखा है न, कि विपरीत बुद्धिनी शंका, ते सूणता गैबी जादूथी, छतां अमने नथी दंड्या, न करिया भेद 'हु' 'तुं' थी । क्या कहना चाहते हैं कविराज ? 'दादा' पर शंका होना, ऐसा कब होता है ? विपरीत बुद्धि हो, तभी शंका होती है। एक बार ऐसा हुआ था कि यहाँ पर तो सभी के सिर पर ऐसे हाथ रखते हैं न, ऐसे एक स्त्री के सिर पर हाथ रखा था। उसके पति के मन में वहम हो
गया । फिर कभी उस स्त्री के कंधे पर हाथ रख दिया होगा, तो उसे फिर से वहम हुआ । 'दादा' की दृष्टि बिगड़ गई लगती है, ऐसा उसके मन में घुस गया । मैं तो समझ गया कि इस भले आदमी को वहम हो गया है, उस वहम का उपाय तो, अब क्या हो सकता था?! तो मैंने ऐसा माना कि दुःखी हो रहा होगा। फिर उसने मुझे पत्र लिखा कि, 'दादाजी, मुझे ऐसा दुःख हो रहा है । ऐसा नहीं करो तो अच्छा । आपसे, ज्ञानीपुरुष से ऐसा नहीं हो तो अच्छा ।' उसके बाद मुझे मिलता, मेरे सामने देखता, तब उसके मन में ऐसा होता था कि दादाजी पर कोई असर ही नहीं दिखाई दे रहा है । फिर दो-तीन दिनों बाद फिर से मिला । तब हमें तो ऐसा था कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, उस तरह से हमने तो 'सच्चिदानंद' किया। ऐसा पाँचसात बार हुआ । उसे कोई असर नहीं दिखा, तब वह मन में थक गया । उसे भीतर घबराहट हो गई, कि 'यह क्या ? पत्र लिखने के बाद पहुँचा, फिर पढ़कर आ रहे हैं, फिर भी कोई असर तो नहीं दिखाई दे रहा । अरे, गुनहगार पर असर दिखाई देता है । गुनहगार को इफेक्ट होता है। हमें इफेक्ट होगा ही क्यों ? जब हम गुनहगार ही नहीं हैं, तब फिर ! तू चाहे जितने पत्र लिखे या चाहे जो भी करे फिर भी मुझे आपत्ति नहीं है। पत्र का जवाब ही नहीं है मेरे पास । मेरे पास वीतरागता है । यह तो तू अपने मन में ऐसा समझ बैठा है। उसने फिर मुझसे कहा, 'आपको कुछ नहीं हुआ ?' मैंने कहा, "मुझे क्या होता ? तुझे शंका हुई है, लेकिन 'मैं' उसमें हूँ ही नहीं न ! इसलिए मुझे आपत्ति ही नहीं है न !" इसलिए गैबी जादू लिखा है । अब ऐसे में लोगों को असर हो जाता है ? यदि वह पत्र लिखे तो ? प्रश्नकर्ता : हाँ, दूसरा कोई होता तो वह हिल जाता । दादाश्री : फिर उस शिष्य का क्या होगा? और यहाँ तो असर भी नहीं हुआ और उसकी वाइफ पर भी असर नहीं हुआ, किसी पर कुछ भी असर नहीं हुआ और समय बीत गया । शंका का समय तो चला जाएगा न, एक दिन ? शंका क्या हमेशा के लिए रहती होगी ? कवि ने बहुत भारी वाक्य लिखा है न, कि शंका कैसी है ? सच्ची शंका नहीं है यह, लेकिन विपरीत बुद्धि की शंका है यह ! और हम 'ज्ञानीपुरुष' हैं, तूने हम पर भी शंका की ? जहाँ हर प्रकार से निःशंक होना है, जिस पुरुष ने हमें निःशंक बनाया, उन पर भी शंका ? ! लेकिन यह तो जगत् है, क्या नहीं कह सकता ? ! और फिर उस शंका को मैं सुनता हूँ, वह भी गैबी जादू से और फिर बाद में वीतरागता से देखता हूँ ! फिर भी दंडित नहीं किया 'मैं' 'तू' से फिर कवि क्या कहते हैं ? छतां अमने नथी दंड्या, न करिया भेद हुं तू थी । हाँ, बिल्कुल भी दंड नहीं दिया और 'मैं-तू' नहीं किया कि 'तू ऐसा है, तू ऐसा क्यों करता है, मुझ पर ऐसी शंका क्यों करता है !' ऐसा कुछ भी नहीं । मैं समझता हूँ कि ऐसा ही होता है यह तो, उसे गलतफहमी हुई है। अपने यहाँ सत्संग में 'मैं- तू' नहीं हुआ है, 'मैं-तू' का भेद नहीं पड़ा है। 'मैं- तू' का भेद तो कितने ही सालों से नहीं पड़ा है, यहाँ किसी भी जगह पर । अधिकतर तो स्वाभाविक रूप से मनुष्य में दोष आते ही
हैं । वह दोषों से भरा हुआ हो तो कहाँ जाए बेचारा ?! लेकिन उस वजह से हमने ऐसा नहीं कहा कि 'तू ऐसा है'। 'मैं और तू' कहा तो भेद पड़ जाएगा। हो चुका फिर ! और यहाँ तो सबकुछ अभेद ! आपको लगा न, ऐसा अभेद ? ! यानी कि 'तूने ऐसा क्यों किया' ऐसा- वैसा कुछ भी नहीं । मुझमें ऐसी जुदाई है ही नहीं । वर्ना यदि शंका करे न, तो भेद पड़ जाता है और इससे संबंधित शंका, वह तो बहुत भारी चीज़ है ! यानी कि यह वाक्य बहुत बड़ा है तू 'ऐसा क्यों है ? तूने ऐसा क्यों किया ?' इस तरह 'मैं - तू', अलग नहीं करते। 'मैं- तू' अपने यहाँ कहा ही नहीं है। अपने इन पचास हज़ार लोगों में 'मैं- तू' कहा ही नहीं है । प्रश्नकर्ता : लेकिन सभी धर्मस्थानकों में 'मैं- तू' के भेद ही देखने को मिलते हैं न ? दादाश्री : वही होता है न ! और क्या होता है ? ! जब तक 'मैं- तू' के भेद हैं, तब तक जीवात्मा हैं। जिसमें 'मैं-तू' अभेद हो गए, वह परमात्मा बन गया। परमात्मा, भला उसमें और कुछ कहाँ से लाते ? लेकिन जब तक उसे परमात्मा नहीं बनना होता है, तब तक 'मैं - तू' करता रहता है । अर्थात् जब विपरीत बुद्धि से शंका की होगी, तब भी 'मैं- तू' के भेद नहीं डाले । वर्ना पूरा जगत् तो लड़ाई कर-करके तेल निकाल देता है कि 'तू नालायक है, ऐसा है, वैसा है ।' और वैसा सभी जगह पर है ही, 'एवरीव्हेर!' यहाँ के अलावा सब जगह पर है ही ! यह अपवाद मार्ग है, हर प्रकार से अपवाद मार्ग है। अन्य सभी जगह तो 'मैं - तू' के भेद डल जाते हैं । प्रश्नकर्ता : हम आप पर शंका करें उसका आपको पता चल जाता है, फिर भी आप भेद क्यों नहीं रखते ? दादाश्री : हम जानते हैं कि यह मूली है तो ऐसी ही गंध देगी, यह प्याज़ है, वह ऐसी गंध देगी। ऐसा सब नहीं समझते ? फिर अगर वह दुर्गंध दे और उसमें उसे डाँटे तो बुरा नहीं
दिखेगा ? ! वह है ही प्याज़, उसमें डाँटने जैसा क्या है ? ! मूली में मूली के स्वभाव वाली सुगंधी होती ही है। प्याज़ अगर उस कोने में रखी हो तो वहाँ पर शोर मचाती रहती है तो यहाँ तक गंध आती है वह उसका स्वभाव है । हम समझते हैं कि यह ऐसे स्वभाव का है। हम यदि उल्टा करने जाएँगे तो उस पर से कृपा चली जाएगी जिससे उसका अहित हो जाएगा। जिसका हित करने बैठे हैं, उसी का अहित हो जाएगा, इसलिए हमने तो... हमारी जिंदगी का परिश्रम ही ऐसा है कि हमने जो पेड़ लगाया, फिर प्लानिंग करते समय वह पेड़ अगर रोड के बीच में आ रहा हो, तब भी हम उस पेड़ को नहीं काटते, तब फिर रोड को ही घुमाना बाकी रहा! हमारा बोया हुआ, हमने पानी दिया हो और हमारे द्वारा पाले-पोसे गए उस पेड़ को हम उखाड़ते नहीं हैं लेकिन सिर्फ उस रोड को ही घुमाना रहा । पहले से हमारी पद्धति ही इस प्रकार की रही है कि हमारे हाथ से बोया गया हमारे हाथ से उखड़ना नहीं चाहिए । बाकी, जीव तो बहुत प्रकार के मिलेंगे ही न ! ये तो अपार शंकाएँ हैं ! शंका, शंका, चलते-फिरते शंकावाला जगत् । और किसी के द्वारा भूलचूक से किसी व्यक्ति की पत्नी पर हाथ रख दिया, तो उससे शंका हुई ! उससे तो घर पर बेहिसाब लड़ाईयाँ शुरू हो जाती हैं। अब उस स्त्री का इसमें कोई दोष नहीं है, फिर भी बेहिसाब लड़ाईयाँ चलती हैं। अब इन लोगों का क्या करें ?! यानी कि यदि भूल से अपना हाथ रख दिया गया हो तो निःशंकता से उस शंका को खत्म कर देना चाहिए। शंका किससे खत्म करनी है ? निःशंकता से ! वह 'दादा' की निःशंकता से शंका गई ऐसा कहना । शंका करने के बजाय... बाकी, जगत् में सब से बड़ा रोग हो तो वह है शंका ! प्रश्नकर्ता : लेकिन आपका यह वाक्य बहुत ज़बरदस्त है । 'यह जगत् शंका करने योग्य नहीं है!' दादाश्री : शंका से ही यह जगत् उत्पन्न हुआ है । शंका से, बैर से, कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनके आधार पर जगत् टिका है। किसी पर शंका करने के बजाय उसे दो थप्पड़ मार देना अच्छा है, लेकिन शंका मत करना । थप्पड़ मारोगे तो परिणाम आएगा न झट से ! सामनेवाला चार लगा देगा न? लेकिन शंका का परिणाम तो उसे खुद को ही, अकेले को ही ! खुद गड्ढा खोदकर और अंदर उतर जाता है, वापस बाहर नहीं निकल पाता। ये सभी पीड़ाएँ शंका में से उत्पन्न हुई हैं। आपको इस भाई पर शंका हो कि 'इस भाई ने ऐसा किया ।' वह शंका ही आपको काट खाएगी। अब यदि कभी ऐसा किया भी हो और शंका हो जाए, तब भी हमें शंका से कहना है, 'हे शंका, तू चली जा अब । यह तो मेरा भाई है ।' रकम जमा करवाने के बाद शंका ? प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति ने मुझे गाली दी अब ऐसा तो मैं कैसे मान सकता हूँ कि उसने मुझे गाली नहीं दी ? मेरा मन कैसे मानेगा ? दादाश्री : ऐसा कह ही नहीं सकते न ! गाली दी है, वह तो दी ही है न ! उसका सवाल नहीं है लेकिन हम क्या कहते हैं कि उस पर शंका नहीं होनी चाहिए। हमने गाड़ी में किसी को पचास हज़ार रुपये रखने को दिए और कहा कि, 'ज़रा मैं संडास जा रहा हूँ ।' और फिर संडास में शंका हो तो ? अरे,
पाँच लाख रुपये दिए हों और शंका होने लगे न, तब भी शंका से कहना कि, 'अब तू चली जा । मैंने दे दिए, वे दे दिए। वे जाने होंगे तो जाएँगे और रहने होंगे तो रहेंगे!' सामने वाले पर शंका तो बिना बात के दोष बंधवाती है और यदि कभी मुझ जैसे को रुपये दिए हों और वह शंका करे तो उसकी क्या दशा होगी? यानी कि यह जगत् किसी भी जगह पर शंका करने योग्य है ही नहीं । उधार दिया हुआ याद आया और... रात को सोने जाए, ग्यारह बजे हों और ओढ़कर सो जाए और तुरंत विचार आए कि 'अरे वह लाख रुपये लिखवाना तो रह गया । वह लिखकर नहीं देगा तो क्या होगा ?' तो हो चुका ! हो चुका काम ! भाई का ! फिर मुरदा जी रहा हो न, उस तरह रहता है बाद में ! अब किसी को लाख रुपये उधार दिए हों और वह हर महीने हज़ार रुपये ब्याज दे रहा हो, उसको अब दो-तीन लाख रुपयों का नुकसान हो गया, लेकिन उसने ब्याज तो भेजा, इसलिए हमने जाना कि ब्याज तो भेजा है लेकिन जब से हमें शंका पड़ी कि 'इसे नुकसान हुआ है तो शायद कभी यह मूल रकम नहीं देगा, तो क्या करूँगा ? अब लाख रुपये वापस आएँगे या नहीं ?' उस विचार को पकड़ लिया तो फिर उसका कब अंत आएगा ? शंका रहे, तब तक अंत आएगा ही नहीं, यानी कि उस व्यक्ति का मरण होनेवाला है । फिर रात को कभी भी आपको इस बारे में शंका हो कि लाख रुपये नहीं आएँगे तो क्या होगा ? पूरे दिन आपको शंका नहीं हुई और रात को जब शंका हुई तब दुःख होता है और पूरे दिन शंका नहीं हुई थी तब क्या उस घड़ी दुःख नहीं था ? रुपये दे दिए हों, उसके बाद 'वापस देगा या नहीं? " ऐसी शंका उत्पन्न होगी, तो आपको दुःख होगा न? तो शंका इस घड़ी क्यों हुई और पहले क्यों नहीं हुई ? प्रश्नकर्ता : उसका क्या कारण है ? दादाश्री : यह अपनी मूर्खता । यदि शंका करनी हो तो हमेशा शंका करो, इतनी अधिक जाग
ृतिपूर्वक शंका करो, उसे रुपये दो तभी से शंका करो । जहाँ लाख रुपये दिए हों, उस समय ऐसा लगे कि 'पार्टी ठीक नहीं है, ' तब भी शंका उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए । 'अब क्या होगा ?' इसी को कहते हैं वापस शंका होना । क्या होना है आखिर ? यह शरीर भी जाने वाला है और रुपये भी जाने वाले हैं। सभी कुछ चला जाने वाला है न ? ! रोना ही है न अंत में ?! अंत में इसे जला ही देना है न ? ! तो भला पहले से ही मरने का क्या मतलब है ? ! जी न, चैन से ! जब ऐसा होता है तब उस दिन मैं क्या करता हूँ ? 'अंबालालभाई, जमा कर लो, रुपये आ गए !' कह देता हूँ। ऐसा नुकसान उठाने के बजाय चुपचाप रकम जमा कर लेना अच्छा है, सामनेवाला जाने नहीं उस तरह से ! नहीं तो लोगों को तो अगर ज्योतिषी कहे न, तो भी मान लेते हैं । ज्योतिषी कहते हैं, 'देखो, कितने अच्छे ग्रह हैं सभी । आपको कुछ होनेवाला नहीं है । रुपये वापस आ जाएँगे ।' तब फिर वैसा मान लेता है । उसकी खुद की भी स्टेबिलिटी नहीं है । वह ज्योतिषी हमारे बारे में क्या बता सकेगा? उसे उसका खुद का ही देखना नहीं आता, फिर वह हमारा क्या बताएगा?! उसके पैरों में आधे चप्पल हैं, पीछे से थोड़े घिस चुके हैं। फिर भी ऐसे चप्पल पहनता है तो हम नहीं समझ जाएँ कि 'अरे, तुझे तेरा ही ज्योतिष देखना नहीं आता, तो तू मेरा क्या देखनेवाला था?' लेकिन ये तो लालची लोगों को सभी फँसाते हैं । यहाँ के ज्योतिषी तो कहाँ तक पहुँच गए हैं ?! बड़े साहब वगैरह सभी मानते हैं। अरे, मानना चाहिए क्या? ज्योतिषियों को घर में घुसने देना चाहिए ? घर में घुसने दिया तो घर में रोना-धोना मच जाएगा इसलिए उन्हें घुसने ही नहीं देना चाहिए। हाँ, उन्हें कहना कि 'ज्योतिष देखने के लिए नहीं, यों ही आना । मेरे यहाँ आकर ज्योतिष मत देखना किसी का, कपाल मत देखना कि इसकी रेखाएँ ऐसी हैं, जैसा है वैसा रहने देना । हमें इतने दूध की खीर बनानी है उसमें छींटे मत डालना । हाँ, यह तो किसी को पता नहीं चलता कि क्या होना है, तो तुझे किस तरह पता चला ?!' निःशंकता, वहाँ कार्य सिद्धि अतः वहम होने से दुःख पड़ता है। अगर बहीखाते देखने नहीं आएँ तो, होता है साठ लाख का फायदा और दिखाई देता है चालीस लाख का नुकसान। फिर उसे दुःख ही होता रहेगा न, ऐसा है यह जगत् । देखना नहीं आया उसी का यह दुःख है । नहीं तो दुःख है ही नहीं इस जगत् में । यह तो निरी शंका के ही वातावरण में जी रहा है पूरा जगत्, कि 'ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा ।' कुछ भी नहीं होनेवाला । बेकार ही क्यों घबराता है ? सोया रह न, सीधी तरह से । बिना काम के इधरउधर चक्कर लगाता रहता है । तूने खुद अपने आप पर श्रद्धा रखी है वह गलत है सारी, 'हंड्रेड परसेन्ट' ! यानी कि कुछ भी नहीं होनेवाला । लेकिन देखो न घबराहट, घबराहट, तड़फड़ाहट, तरफड़ाहट ! जैसे साथ में ले जानेवाला है न थोड़ा बहुत ? ! यह तो, पूरे दिन 'क्या होगा, क्या होगा ?' इस तरह घबराता रहता है। अरे, क्या होना है ? यह दुनिया कभी भी गिर नहीं गई है । यह दुनिया जब नी
चे गिर जाएगी न, तब भगवान भी नीचे गिर जाएँगे ! दुनिया कभी भी गिरेगी ही नहीं । हम नेपाल की यात्रा में बस लेकर गए थे। तब रास्ते में यू.पी. में रात को बारह बजे एक शहर आया था । कौन सा था वह शहर ? महात्मा : बरेली था वह । दादाश्री : हाँ । तो बरेली वाले सारे फौज़दार, और कहने लगे कि, 'बस रोको ।' मैंने पूछा कि, 'क्या है ?' तब उन्होंने कहा कि, 'अभी आगे नहीं जा सकते। रात को यहीं पर रहो, आगे रास्ते में लुट लेते हैं । पचास मील के एरिया में इस तरफ से, उस तरफ से सभी को रोकते हैं।' तब मैंने कहा कि, 'भले ही लुट जाएँ, हमें तो जाना है।' तब अंत में उन लोगों ने कहा कि, 'तो साथ में दो पुलिसवालों को लेते जाओ।' तब मैंने कहा कि, 'पुलिसवालों को भले ही बैठा दो ।' तब फिर दो पुलिस वाले बंदूक लेकर बैठ गए, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ । ऐसा योग बैठना, वह तो अति - अति मुश्किल है ! और अगर वैसा योग होना होगा तो हज़ारों प्रयत्न करोगे, तब भी तुम्हारे प्रयत्न बेकार हो जाएँगे ! अतः डरना मत, शंका मत करना । जब तक शंका नहीं जाएगी, तब तक कभी भी काम नहीं हो पाएगा । जब तक निः शंकता नहीं आएगी, तब तक इंसान निर्भय नहीं हो सकेगा । जहाँ शंका है, वहाँ भय होता ही है । ऐसी शंका कोई नहीं करता इस मुंबई शहर के हर एक इंसान से पूछकर आओ कि भाई, आपको मरने की शंका होती है क्या ? तब कहेगा, 'नहीं होती ।' क्योंकि उस सोच को ही निकाल दिया होता है, जड़मूल के साथ निकाल दिया होता है। वह जानता है कि 'यों शंका करेंगे तो अभी के अभी मर जाएँगे।' तो उसी प्रकार दूसरी शंकाएँ भी करने जैसी नहीं हैं। दूसरी शंकाएँ अंदर उठें न, तो उन्हें खोदकर निकाल दे न ! निःशंक हो जा न! लेकिन ये लोग तो दूसरी सभी शंकाओं को अंदर सहेजकर रखते हैं लेकिन मरने की शंका को उठने ही नहीं
देते, उठ जाए तब भी उसे खोदकर निकाल देते हैं । समाधान ज्ञानी के पास से और धंधा बैठ जाएगा, ऐसा लगे तो उसकी चिंता करता है, उसके लिए शंका होती रहती है कि, 'धंधा बैठ जाएगा तो क्या होगा ? धंधा बैठ जाएगा तो क्या होगा ?" अरे, शंका मत करना । यह तो कहेगा कि, 'तेज़ी वाले लोग तो हमेशा तेज़ी में ही रहेंगे और मंदी वाले लोग तो हमेशा मंदी में ही रहेंगे। मंदीवाला, कभी भी तेज़ी में नहीं आता और तेज़ीवाला, कभी भी मंदी में नहीं आता। देखो न, 'कैसा आश्चर्य है !' लेकिन नहीं, पॉज़िटिवनेगेटिव दोनों रहते ही हैं, नहीं तो इलेक्ट्रिसिटी उत्पन्न ही नहीं होगी। मोक्ष में जाने का ज्ञान मिला है, इसलिए अब मोक्ष में जाने की सभी तैयारियाँ रखना। शंका-कुशंका हो तो आकर हमें बता देना कि, 'दादाजी, मुझे इस तरह से शंकाएँ होती हैं । ' मैं समाधान कर दूंगा । वर्ना, शंका तो सब से भयंकर चीज़ है । वह भूत जैसी है, डाकण जैसी है। शंका के बजाय तो डाकण का चिपकना अच्छा है, उसे तो कोई उतार देगा लेकिन अगर शंका चिपक गई तो जाएगी ही नहीं । तो शंका ठेठ तक रखो अपना तो यह आत्मज्ञान है ! कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं है । यह तो आपको ग़ज़ब की चीज़ प्राप्त हुई है ! और ये जो सारे भाव आते हैं न, मन के भाव, बुद्धि के भाव, वे सभी भाव सिर्फ भयभीत ही करवाने वाले हैं। एकबार समझ जाना है कि ये सिर्फ भयभीत करने वाले लोग हैं और जब तक बुद्धि का उपयोग होता रहेगा, तब तक वह दखल करती ही रहेगी। आपकी बुद्धि दखल करती है क्या ? प्रश्नकर्ता : कभी-कभी खड़ी हो जाती है, उल्टी खड़ी हो जाती है । दादाश्री : लेकिन वह गलत चीज़ है, उतना तो आप समझ गए हो न ? प्रश्नकर्ताः हाँ, उतना तो समझ में आता है । दादाश्री : वह गलत चीज़ है और ये जो नखरे करती है, वे सब गलत हैं, वह सब समझ में आ गया है न ? वह सही चीज़ नहीं है, ऐसा समझ में आ गया है न ? हाँ, यह सब समझ ले तो आत्मा की तरफ जाने के प्रयत्न होते ही हैं। फिर भी बुद्धि का बहुत ज़ोर हो तो हिल जाते हैं। कभी व्यापार में बड़ा नुकसान हो जाए, तब भी आप घंटों तक बैठे नहीं रहते हैं न? जब वे पर्याय आएँ तब छह-छह घंटों तक बैठे नहीं रहते न ? प्रश्नकर्ता : बैठे रहते हैं न ! कोई ठिकाना नहीं । दादाश्री : बाद में बंद हो जाता है न ? प्रश्नकर्ता : बाद में तो बंद हो जाता है । दादाश्री : जब बंद हो जाता है, उस घड़ी वह नुकसान वसूल हो जाने के बाद वे पर्याय बंद होते हैं या फिर नुकसान अपनी जगह पर वे रहने के बावजूद भी बंद हो जाते हैं ? मान लो हमारा पाँच सौ रुपये का नुकसान हो गया, उसके आधार पर यह शुरू हुआ तो बारह घंटे चला या दो दिन चला, लेकिन कभी न कभी यह बंद होता ही है । तब वह पाँच सौ रुपये जमा होने के बाद बंद होता है या वह नुकसान वैसे का वैसा रहे, तब भी यह बंद हो जाता है ? प्रश्नकर्ता : वह नुकसान तो वैसे का वैसा ही रहता है । दादाश्री : तो हमारा उसे बंद करने का अर्थ क्या है ? जब तक नुकसान की भरपाई नहीं हो जाती, हमें तब तक चलने देना था न ? प्रश्नक
र्ता : लेकिन वह तो अपने आप ही शुरू हो जाता है और अपने आप ही बंद हो जाता है । दादाश्री : जब वह बंद हो जाए तो फिर कहना कि 'अभी तक निकाल नहीं हुआ है तो क्यों बंद हो गया है ? वापस आ ।' ऐसा कहना ! ऐसा है, नुकसान के प्रश्न के बारे में सोचने में हर्ज नहीं है लेकिन जब तक नुकसान की भरपाई नहीं होती, तभी तक सोचते रहें तो काम का है। नहीं तो लट्टू की तरह, नुकसान की भरपाई हुए बगैर यों ही बंद हो जाए तब उसका तो अर्थ ही नहीं है न ! वर्ना पहले से ही बंद रखना अच्छा। वर्ना, लोग तो सभी पर्याय भूल जाते हैं। आगे लिखता जाता और पीछे का भूलता जाता है । हम एक सेकन्ड के लिए भी नहीं भूलते, आज से चालीस साल पहले जो हुआ था, वह भी लेकिन लोग तो भूल जाते हैं न ! कुदरत जबरन भुलवा देती है तब भूलें, इसके बजाय पहले से ही भूल जाना अच्छा । यह तो, याद भी उदयकर्म करवाते हैं और भुलवाते भी वे ही हैं । तब फिर 'हमें ' ज़रा 'उनका' कंधा थपथपाकर कहना चाहिए, "जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है, यह 'व्यवस्थित' में कोई भी बदलाव नहीं होनेवाला । " ' इसलिए यदि नुकसान की चिंता करनी है तो पूरी जिंदगी करना, नहीं तो मत करना । नुकसान की चिंता करनी है तो जब तक फायदा 'एडजस्ट' न हो जाए, तब तक करना लेकिन फिर यदि लट्टू की तरह आप किसी के अधीन रहे और चिंता अपने आप बंद हो जाए, वह कैसा?! फायदा 'एडजस्ट' हुए बगैर ही यदि अपने आप बंद हो जाए और नुकसान की भरपाई हुए बगैर अपने आप ही बंद हो जाए तो फिर आपको पहले से ही बंद नहीं कर देना चाहिए? यह तो नुकसान खत्म हुए बगैर ही बंद हो जाता है न ? ? दादाश्री : तो आप उससे कह देना कि, 'क्यों बंद हो गया? तो फिर तू शुरू ही किसलिए हुआ था ? और शुरू हुआ तो ठेठ तक, नुकसान पूरा होने तक चलने दो।' नहीं तो शंका मत रखना ह
म 'ज्ञान' होने के पहले से ही एक बात समझ गए थे । हमें एक जगह पर शंका हुई थी कि, 'यह व्यक्ति ऐसा करेगा, धोखाधड़ी करेगा ।' इसलिए फिर हमने तय किया कि शंका करनी हो तो पूरी जिंदगी करनी है, वर्ना शंका करनी ही नहीं है । शंका करनी है तो ठेठ तक करनी है क्योंकि उसे भगवान ने जागृति कहा है । यदि करने के बाद शंका बंद हो जानी है तो करना ही मत । हम काशी जाने के लिए निकले और मथुरा से वापस आ जाएँ, उसके बजाय निकले ही नहीं होते तो अच्छा था। यानी हमें उस व्यक्ति पर शंका हुई थी कि यह व्यक्ति ऐसा है । उसके बाद से, हमें शंका होने के बाद से, हम शंका रखते ही नहीं हैं । वर्ना उसके बाद से उसके साथ व्यवहार ही नहीं रखते। बाद में फिर धोखा नहीं खाते। यदि शंका रखनी हो तो पूरी जिंदगी व्यवहार ही नहीं करते । सावधान रहो, लेकिन शंका नहीं प्रश्नकर्ता : जिस प्रकार, जब गाड़ी चलाते हैं न, उस समय हमें सामने जागृति तो रखनी ही पड़ती है न ? इसी प्रकार हमारा जीवन व्यवहार चलाते समय हमें हमेशा जागृति तो रखनी ही पड़ेगी न, कि 'ऐसा करूँगा तो यह आदमी खा जाएगा ?' ऐसा तो हमें ध्यान में रखना ही पड़ेगा न ? दादाश्री : वह तो रखना पड़ेगा लेकिन शंका नहीं करनी है और ऐसी जागृति रखने की भी ज़रूरत नहीं है कि 'यह खा जाएगा' । सिर्फ हमें सावधान रहना चाहिए । इसे जागृति कह सकते हो, लेकिन शंका नहीं करनी है । 'ऐसा होगा तो क्या होगा, शायद अगर ऐसा होगा तो क्या होगा?' ऐसी शंकाएँ नहीं करनी चाहिए । शंकाएँ तो बहुत नुकसानदायक ! शंका तो उत्पन्न होते ही दुःख देती है ! प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि किसी काम में ऐसे 'प्रोब्लम्स' आने लगें तब सामने वाले व्यक्ति पर हमें शंका होती है, और उस वजह से हमें दुःख रहा करता है । दादाश्री : हाँ, वह निराधार शंकाएँ हैं । शंका में दो चीजें होती हैं । एक तो, प्रत्यक्ष दुःख होता है। दूसरा, उस पर शंका की, उसके बदले में गुनाह लागू होता है, कलम चार सौ अड़तीस लागू हो गई । प्रश्नकर्ताः लेकिन हमें कोई भी काम करना हो या रास्ते पर पुल बनाना हो तो उसके 'सेफ्टी फैक्टर' तो ध्यान में लेने पड़ेंगे न ? नहीं लेंगे तो पुल गिर जाएगा । वहाँ पर अगर अजागृति रखकर पुल बना दें, तो ऐसा तो चलेगा ही नहीं न ! दादाश्री : वह ठीक है। सभी 'सेफ्टी फैक्टर' रखने चाहिए, लेकिन उसके बाद सेटिंग करते समय फिर से शंका नहीं होनी चाहिए । शंका खड़ी हुई कि दुःख खड़ा होगा । प्रश्नकर्ता : लेकिन कोई भी काम करते हुए कोई व्यक्ति उसमें गलत नहीं करे, उसके बारे में सोचना तो पड़ेगा न ? दादाश्री : हाँ, सोचने की सारी छूट है ही ! शंका करने की छूट नहीं है। जितना सोचना हो उतना सोच, पूरी रात सोचना हो तब भी सोच, लेकिन शंका मत करना क्योंकि उसका 'एन्ड' ही नहीं आएगा । शंका 'एन्डलेस' चीज़ है । विचारों का 'एन्ड' (अंत) आएगा। मन थक जाता है न! क्योंकि बहुत सोचने से मन हमेशा थक जाता है इसलिए फिर वह अपने आप ही बंद हो जाता है । लेकिन शंका नहीं थकती । शंका तो ऐसी आती है,
वैसी आती है इसलिए तू शंका मत रखना । इस जगत् में शंका करने जैसा अन्य कोई दुःख है ही नहीं। शंका करने से तो पहले खुद का ही बिगड़ता है, उसके बाद सामने वाले का बिगड़ता है। हमने तो पहले से ही ये खोज कर ली है कि शंका से अपना खुद का ही बिगड़ता है। सबकुछ जाने, फिर भी शंका नहीं इसलिए हमने कभी भी किसी पर शंका नहीं की है। हम बारीकी से जाँच करते हैं, लेकिन शंका नहीं रखते । जो शंका रखता है, वह मार खाता है। जानते ज़रूर हैं, लेकिन शंका नहीं रखते । ज़रा सी भी शंका नहीं रखते! एक ज़रा सी भी शंका, किसी के लिए मुझे नहीं हुई है । जानते सभी कुछ है, एक अक्षर भी हमारी जानकारी से बाहर नहीं होता । यह इतने पानी में है, यह इतने पानी में, कोई इतने पानी में है, कोई इतने पानी में है, सबकुछ जानते हैं। किसी ने नीचे से पैर ऊँचे किए हैं, कोई मुँह बिगाड़ रहा है। अंदर पैर ऊपर किए हैं, वह भी दिखाई देता है मुझे लेकिन शंका नहीं करते हम । शंका से क्या फायदा होता है ? प्रश्नकर्ता : नुकसान होता है । दादाश्री : क्या नुकसान होता है ? प्रश्नकर्ता : खुद को ही नुकसान होता है न! दादाश्री : नहीं, लेकिन सुख कितना देती है ? शंका पैठी तब से जैसे भूत लिपटा । 'ये ही ले गया या इसी ने ऐसा किया ।' उससे पैठी शंका ! उसका भूत लग गया आपको । सामने वाले का तो जो होना होगा वह होगा, लेकिन आपको भूत लग गया। ये 'दादा' इतने सतर्क हैं कि किसी पर ज़रा सी भी शंका नहीं करते। जानते सभी कुछ हैं, लेकिन फिर शंका नहीं करते । 'कहने वाला' और 'करने वाला, ' दोनों अलग संसार में किसी भी प्रकार की शंका करना गुनाह है। शंका करने से काम नहीं होता। ये 'ज्ञान' प्राप्त हुआ है, तो अब निःशंक मन से काम करते जाओ न! खुद की अक्ल लगाने गए तो बिगड़ेगा और सहज छोड़ दोगे तो का
म हो जाएगा। इसी तरह काम करते रहने के बजाय अगर सहज छोड़ दोगे तो काम अच्छा होगा । जहाँ थोड़ी सी भी शंका रहे वहाँ किसी भी प्रकार का कार्य नहीं हो पाता । प्रश्नकर्ता : फिर भी कोई भी कार्य करने में शंका-कुशंका होती रहती है, तो क्या करना चाहिए ? दादाश्री : वह झंझट वाला ही है न ! वह ज़रा मुश्किल में डाल प्रश्नकर्ता : तब क्या करूँ फिर ? दादाश्री : करना क्या है ? 'आपको' 'चंदूभाई' से कहना है कि, 'शंका-कुशंका मत करना । जो आए वह करना है ।' बस, इतना ही । 'वह' शंका-कुशंका करे तो उसे कहने वाले 'आप' हैं न, साथ के साथ । पहले तो कोई कहने वाला था ही नहीं, इसलिए उलझन में रहते थे। अब तो वह, कहने वाला है न! वहाँ शूरवीरता होनी चाहिए जहाँ शंका हो वह काम ही शुरू मत करना । जहाँ हमें शंका हो न, वह काम करना ही नहीं चाहिए या फिर वह काम हमें छोड़ देना चाहिए। जहाँ शंका उत्पन्न हो, ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए । संघ यहाँ से अहमदाबाद जाने के लिए निकला, चलने लगा । अंदर कुछ लोग कहेंगे, 'अरे, शायद बरसात हो जाए तो वापस पहुँच पाएँगे या नहीं, इसके बजाय वापस लौट चलो न !' ऐसी शंका वाले हों तो क्या करना पड़ेगा? ऐसे दो-तीन लोग हों तो वहाँ से निकाल देने पड़ेंगे। वर्ना पूरी टोली बिगड़ जाएगी । अतः जब तक शंका होती रहे न, तब तक कुछ भी ठीक से नहीं हो सकता। उससे कोई भी काम नहीं हो सकता । बहुत प्रयत्न करे, बहुत पुरुषार्थ करने से अगर वह बदल जाए तो सुधर सकता है। बदल जाए तो अच्छा । सभी खुश होंगे न ! जिसमें शूरवीरता हो, वह अगर कभी फेंकने लगे तो सबकुछ फेंककर चलता बनता है और वह जैसा चाहे वैसा काम कर सकता है । इसलिए शूरवीरता रखनी चाहिए कि 'मुझे कुछ भी नहीं होगा।' अपने को ज़हर खाना होगा तभी खाएँगे और अगर नहीं खाना हो तो कौन खिला सकता है ? हमें कहे, 'अभी गाड़ी टकरा जाएगी तो ?' ड्राइवर यदि ऐसा कहे तो हमें कहना चाहिए, 'रहने दे, तेरी ड्राइविंग बंद कर । उतर जा । बहुत हो चुका।' यानी ऐसे व्यक्ति को छूने भी नहीं देना चाहिए ? शंका वाले के साथ तो खड़े भी नहीं रहना चाहिए । अपना मन बिगड़ जाता है। शंका क्यों आनी चाहिए ? साफ-साफ होना चाहिए । विचार तो कैसे भी आएँ लेकिन हम 'पुरुष' हुए हैं न ? 'पुरुष' नहीं हुआ तो इंसान मर जाएगा। पुरुष हो जाने के बाद कहीं पुरुषार्थ में शंका होती होगी ? पुरुष होने के बाद फिर भय कैसा ? स्वपुरुषार्थ और स्वपराक्रम उत्पन्न हुए हैं । फिर भय कैसा ? प्रश्नकर्ता : शूरवीरता रखनी पड़ती है या अपने आप रहती है ? दादाश्री : रखनी पड़ती है। हम यदि ऐसा नहीं सोचें कि 'गाड़ी का एक्सिडन्ट होगा' तब भी यदि वह होना होगा तो छोड़ेगा क्या? और जो सोचता है, उसे? उसका भी होगा। लेकिन जो सोचे बगैर बैठता है, वह शूरवीर कहलाता है। उसे लगती भी कम है, बिल्कुल कम चोट लगती है और बच जाता है। गाड़ी में बैठने के बाद ऐसी शंका होती है 'परसों ट्रेन टकरा गई थी, तो आज भी टकरा जाएगी तो क्या होगा ? ' ऐसी शंका क्यों नहीं होती ? अतः जो काम करना है, उस
में शंका मत रखना और अगर आपको शंका हो तो वह काम मत करना। 'आइदर दिस ऑर देट !' ऐसा तो कहीं होता होगा? जो ऐसी बात करे उसे तो उठाकर कहना कि, 'घर जा । यहाँ पर नहीं ।' शूरवीरता की बात होनी चाहिए। हमें घर जाना हो और कोई एक व्यक्ति ऐसा कहता रहे, 'घर जाते हुए कहीं टक्कर हो जाएगी तो क्या होगा? या फिर एक्सिडन्ट हो जाएगा तो क्या होगा ?' तो सब के मन कैसे हो जाएँगे ? ! ऐसी बातों को घुसने ही नहीं देना चाहिए । शंका तो होती होगी ? समुद्र किनारे घूम रहे हों और कोई कहे, 'अभी लहर आए और खींचकर ले जाए तो क्या होगा ? " किसी ने बात की हो कि, 'ऐसे लहर आई और खींचकर ले गई ।' तब हमें शंका होने लगे तो क्या होगा ? यानी ये 'फूलिशनेस' की बातें हैं । 'फूल्स पेरेडाइज़ !' यानी जो काम करना हो उसमें शंका नहीं और शंका होने लगे तो करना मत । 'मुझसे यह काम हो पाएगा या नहीं होगा' ऐसी शंका हो तभी से काम नहीं हो पाता । शंका रहती है, वह तो बुद्धि का तूफान है। और ऐसा कुछ भी होता नहीं है। जिसे शंका होती है न, उसे सभी झंझट खड़े होते हैं । कर्म राजा का नियम ऐसा है कि जिसे शंका होती है, वहीं पर वे जाते हैं ! और जो ध्यान नहीं देते, उनके वहाँ तो वे खड़े भी नहीं रहते। इसलिए मन मज़बूत रखना चाहिए । यह प्रिकॉशन है या दखल ? शंका तो दुःख भी बहुत देती है, भयंकर दुःख देती है । वह शंका कब निकलेगी ?! कई बार हज़ार - दो हज़ार के ज़ेवर, घड़ी वगैरह किसी ने रास्ते में मारकर सब लूट लिया हो, तब फिर यदि कपड़े, घड़ी, ज़ेवर वगैरह पहनकर फिर से बाहर जाना हो तो उस घड़ी शंका उत्पन्न होती है कि अगर आज (लुटेरा) मिल जाएगा तो ? अब न्याय क्या कहता है ? यदि उसे मिलना होगा तो उससे बच नहीं पाएगा, फिर तू क्यों बिना बात के शंका करता है ?! प्रश्नकर्ताः वह शंका उ
त्पन्न हुई, अब वहाँ पर उसके लिए कोई 'प्रिकॉशन' वगैरह लेने की कोई ज़रूरत नहीं रहती ? दादाश्री : 'प्रिकॉशन' लेने से ही बिगड़ता है न ! अज्ञानी के लिए ठीक है। यदि इस किनारे पर आना हो तो इस किनारे का सबकुछ एक्ज़ेक्ट करो । उस किनारे पर रहना हो तो उस किनारे का एक्ज़ेक्ट रखो। यदि शंका करनी हो तो उस किनारे पर रहो । बीच रास्ते में रहने का कोई अर्थ ही नहीं है न ! प्रश्नकर्ता : लेकिन कोई 'डेन्जर सिग्नल' आए तब उसमें शंका न रखें, लेकिन उसके लिए सहज भाव से 'प्रिकॉशन' लेने चाहिए न ? दादाश्री : 'प्रिकॉशन' आपसे लिया ही नहीं जा सकता । 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति ही नहीं है । वह शक्ति है ही नहीं, उसे 'एडोप्ट' करने का क्या अर्थ है ? प्रश्नकर्ता : हमारे में 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति है ही नहीं ? दादाश्री : बिल्कुल भी शक्ति नहीं है । जो शक्ति नहीं है, उसे यों ही मान लेना, वह काम का नहीं है न ! यह तो, 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति नहीं है और करने की भी शक्ति नहीं है और 'प्रिकॉशन' 'चंदूभाई' ले ही लेते हैं। आप बिना बात के दख़ल करते हो । करता है कोई दूसरा और आप सिर पर ले लेते हो और इसीलिए बिगड़ता है । प्रश्नकर्ता : यानी चंदूभाई 'प्रिकॉशन' ले, तो उसमें हर्ज नहीं दादाश्री : वह लेता ही है । वह तो लेता ही है, हमेशा ही लेता है । बातें करते-करते कोई व्यक्ति चल रहा हो, यानी कि वह असावधानी से चल रहा होता है लेकिन यदि एकदम से ऐसे साँप जाता हुआ दिख जाए, तो एकदम से कूद जाता है वह। वह कौन सी शक्ति से कूदता है? कौन कुदाता होगा? ऐसा होता है या नहीं होता ? इतनी अधिक साहजिकता है इस देह में । इन 'चंदूभाई' में इतनी अधिक साहजिकता है कि ऐसे देखते ही कूद पड़ते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसी साहजिकता हमारे काम-धंधे में और व्यवहार में नहीं आती। दादाश्री : वह तो इसलिए कि दखल करते हो । और यदि शंका करो तो हर प्रकार से करनी चाहिए, कि 'भाई, कल मर जाएँगे तो क्या होगा ?' कोई मरता नहीं है ? प्रश्नकर्ता : मरते हैं न ! दादाश्री : तब फिर ! इसलिए यदि शंका करो तो हर प्रकार की करना । यह एक ही प्रकार की क्यों करनी ? वर्ना कौन सी शंका नहीं होगी, ऐसा है यह जगत् ! किस बारे में शंका नहीं होगी ?! यहाँ से घर पहुँच गए तभी सही है। उसमें क्यों शंका नहीं होती ? शंका होनी ही नहीं चाहिए । यानी शंका से कहना चाहिए, 'चली जा । मैं निःशंक आत्मा हूँ ।' आत्मा को क्या शंका भला ? ! बीज में से.... जंगल मैं क्या कह रहा हूँ कि शंका, वह तो भूत है । उस डायन को चिपटाना हो तो चिपटाना, अपने को डायन पसंद हो तो चिपटाना लेकिन यदि शंका होने लगे तो उसे क्या कहना चाहिए ? कि 'दादा के फॉलोअर बने हो और अब किस चीज़ की शंका रखते हो? आपको शर्म नहीं आती ? दादा किसी पर शंका नहीं रखते, तो आप क्यों शंका रखते हो ? वह बंद कर दो । दादा इस उम्र में शंका नहीं रखते हैं, फिर आप तो जवान हो।' ऐसा कहेंगे तो शंका बंद हो जाएगी । हमने जिंदगी में शंका का नाम तक निकाल दिया है। हमें किसी प
र भी शंका आती ही नहीं । वह सेफसाइड है या नहीं ? प्रश्नकर्ता : बहुत बड़ी 'सेफसाइड ।' दादाश्री : शंका का नाम तक नहीं । जेब में से रुपये निकालते हुए देख लिया हो तो भी उस पर शंका नहीं और दूसरे भयंकर गुनाह किए हों तो भी शंका - वंका, राम तेरी माया ! जानते ज़रूर हैं, जानकारी में होता है। हमारे ज्ञान में होता है कि 'दिस इज़ दिस, दिस इज़ देट । ' लेकिन शंका नहीं । शंका वह तो भयंकर दुःखदाई है और उससे नये प्रकार का संसार उत्पन्न हो जाता है, ऐसा है । बबूल का बीज हो न, तब तो सिर्फ बबूल ही उगता है और एक बड़ का बीज हो न, तो उसमें से सिर्फ बड़ ही उगता है लेकिन शंका नाम का बीज ऐसा है कि इस बीज से तो सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । एक ही बीज में से सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उग जाती हैं, उस बीज को रखा ही कैसे जाए ? यह शंका नाम का बीज, उसे सिर्फ हम निकाल चुके हैं लेकिन आपको तो सहज रूप से कभी शंका हो जाती है । नहीं ? इसलिए हमारे जैसा रखना । शंका निकाल देना । चाहे किसी भी बारे में हो, नज़रों से देखी हुई बात हो न, तब भी शंका नहीं । जान लेना है, जान ज़रूर लेना। जानने में पाप नहीं है । आँखों से देखा हुआ भी गलत निकलता है। मेरे साथ कितनी ही ऐसी घटनाएँ हुई हैं ! इन आँखों से देखता हूँ, फिर भी गलत निकलता है। ऐसे उदाहरण 'एक्ज़ेक्ट' मेरे अनुभव में आए हैं तो और कौन सी चीज़ को सही मानें हम लोग ? अतः देखने के बाद भी शंका नहीं करनी चाहिए। जानकारी में रखना । हमारी यह खोज बहुत गहरी है । यह तो जब बात निकलती है तब खुद है। के अनुभव में पता चलता है और दुनिया में कहीं ये सारी शंकाएँ निकल नहीं चुकी हैं । शंका निकलना, वह तो 'ज्ञानीपुरुष' खुद, खुद की ही शंकाएँ निकालने के बाद दूसरों की भी सारी शंकाएँ निका
ल देते हैं । वर्ना और कोई निकाल नहीं सकता । इंसान से खुद से शंका नहीं निकाली जा सकती । वह तो बड़े से बड़ा भूत है । वह तो डायन कहलाती है। आप इस तरफ गए हों और वहाँ से कोई व्यक्ति आ रहा हो, वह व्यक्ति किसी स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर चल रहा हो और आपकी नज़र पड़े तो क्या होगा आपको? उसने हाथ किसलिए रखा वह तो वही बेचारा जाने, लेकिन आपको क्या होगा? और वह शंका घुसने के बाद, कितने सारे बीज उग जाते हैं फिर ! बबूल, नीम, आम, अंदर तूफान ! यह शंका तो डायन से भी अधिक खराब चीज़ है। डायन का चिपटना तो अच्छा है कि ओझा निकाल देता है लेकिन इस शंका को कौन निकाले? हम निकाल देते हैं आपकी शंकाएँ ! बाकी, शंका कोई नहीं निकाल सकता। प्रश्नकर्ता : पिछला याद करने से शंका होती है । दादाश्री : उसे याद ही नहीं करना है। बीता हुआ भूल जाना। बीती हुई तिथि तो ब्राह्मण भी नहीं देखते । ब्राह्मण से कहे, 'हमारी बेटी पंद्रह दिन पहले विधवा हो गई थी या नहीं?' तो ब्राह्मण कहेगा, 'ऐसा कोई पूछता होगा क्या? जिस दिन वह विधवा हुई थी, वह तिथी तो गई । ' प्रश्नकर्ता : लेकिन कभी-कभी शंका हो जाती है । दादाश्री : भले ही हो, लेकिन कितने सारे पेड़ उग निकलते हैं फिर ! बीज एक और सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उग निकलती हैं ! प्रश्नकर्ता : पूरा वन बन जाता है । दादाश्री : हाँ, पूरा वन बन जाता है। बाग में से जंगल बन जाता है । इन 'दादा' ने महामुश्किल से बगीचा बनाया होता है, उसमें फिर जंगल बन जाता है । इतना बड़ा बगीचा, वापस जंगल बन जाता है ? अरे, उस गुलाब को रोपते- रोपते तो 'दादा' का दम निकल गया । देखो, जंगल मत बना देना ! जंगल मत बनने देना । अब नहीं बनने दोगे न ? ! प्रश्नकर्ता : शंका तो बिल्कुल पसंद ही नहीं है, दादा लेकिन निकाल नहीं होता, इसलिए फिर 'पेन्डिंग' रहा करता है । दादाश्री : वापस 'पेन्डिंग' पड़ा रहता है ? ! हल नहीं कर देते ?! 'ए स्क्वेर, बी स्क्वेर, ' ऐसा वह 'एलजेब्रा' में केन्सल कर देते हो न, उस तरह से ? जिसे 'एलजेब्रा' आता है न, उसे यह सब आता है । शंका से आपको सभी परेशानियाँ खड़ी होती हैं, तब फिर नींद में विघ्न डालती है कभी ? प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं है लेकिन अगर निकाल नहीं होता है तो वापस आती है । दादाश्री : अब क्या करोगे? सेक दो न! तो फिर उगे नहीं। जो बीज सेककर रख दिए, वे फिर उगेंगे नहीं । उगेंगे तब परेशानी है न ? ! इसलिए आपको ऐसा कहना चाहिए कि, 'दादा' के 'फॉलोअर्स' होकर भी ऐसा करने में आपको शर्म नहीं आती? वर्ना कहना, 'दो तमाचे मार दूँगा । शंका क्या कर रहा है ?' ऐसे डाँटना । दूसरे डाँटें उसके बजाय 'आप' डाँटो तो क्या बुरा है ? कौन डाँटे तो अच्छा? अपने आपको ही डाँटे तो अच्छा, लोगों की मार खाने के बजाय ! प्रश्नकर्ता : यह तो, मार खाता है तब भी नहीं जाती । दादाश्री : हाँ, मार खाने पर भी नहीं जाती इसलिए यह बात निकली । शंका जाने वाली हो, तब बात निकलती है । नहीं तो बात नहीं निकलती। काम सारा पद्धतिपूर्वक करो, लेकिन शंका मत कर
ना । इस 'रेल्वे' के सामने ज़रा सी भी भूल करे, निमंत्रण दें, तो क्या होगा ? प्रश्नकर्ता : कट जाएगा। दादाश्री : वहाँ कितना समझकर रहता है ?! किसलिए समझदारी से रहते हैं लोग? क्योंकि वह तुरंत फल देता है इसलिए जबकि इस शंका का फल देर से मिलता है। उसका फल क्या आएगा, वह आज दिखाई नहीं देता इसलिए इस प्रकार निमंत्रित करते हैं । शंका को निमंत्रण देना, वह क्या कोई ऐसी-वैसी बात है ? ! प्रश्नकर्ता : आगे के लिए फिर से बीज डलता है न, दादा ? दादाश्री : अरे, बीज की कहाँ बात कर रहे हो ? ! आज की शंका के निमंत्रण से तो, पूरे जगत् की बस्ती खड़ी हो जाती है ! शंका तो ठेठ 'ज्ञानीपुरुष' तक का उल्टा दिखा देती है । यह शंका, डायन घुस गई तो फिर क्या नहीं दिखाएगी ? प्रश्नकर्ता : सबकुछ दिखाएगी । दादाश्री : 'दादा' का भी उल्टा दिखाएगी । इन 'दादा' पर तो एक भी शंका की न, तो अधोगति में चला जाएगा । एक भी शंका करने जैसे नहीं हैं ये 'दादा!' 'वर्ल्ड' में ऐसा निःशंक पुरुष कहीं होता ही नहीं है । प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि शंका हो जाती है, कोई करता नहीं दादाश्री : वह चीज़ अलग है । किसलिए होती है, वह बात अलग है लेकिन इन 'दादा' पर शंका नहीं करनी चाहिए । हो जाए तो उसका उपाय करना चहिए। उपाय दिया हुआ है मैंने । मैं यह कहता हूँ न, कि शंका तो हो सकती है लेकिन उसका उपाय करना चाहिए कि 'दादा से
डॉक्टर जयपाल ने प्रथम श्रेणी की सनद पायी थी, पर इसे भाग्य ही कहिए या व्यावसायिक सिद्धान्तों का अज्ञान कि उन्हें अपने व्यवसाय में कभी उन्नत अवस्था न मिली। उनका घर सँकरी गली में था; पर उनके जी में खुली जगह में घर लेने का विचार तक न उठा। औषधालय की आलमारियाँ, शीशियाँ और डाक्टरी यंत्र आदि भी साफ-सुथरे न थे। मितव्ययिता के सिद्धांत का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे। लड़का जवान हो गया था, पर अभी उसकी शिक्षा का प्रश्न सामने न आया था। सोचते थे कि इतने दिनों तक पुस्तकों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी सम्पत्ति पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ। उनकी पत्नी अहल्या धैर्यवान महिला थी, पर डॉक्टर साहब ने उसके इन गुणों पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गयी थी। माँ भी जीवित थी, पर गंगास्नान के लिए तरस-तरस कर रह जाती थी; दूसरे पवित्र स्थानों की यात्र की चर्चा ही क्या ! इस क्रूर मितव्ययिता का परिणाम यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था। अगर कोई मद फुटकल थी तो वह बुढ़िया महरी जगिया थी। उसने डॉक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्रेम हो गया था कि सब प्रकार की कठिनाइयाँ झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी। डॉक्टर साहब डाक्टरी आय की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने उनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय। डॉक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धांत से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर यहाँ कदाचित् ही आते थे। यद्यपि डॉक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। विश्वास न हुआ। थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। विक्षिप्त अधीरता के साथ बक्स के दूसरे खानों को टटोला परंतु व्यर्थ। निराश होकर एक कुरसी पर बैठ गये और स्मरण-शक्ति को एकत्र करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंन
े पचीस-पचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, स्मरण-शक्ति मुझे धोखा नहीं दे रही है। सब मुझे ठीक-ठीक याद है। बक्स का ताला भी बंद कर दिया था, किंतु ओह, अब समझ में आ गया, कुंजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, कुंजी जेब में डालने की याद नहीं रही, परंतु ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे। घर में धरे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया। अवश्य यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हों। इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे ... हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ ? व्यर्थ बैठे-बिठाये उलझन मोल लेनी है। टोले भर के आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं ! तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ ? कैसे धीरज धरूँ ! यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो समझता कि जैसे आयी, वैसे गयी। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है। मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काट-छाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ ? मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचिकर हैं, न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर
और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ। पर इस मन मारने का यह फल ! गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ। अन्याय है कि मैं यों दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेढ़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, आनंद मनाया जा रहा होगा, सब-के-सब बगलें बजा रहे होंगे। डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये। मैंने कभी किसी फकीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया। अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसीलिए ? उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सुई से उसके जीवन का अंत कर देता। किन्तु कोई उपाय नहीं है। जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर। गुप्त पुलिसवाले भी बस नाम ही के हैं, पता लगाने की योग्यता नहीं। इनकी सारी अक्ल राजनीतिक व्याख्यानों और झूठी रिपोर्टों के लिखने में समाप्त हो जाती है। किसी मेस्मेरिजम जानने वाले के पास चलूँ, वह इस उलझन को सुलझा सकता है। सुनता हूँ, यूरोप और अमेरिका में बहुधा चोरियों का पता इसी उपाय से लग जाता है। पर यहाँ ऐसा मेस्मेरिजम का पंडित कौन है और फिर मेस्मेरिजम के उत्तर सदा विश्वसनीय नहीं होते। ज्योतिषियों के समान वे भी अनुमान और अटकल के अनंत सागर में डुबकियाँ लगाने लगते हैं। कुछ लोग नाम भी तो निकालते हैं। मैंने कभी उन कहानियों पर विश्वास नहीं किया, परन्तु कुछ न कुछ इसमें तत्त्व है अवश्य, नहीं तो इस प्रकृति-उपासना के युग में इनका अस्तित्व ही न रहता। आजकल के विद्वान् भी तो आत्मिक बल का लोहा मानते जाते हैं, पर मान लो किसी ने नाम बतला ही दिया तो मेरे हाथ में बदला चुकाने का कौन-सा उपाय है, अंतर्ज्ञान साक्षी का काम नहीं दे सकता। एक क्षण के लिए मेरे जी को शांति मिल जाने के सिवाय और इनसे क्या लाभ है ? हाँ, खूब याद आया। नदी की ओर जाते हुए वह जो एक ओझा बैठता है, उसके करतब की कहानियाँ प्रायः सुनने में आती हैं। सुनता हूँ, गये हुए धन का पता बतला देता है, रोगियों को बात की बात में चंगा कर देता है, चोरी के माल का पता लगा देता है, मूठ चलाता है। मूठ की बड़ी बड़ाई सुनी है, मूठ चली और चोर के मुँह से रक्त जारी हुआ, जब तक वह माल न लौटा दे रक्त बन्द नहीं होता। यह निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय ! मुँहमाँगा फल पाऊँगा। रुपये भी मिल जायँ, चोर को शिक्षा भी मिल जाय ! उसके यहाँ सदा लोगों की भीड़ लगी रहती है। इसमें कुछ करतब न होता तो इतने लोग क्यों जमा होते ? उसकी मुखाकृति से एक प्रतिभा बरसती है। आजकल के शिक्षित लोगों को तो इन बातों पर विश्वास नहीं है, पर नीच और मूर्ख-मंडली में उसकी बहुत चर्चा है। भूत-प्रेत आदि की कहानियाँ प्रतिदिन ही सुना करता हूँ। क्यों न उसी ओझे के पास चलूँ ? मान लो कोई लाभ न हुआ तो हानि ह
ी क्या हो जायगी। जहाँ पाँच सौ गये हैं, दो-चार रुपये का खून और सही। यह समय भी अच्छा है। भीड़ कम होगी, चलना चाहिए। जी में यह निश्चय करके डॉक्टर साहब उस ओझे के घर की ओर चले, जाड़े की रात थी। नौ बज गये थे। रास्ता लगभग बन्द हो गया था। कभी-कभी घरों से रामायण की ध्वनि कानों में आ जाती थी। कुछ देर के बाद बिलकुल सन्नाटा हो गया। रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे। सियारों का हुँआना सुन पड़ने लगा। जान पड़ता है इनका दल कहीं पास ही है। डॉक्टर साहब को प्रायः दूर से इनका सुरीला स्वर सुनने का सौभाग्य हुआ था। पास से सुनने का नहीं। इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुन कर उन्हें डर लगा। कई बार अपनी छड़ी धरती पर पटकी, पैर धमधमाये। सियार बड़े डरपोक होते हैं, आदमी के पास नहीं आते; पर फिर संदेह हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हो तो उसका काटा तो बचता ही नहीं। यह संदेह होते ही कीटाणु, बैक्टिरिया, पास्टयार इन्स्टिच्यूट और कसौली की याद उनके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगी। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाये चले जाते थे। एकाएक जी में विचार उठा कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो। वे तत्काल ठिठक गये, पर एक ही क्षण में उन्होंने इसका भी निर्णय कर लिया, क्या हर्ज है घरवालों को तो और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। चोर की मेरे साथ सहानुभूति नहीं हो सकती, पर घरवालों की सहानुभूति का मैं अधिकारी हूँ। उन्हें जानना चाहिए कि मैं जो कुछ करता हूँ उन्हीं के लिए करता हूँ। रात-दिन मरता हूँ तो उन्हीं के लिए मरता हूँ। यदि इस पर भी वे मुझे यों धोखा देने के लिए तैयार हों तो उनसे अधिक कृतघ्न, उनसे अधिक अकृतज्ञ, उनसे अधिक निर्दय और कौन होगा ? उन्हें और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। इतना कड़ा, इतना शिक्षाप्रद कि फिर कभी किसी को
ऐसा करने का साहस न हो। अंत में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे। लोगों की भीड़ न थी। उन्हें बड़ा संतोष हुआ। हाँ, उनकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी। फिर जी में सोचा, कहीं यह सब ढकोसला ही ढकोसला हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। जो सुने, मूर्ख बनाये। कदाचित् ओझा ही मुझे तुच्छबुद्धि समझे। पर अब तो आ गया, यह तजरबा भी हो जाय। और कुछ न होगा तो जाँच ही सही। ओझा का नाम बुद्धू था। लोग चौधरी कहते थे। जाति का चमार था। छोटा-सा घर और वह भी गन्दा। छप्पर इतनी नीची थी कि झुकने पर भी सिर में टक्कर लगने का डर लगता था। दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था। उसके नीचे एक चौरा। नीम के पेड़ पर एक झंडी लहराती थी। चौरा पर मिट्टी के सैकड़ों हाथी सिंदूर से रँगे हुए खड़े थे। कई लोहे के नोकदार त्रिशूल भी गड़े थे, जो मानो इन मंदगति हाथियों के लिए अंकुश का काम दे रहे थे। दस बजे थे। बुद्धू चौधरी जो एक काले रंग का तोंदीला और रोबदार आदमी था, एक फटे हुए टाट पर बैठा नारियल पी रहा था। बोतल और गिलास भी सामने रखे हुए। बुद्धू ने डॉक्टर साहब को देख कर तुरंत बोतल छिपा दी और नीचे उतर कर सलाम किया। घर से एक बुढ़िया ने मोढ़ा ला कर उनके लिए रख दिया। डॉक्टर साहब ने कुछ झेंपते हुए सारी घटना कह सुनायी। बुद्धू ने कहा हुजूर, यह कौन बड़ा काम है। अभी इसी इतवार को दारोगाजी की घड़ी चोरी गयी थी, बहुत कुछ तहकीकात की, पता न चला। मुझे बुलाया। मैंने बात की बात में पता लगा दिया। पाँच रुपये इनाम दिये। कल की बात है, जमादार साहब की घोड़ी खो गयी थी। चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। मैंने ऐसा पता बता दिया कि घोड़ी चरती हुई मिल गयी। इसी विद्या की बदौलत हुजूर हुक्काम सभी मानते हैं। डॉक्टर को दारोगा और जमादार की चर्चा न रुची। इन सब गँवारों की आँखों में जो कुछ है, वह दारोगा और जमादार ही हैं। बोले मैं केवल चोरी का पता लगाना नहीं चाहता, मैं चोर को सजा देना चाहता हूँ। बुद्धू ने एक क्षण के लिए आँखें बंद कीं, जमुहाइयाँ लीं, चुटकियाँ बजायीं और फिर कहा यह घर ही के किसी आदमी का काम है। डॉक्टर कुछ परवाह नहीं, कोई हो। बुढ़िया पीछे से कोई बात बने या बिगड़ेगी तो हजूर हमीं को बुरा कहेंगे। डॉक्टर इसकी तुम कुछ चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है ! बल्कि अगर घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ। बाहर का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य है, पर घर के आदमी को मैं किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता। बुद्धू तो हुजूर क्या चाहते हैं ? डॉक्टर बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़े कष्ट में पड़ जाय। बुद्धू मूठ चला दूँ ? बुढ़िया ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। डॉक्टर तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने को तैयार हूँ। बुढ़िया बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के फेर में मत पड़। कोई जोखम की बात आ पड़ेगी तो वही बाबूजी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी। क्या जानता नहीं, मूठ का उतार
कितना कठिन है ? बुद्धू हाँ बाबू जी ! फिर एक बार अच्छी तरह सोच लीजिए। मूठ तो मैं चला दूँगा, लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता। डॉक्टर अभी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो। बुद्धू ने आवश्यक सामान की एक लम्बी तालिका बनायी। डॉक्टर साहब ने सामान की अपेक्षा रुपये देना अधिक उचित समझा। बुद्धू राजी हो गया। डॉक्टर साहब चलते-चलते बोले ऐसा मंतर चलाओ के सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये हुए आ जाय। बुद्धू ने कहा आप निसाखातिर रहें। डॉक्टर साहब वहाँ से चले तो ग्यारह बजे थे। जाड़े की रात, कड़ाके की ठंड थी। उनकी माँ और स्त्री दोनों बैठी हुई उनकी राह देख रही थीं। उन्होंने जी को बहलाने के लिए बीच में एक अँगीठी रख ली थी, जिसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा विचार पर अधिक पड़ता था। यहाँ कोयला विलास्य पदार्थ समझा जाता था। बुढ़िया महरी जगिया वहीं फटा टाट का टुकड़ा ओढ़े पड़ी थी। वह बार-बार उठ कर अपनी अँधेरी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोल कर देखती और फिर अपनी जगह पर आ कर पड़ रहती। बार-बार पूछती, कितनी रात गयी होगी। जरा भी खटका होता तो चौंक पड़ती और चिंतित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगती। आज डॉक्टर साहब ने नियम के प्रतिकूल क्यों इतनी देर लगायी, इसका सबको आश्चर्य था। ऐसे अवसर बहुत कम आते थे कि उन्हें रोगियों को देखने के लिए रात को जाना पड़ता हो। यदि कुछ लोग उनकी डाक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का साहस न करते थे। सभा-सोसाइटियों में जाने को उन्हें रुचि न थी। मित्रों से भी उनका मेल-जोल न था। माँ ने कहा जाने कहाँ चला गया, खाना बिलकुल पानी हो गया। अहल्या आदमी जाता है तो कह कर जाता है, आधी रात से ऊपर हो गयी। माँ कोई ऐसी ही अटक हो गयी होगी, नहीं तो वह कब घर से बाहर
निकलता है ? अहल्या मैं तो अब सोने जाती हूँ, उनका जब जी चाहे आयें। कोई सारी रात बैठा पहरा देगा। यही बातें हो रही थीं कि डॉक्टर साहब घर आ पहुँचे। अहल्या सँभल बैठी; जगिया उठकर खड़ी हो गयी और उनकी ओर सहमी हुई आँखों से ताकने लगी। माँ ने पूछा आज कहाँ इतनी देर लगा दी ? डॉक्टर तुम लोग तो सुख से बैठी हो न ! हमें देर हो गयी, इसकी तुम्हें क्या चिंता ! जाओ, सुख से सोओ, इन ऊपरी दिखावटी बातों से मैं धोखे में नहीं आता। अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली हो बात बनाने ! माँ ने दुःखी हो कर कहा बेटा ! ऐसी जी दुखाने वाली बातें क्यों करते हो ? घर में तुम्हारा कौन बैरी है जो तुम्हारा बुरा चेतेगा ? डॉक्टर मैं किसी को अपना मित्र नहीं समझता, सभी मेरे बैरी हैं, मेरे प्राणों के ग्राहक हैं ! नहीं तो क्या आँख ओझल होते ही मेरी मेज से पाँच सौ रुपये उड़ जायँ, दरवाजे बाहर से बंद थे, कोई ग़ैर आया नहीं, रुपये रखते ही उड़ गये। जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, उन्हें क्योंकर अपना समझूँ। मैंने खूब पता लगा लिया है, अभी एक ओझे के पास से चला आ रहा हूँ। उसने साफ कह दिया कि घर के ही किसी आदमी का काम है। अच्छी बात है, जैसी करनी वैसी भरनी। मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ। यदि बाहर का आदमी होता तो कदाचित् मैं जाने भी देता। पर जब घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करें तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिआयत न की जाय। देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा होती है। मैंने ओझे से मूठ चलाने को कह दिया है। मूठ चली और उधर चोर के प्राण संकट में पड़े। जगिया घबड़ा कर बोली भइया, मूठ में जान जोखम है। डॉक्टर चोर की यही सजा है। जगिया किस ओझे ने चलाया है ? डॉक्टर बुद्धू चौधरी ने। जगिया अरे राम, उसकी मूठ का तो उतार ही नहीं। डॉक्टर अपने कमरे में चले गये, तो माँ ने कहा सूम का धन शैतान खाता है। पाँच सौ रुपया कोई मुँह मार कर ले गया। इतने में तो मेरे सातों धाम हो जाते। अहल्या बोली कंगन के लिए बरसों से झींक रही हूँ, अच्छा हुआ, मेरी आह पड़ी है। माँ भला घर में उसके रुपये कौन लेगा ? अहिल्या किवाड़ खुले होंगे, कोई बाहरी आदमी उड़ा ले गया होगा। माँ उसको विश्वास क्योंकर आ गया कि घर ही के किसी आदमी ने रुपये चुराये हैं। अहल्या रुपये का लोभ आदमी को शक्की बना देता है। रात को एक बजा था। डॉक्टर जयपाल भयानक स्वप्न देख रहे थे। एकाएक अहल्या ने आ कर कहा जरा चल कर देखिए, जगिया का क्या हाल हो रहा है। जान पड़ता है, जीभ ऐंठ गयी। कुछ बोलती ही नहीं, आँखें पथरा गयी हैं। डॉक्टर चौंक कर उठ बैठे। एक क्षण तक इधर-उधर ताकते रहे; मानो सोच रहे थे, यह भी स्वप्न तो नहीं है। तब बोले क्या कहा ! जगिया को क्या हो गया ? अहल्या ने फिर जगिया का हाल कहा। डॉक्टर के मुख पर हलकी-सी मुस्कराहट दौड़ गयी। बोले चोर पकड़ा गया ! मूठ ने अपना काम किया। अहल्या और जो घर ही के किसी आदमी ने ले लिये होते ? डॉक्टर तो उसकी
भी यही दशा होती, सदा के लिए सीख जाता। अहल्या पाँच सौ रुपये के पीछे प्राण ले लेते ? डॉक्टर पाँच सौ रुपये के लिए नहीं, आवश्यकता पड़े तो पाँच हजार खर्च कर सकता हूँ, केवल छल-कपट का दंड देने के लिए। अहल्या बड़े निर्दयी हो। डॉक्टर तुम्हें सिर से पैर तक सोने से लाद दूँ तो मुझे भलाई का पुतला समझने लगो, क्यों ? खेद है कि मैं तुमसे यह सनद नहीं ले सकता। यह कहते हुए वह जगिया की कोठरी में गये। उनकी हालत उससे कहीं अधिक खराब थी जो अहल्या ने बतायी थी। मुख पर मुर्दनी छायी हुई थी, हाथ-पैर अकड़ गये थे, नाड़ी का पता न था। उसकी माँ उसे होश में लाने के लिए बार-बार उसके मुँह पर पानी के छींटे दे रही थी। डॉक्टर ने यह हालत देखी तो होश उड़ गये। उन्हें अपने उपाय की सफलता पर प्रसन्न होना चाहिए था। जगिया ने रुपये चुराये इसके लिए अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी; परंतु मूठ इतनी जल्दी प्रभाव डालने वाली और घातक वस्तु है, इसका उन्हें अनुमान भी न था। वे चोर को एड़ियाँ रगड़ते, पीड़ा से कराहते और तड़पते देखना चाहते थे। बदला लेने की इच्छा आशातीत सफल हो रही थी; परंतु वहाँ नमक की अधिकता थी, जो कौर को मुँह के भीतर धँसने नहीं देती। यह दुःखमय दृश्य देख कर प्रसन्न होने के बदले उनके हृदय पर चोट लगी। रोब में हम अपनी निर्दयता और कठोरता का भ्रममूलक अनुमान कर लिया करते हैं। प्रत्यक्ष घटना विचार से कहीं अधिक प्रभावशालिनी होती है। रणस्थल का विचार कितना कवित्वमय है। युद्धावेश का काव्य कितनी गर्मी उत्पन्न करने वाला है। परंतु कुचले हुए शव के कटे हुए अंग-प्रत्यंग देख कर कौन मनुष्य है, जिसे रोमांच न हो आवे। दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसके अतिरिक्त इसका उन्हें अनुमान न था कि जगिया जैसी दुर्बल आत्मा मेरे रोष पर बलिदान होगी। वह
समझते थे, मेरे बदले का वार किसी सजीव मनुष्य पर होगा; यहाँ तक कि वे अपनी स्त्री और लड़के को भी इस वार के योग्य समझते थे। पर मरे को मारना, कुचले को कुचलना, उन्हें अपना प्रतिघात मर्यादा के विपरीत जान पड़ा। जगिया का यह काम क्षमा के योग्य था। जिसे रोटियों के लाले हों, कपड़ों को तरसे, जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकारमय रहा हो, जिसकी इच्छाएँ कभी पूरी न हुई हों, उसकी नीयत बिगड़ जाय तो आश्चर्य की बात नहीं। वे तत्काल औषधालय में गये, होश में लाने की जो अच्छी-अच्छी औषधियाँ थीं, उनको मिला कर एक मिश्रित नयी औषधि बना लाये, जगिया के गले में उतार दी। कुछ लाभ न हुआ। तब विद्युत यंत्र ले आये और उसकी सहायता से जगिया को होश में लाने का यत्न करने लगे। थोड़ी ही देर में जगिया की आँखें खुल गयीं। उसने सहमी हुई दृष्टि से डॉक्टर को देखा, जैसे लड़का अपने अध्यापक की छड़ी की ओर देखता है, और उखड़े हुए स्वर में बोली हाय राम, कलेजा फुँका जाता है, अपने रुपये ले ले, आले पर एक हाँड़ी है, उसी में रखे हुए हैं। मुझे अंगारों से मत जला। मैंने तो यह रुपये तीरथ करने के लिए चुराये थे। क्या तुझे तरस नहीं आता, मुट्ठी भर रुपयों के लिए मुझे आग में जला रहा है, मैं तुझे ऐसा काला न समझती थी, हाय राम ! यह कहते-कहते वह फिर मूर्छित हो गयी, नाड़ी बंद हो गयी, ओठ नीले पड़ गये, शरीर के अंगों में खिंचाव होने लगा। डॉक्टर ने दीन भाव से अहल्या की ओर देखा और बोले मैं तो अपने सारे उपाय कर चुका, अब इसे होश में लाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। मैं क्या जानता था कि यह अभागी मूठ इतनी घातक होती है। कहीं इसकी जान पर बन गयी तो जीवन भर पछताना पड़ेगा। आत्मा की ठोकरों से कभी छुटकारा न मिलेगा। क्या करूँ, बुद्धि कुछ काम नहीं करती। अहल्या सिविल सर्जन को बुलाओ, कदाचित् वह कोई अच्छी दवा दे दे। किसी को जान-बूझ कर आग में ढकेलना न चाहिए। डॉक्टर सिविल सर्जन इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता, जो मैं कर चुका। हर घड़ी इसकी दशा और गिरती जाती है, न जाने हत्यारे ने कौन-सा मंत्र चला दिया। उसकी माँ मुझे बहुत समझाती रही, पर मैंने क्रोध में उसकी बातों की जरा भी परवाह न की। माँ बेटा, तुम उसी को बुलाओ जिसने मंत्र चलाया है; पर क्या किया जायगा। कहीं मर गयी तो हत्या सिर पर पड़ेगी। कुटुम्ब को सदा सतायेगी। दो बज रहे थे, ठंडी हवा हड्डियों में चुभी जाती थी। डॉक्टर लम्बे पाँवों बुद्धू चौधरी के घर की ओर चले जाते थे। इधर-उधर व्यर्थ आँखें दौड़ाते थे कि कोई इक्का या ताँगा मिल जाय। उन्हें मालूम होता था कि बुद्धू का घर बहुत दूर हो गया। कई बार धोखा हुआ, कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया। कई बार इधर आया हूँ, यह बाग तो कभी नहीं मिला, लेटर-बक्स भी सड़क पर कभी नहीं देखा, यह पुल तो कदापि न था, अवश्य राह भूल गया। किससे पूछूँ। वे अपनी स्मरण-शक्ति पर झुँझलाये और उसी ओर थोड़ी दूर तक दौड़े। पता नहीं, दुष्ट इस समय मिलेगा भी या नहीं, शराब में मस्त पड़ा होगा। कहीं इधर बेचारी चल न बसी हो। कई
बार इधर-उधर घूम जाने का विचार हुआ पर अंतःप्रेरणा ने सीधी राह से हटने न दिया। यहाँ तक कि बुद्धू का घर दिखाई पड़ा। डॉक्टर जयपाल की जान में जान आयी। बुद्धू के दरवाजे पर जा कर जोर से कुण्डी खटखटायी। भीतर से कुत्ते ने असभ्यतापूर्ण उत्तर दिया, पर किसी आदमी का शब्द न सुनायी दिया। फिर ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ खटखटाये, कुत्ता और भी तेज पड़ा, बुढ़िया की नींद टूटी। बोली यह कौन इतनी रात गये किवाड़ तोड़े डालता है ? डॉक्टर मैं हूँ, जो कुछ देर हुई तुम्हारे पास आया था। बुढ़िया ने बोली पहचानी, समझ गयी इनके घर के किसी आदमी पर बिपत पड़ी, नहीं तो इतनी रात गये क्यों आते; पर अभी तो बुद्धू ने मूठ चलाई नहीं। उसका असर क्योंकर हुआ, समझाती थी तब न माने। खूब फँसे। उठकर कुप्पी जलायी और उसे लिये बाहर निकली। डॉक्टर साहब ने पूछा बुद्धू चौधरी सो रहे हैं। जरा उन्हें जगा दो। बुढ़िया न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊँगी, मुझे कच्चा ही खा जायगा, रात को लाट साहब भी आवें तो नहीं उठता। डॉक्टर साहब ने थोड़े शब्दों में पूरी घटना कह सुनायी और बड़ी नम्रता के साथ कहा कि बुद्धू को जगा दे। इतने में बुद्धू अपने ही आप बाहर निकल आया और आँखें मलता हुआ बोला कहिए बाबू जी, क्या हुकुम है। बुढ़िया ने चिढ़ कर कहा तेरी नींद आज कैसे खुल गयी, मैं जगाने गयी होती तो मारने उठता। डॉक्टर मैंने सब माजरा बुढ़िया से कह दिया है, इसी से पूछो। बुढ़िया कुछ नहीं, तूने मूठ चलायी थी, रुपये इनके घर की महरी ने लिये हैं, अब उसका अब-तब हो रहा है। डॉक्टर बेचारी मर रही है, कुछ ऐसा उपाय करो कि उसके प्राण बच जायँ ! बुद्धू यह तो आपने बुरी सुनायी, मूठ को फेरना सहज नहीं है। बुढ़िया बेटा, जान जोखिम है, क्या तू जानता नहीं। कहीं उल्टे फेरनेवाले पर ही पड़े तो जान बचना ही क
ठिन हो जाय। डॉक्टर अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो। बुढ़िया दूसरे की जान की खातिर कोई अपनी जान गढ़े में डालेगा ? डॉक्टर तुम रात-दिन यही काम करते हो, तुम उसके दाँव-घात सब जानते हो। मार भी सकते हो, जिला भी सकते हो। मेरा तो इन बातों पर बिलकुल विश्वास ही न था, लेकिन तुम्हारा कमाल देख कर दंग रह गया। तुम्हारे हाथों कितने ही आदमियों का भला होता है, उस गरीब बुढ़िया पर दया करो। बुद्धू कुछ पसीजा, पर उसकी माँ मामलेदारी में उससे कहीं अधिक चतुर थी। डरी, कहीं यह नरम हो कर मामला बिगाड़ न दे। उसने बुद्धू को कुछ कहने का अवसर न दिया। बोली यह तो सब ठीक है, पर हमारे भी बाल-बच्चे हैं ! न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। वह हमारे सिर आवेगी न ? आप तो अपना काम निकाल कर अलग हो जायेंगे। मूठ फेरना हँसी नहीं है। बुद्धू हाँ बाबू जी, काम बड़े जोखिम का है। डॉक्टर काम जोखिम का है जो मुफ्त तो नहीं करवाना चाहता। बुढ़िया आप बहुत देंगे, सौ-पचास रुपये देंगे। इतने में हम कै दिन तक खायेंगे। मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है। भगवान् की ऐसी ही निगाह हो तो जान बचती है। डॉक्टर तो माता जी, मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ। जो कुछ तुम्हारी मरजी हो वह कहो। मुझे तो उस गरीब की जान बचानी है। यहाँ बातों में देर हो रही है, वहाँ मालूम नहीं, उसका क्या हाल होगा। बुढ़िया देर तो आप ही कर रहे हैं, आप बात पक्की कर दें तो यह आपके साथ चला जाय। आपकी खातिर यह जोखिम अपने सिर ले रही हूँ दूसरा होता तो झट इनकार कर जाती। आपके मुलाहजे में पड़ कर जान-बूझ कर जहर पी रही हूँ। डॉक्टर साहब को एक क्षण एक वर्ष जान पड़ रहा था। बुद्धू को उसी समय अपने साथ ले जाना चाहते थे। कहीं उसका दम निकल गया तो यह जा कर क्या बनायेगा। उस समय उनकी आँखों में रुपये का कोई मूल्य न था। केवल यही चिन्ता थी कि जगिया मौत के मुँह से निकल आये। जिस रुपये पर वह अपनी आवश्यकताएँ और घरवालों की आकांक्षाएँ निछावर करते उसे दया के आवेश ने बिलकुल तुच्छ बना दिया था। बोले तुम्हीं बतलाओ, अब मैं क्या कहूँ, पर जो कुछ कहना हो झटपट कह दो। बुढ़िया अच्छा तो पाँच सौ रुपये दीजिए, इससे कम में काम न होगा। बुद्धू ने माँ की ओर आश्चर्य से देखा, और डॉक्टर साहब मूर्छित से हो गये, निराशा से बोले इतना मेरे बूते के बाहर है, जान पड़ता है उसके भाग्य में मरना ही बदा है। बुढ़िया तो जाने दीजिए, हमें अपनी जान भार थोड़े ही है। हमने तो आपके मुलाहिजे से इस काम का बीड़ा उठाया था। जाओ बुद्धू, सोओ। डॉक्टर बूढ़ी माता, इतनी निर्दयता न करो, आदमी का काम आदमी से निकलता है। बुद्धू नहीं बाबूजी, मैं हर तरह से आपका काम करने को तैयार हूँ, इसने पाँच सौ कहे, आप कुछ कम कर दीजिए। हाँ, जोखिम का ध्यान रखिएगा। बुढ़िया तू जा के सोता क्यों नहीं ? इन्हें रुपये प्यारे हैं तो क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है। कल को लहू थूकने लगेगा तो कुछ बनाये न बनेगी, बाल-बच्चों को किस पर छोड़ेगा ? है घ
र में कुछ ? डॉक्टर साहब ने संकोच करते हुए ढाई सौ रुपये कहे। बुद्धू राजी हो गया, मामला तय हुआ, डॉक्टर साहब उसे साथ लेकर घर की ओर चले। उन्हें ऐसी आत्मिक प्रसन्नता कभी न मिली थी। हारा हुआ मुकदमा जीत कर अदालत से लौटने वाला मुकदमेबाज भी इतना प्रसन्न न होगा। लपके चले जाते थे। बुद्धू से बार-बार तेज चलने को कहते। घर पहुँचे तो जगिया को बिलकुल मरने के निकट पाया। जान पड़ता था यही साँस अंतिम साँस है। उनकी माँ और स्त्री दोनों आँसू भरे निराश बैठी थीं। बुद्धू को दोनों ने विनम्र दृष्टि से देखा। डॉक्टर साहब के आँसू भी न रुक सके। जगिया की ओर झुके तो आँसू की बूँदें उसके मुरझाये हुए पीले मुँह पर टपक पड़ीं। स्थिति ने बुद्धू को सजग कर दिया, बुढ़िया के देह पर हाथ रखते हुए बोला बाबू जी, अब मेरा किया कुछ नहीं हो सकता, यह दम तोड़ रही है। डॉक्टर साहब ने गिड़गिडा कर कहा नहीं चौधरी, ईश्वर के नाम पर अपना मंत्र चलाओ, इसकी जान बच गयी तो सदा के लिए मैं तुम्हारा गुलाम बना रहूँगा। बुद्धू आप मुझे जान-बूझ कर जहर खाने को कहते हैं। मुझे मालूम न था कि मूठ के देवता इस बखत इतने गरम हैं। वह मेरे मन में बैठे कह रहे हैं, तुमने हमारा शिकार छीना तो हम तुम्हें निगल जायेंगे। डॉक्टर देवता को किसी तरह राजी कर लो। बुद्धू राजी करना बड़ा कठिन है, पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे। उतारने के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे। डॉक्टर पाँच सौ रुपये दे दूँ तो इसकी जान बचा दोगे ? बुद्धू हाँ, शर्त बद कर। डॉक्टर साहब बिजली की तरह लपक कर अपने कमरे में आ गये और पाँच सौ रुपयों की थैली लाकर बुद्धू के सामने रख दी। बुद्धू ने विजय की दृष्टि से थैली को देखा। फिर जगिया का सर अपनी गोद में रखकर उस पर हाथ फेरने लगा। कुछ बुदबुदा कर छू-छू करता जाता थ
ा। एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी हो गयी, लपटें-सी निकलने लगीं। बार-बार अँगड़ाइयाँ लेने लगा। इसी दशा में एक बेसुरा गाना आरम्भ किया, पर हाथ जगिया के सर पर ही था। अंत में कोई आध घंटा बीतने पर जगिया ने आँखें खोल दीं, जैसे बुझते हुए दीये में तेल पड़ जाय। धीरे-धीरे उसकी अवस्था सुधरने लगी। उधर कौवे की बोली सुनाई दी, जगिया एक अँगड़ाई ले कर उठ बैठी। सात बजे थे जगिया मीठी नींद सो रही थी; उसकी आकृति निरोग थी, बुद्धू रुपयों की थैली ले कर अभी गया था। डॉक्टर साहब की माँ ने कहा बात-की-बात में पाँच सौ रुपये मार ले गया। डॉक्टर यह क्यों नहीं कहती कि एक मुरदे को जिला गया। क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी नहीं है। माँ देखो, आले पर पाँच सौ रुपये हैं या नहीं ? डॉक्टर नहीं, उन रुपयों में हाथ मत लगाना, उन्हें वहीं पड़े रहने दो। उसने तीरथ करने के वास्ते लिये थे, वह उसी काम में लगेंगे। माँ यह सब रुपये उसी के भाग के थे। डॉक्टर उसके भाग के तो पाँच सौ ही थे, बाकी मेरे भाग के थे। उनकी बदौलत मुझे ऐसी शिक्षा मिली, जो उम्र भर न भूलेगी। तुम मुझे अब आवश्यक कामों में मुट्ठी बंद करते हुए न पाओगी।