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ें बैठा था. "लो, एक चाय उसे भी दे आओ पैसे मत लेना" - मैली-सी धोती और कुर्ते में बाहर् बैठे गँवई की ओर इशारा करते हुये चाय वाले ने अपने नौकर से कहा. अदरक को पत्थर से कूँचते हुये चायवाले के मन का दर्द साफ झलक रहा था. मेरी चाय खतम हो गयी थी, मैं निकलने के लिए उठ गया. "क्या देख रहे हो बाबा?" - गुमटी से बाहर निकलते हुये मैंने उस गँवई से योंही पूछ लिया. गाडि़यों की लम्बी कतारों और खड़ी होती ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के बावज़ूद मानों वो अपने खेत को लहलहाता हुआ महसूस कर रहा था. महेश रस्तोगी वैद्य पवन गोपीनाथ तिवारी से विगत चार वर्षों से अस्थमा का इलाज करवा रहे हैं । तमाम दवाइयों को आज़माने के बाद रस्तोगी जी आयुर्वेद की शरण में आए और वैद्य तिवारी जी की दावा से अभूतपूर्व लाभ भी हुआ । धीरे धीरे दोनों में आत्मीय संबंध स्थापित हो गए,यदा कदा सांसारिक सुख-दुःख भी साझा करते । वैद्य तिवारी जी के दवाख़ाने वाले कमरे की सामने वाली दीवार पर उनके दादा राज वैद्य शम्भूनाथ तिवारी जी की तस्वीर लगी है । यह तस्वीर रस्तोगी जी की निगाह में है । एक दिन दवाइयाँ लेने के बाद , रस्तोगी जी से रहा नहीं गया और पूछ बैठे "आज मैं देख रहा हूँ कि आपके दादा जी की तस्वीर पर प्लास्टिक की माला लटक रही है ।इसके पहले प्राकृतिक ख़ुशबूदार फूलों की माला शोभायमान रहती । प्लास्टिक की माला क्यूँ ? " वैद्य तिवारी जी थोड़ा संभलकर - "क्या बताऊँ ! बच्चे कहते हैं प्लास्टिक की माला ही ठीक रहेगी । बार बार के ख़र्चे और माला बदलने से मुक्ति मिल जाएगी ।भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी में यही बहतर है। सो ,मैंने भी स्वीकृति दे दी।" अब रस्तोगी जी मन ही मन विचार कर रहे थे कि वैद्य जी के दादा जी भी भागम भाग भरी ज़िन्दगी और प्लास्टिक के शिकार हो गए हैं । विद्य
ालय की चित्रकला प्रदर्शनी में चित्रों का निरीक्षण करते समय अधिकारी एक चित्र के सामने ठहर गये । विद्यालय कक्षा पांच तक का ही था उसमें ऐसा सुधड चित्र देखकर अचंभित थे सभी । चित्र एक रोटी का था जिसे देखकर लगता था एकदम अभी तवे से उतारी गई हो । बनाने वाले लडके को बुलाया गया उससे अधिकारी ने बडे प्यार से पूछा " बेटा ये चित्र आपने बनाया है । " लडके ने हां में सर हिला दिया । अधिकारी की उत्सुकता बढी " क्या है ईस तस्वीर में ?" " सपना ! मेरी थाली में भी एक दिन ऐसी रोटी होगी । " लडके ने सर झुकाए हुए जबाब दिया । अधिकारी के तो इस जबाब से होश ही उड गए उसने बच्चे को जाने का इशारा किया और कल सुबह ही प्रधानाचार्य महोदय को मध्याह्न भोजन के हिसाब के साथ अपने कार्यालय में उपस्थित होने का आदेश दिया । शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ आम सी हो गई थी । मगर उसकी बगल में अभी भी कुछ लोग चुपचाप सहमें हुए बैठे थे, पिछले तीस वर्षों से जोगिन्द्र परिवार समेत इस शहर में आ कर रह रहा था । पढने के लिए इस शहर में आया था, तब यहीं का हो कि रह गया । जब के उनके बजुर्ग पार्टीशन समें बार्डर पार से यहाँ नजदीक के इक गाँव में आ कर टिक गए थे । वैसे जोगिन्द्र बहुत ही सुगली आदमी है, जब भी किसी से मिलता अपने खिले हुए चेहरे के साथ उनका ही हो जाता । उसका ये रूप दोस्तों को ही नहीं सभी को बहुत प्रभावित करता । किसी फंक्शन में जब कभी स्टेज संभालता,किसी को भी उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत न होती । "असी तीह साल पहला इथे पढ्न आए सी, ते इथे दे हो के रह गए, कदे सोच्या नहीं सी," पर हुन लगदा ए कि की मेरे वर्गे इथे पराये हन, जिन्दा साडे नाल होइया ए" जब वह ये कह रहा था, तब उस के चेहरे से दुःख और गुस्सा दोनों झलक रहे थे, डर व सहम अभी भी नजर आ रहा था । दीवार पर लगी तस्वीर जिस में दसवीं कक्षा के तब के सभी साथी नजर आ रहे थे, अब उसे तस्वीर बदली हुई लगी,जैसे उस के साथ कुछ और चेहरे इस में से गायब हो गयें हों, "मगर, ऐसा नहीं हो सकता",जोगिन्द्र ने ऊँची आवाज़ में कहा, सभी साथ बैठे लोग उस तरफ देखने लगे । "महाराज i ये जो नक्काशीदार उभरे हुए कंगूरे हैं चौखट में , उनसे गुरुवर की आँखें ढक गयी हैं I" .झण्डा वहीं अनतहा पड़ा था । साथ में बड़े-बड़े आकार के कई पोस्टरनुमा क़ाग़ज़ भी पड़े थे । जिनकी गोद में कई तरह के चिलचिलाते हुए नारे पूरी धमक के साथ आ कर बैठ गये थे । गरमाये हुए ही नहीं, खूब बौखलाये हुए नारे ! डण्डा भी तो तैयार ही खड़ा था ! कि, इशारा हो और वह झण्डे को थामे हुए बाहर उछल पड़े । सभी का ताव पूरा उबाल मार रहा था । लेकिन बिना चौहद्दी कूदा-फाँदा भी जाय तो कितना ? आखिर कहाँ तक ? इन सवालों के ज़वाब न मिलने के कारण उबाल लगातार क्रोध में बदलता जा रहा था । डपट पड़ते ही सारे क़ाग़ज़ एकबारग़ी सकपका गये । नारे तो और भी दुबक-सटक कर गोद में उकड़ूँ हो गये थे । अध्यक्ष के ऐसे बेसाख़्ता खिलखिलाने पर एक समवेत ज़ोरदार ठहाका लगा । नारों को अपनी गो
द में चिपकाये हुए शातिराना मुस्कुराहटों के साथ सभी क़ाग़ज़ भी मानो लहराने लगे ! " भाभी , मैं राजेश पर केस करना चाहती हूँ।" " क्यों ?क्या हुआ हैं?" " उसने मुझे धोखा दिया हैं, अपनी पहली पत्नी के लिए मुझे नौकरानी की तरह इस्तेमाल किया हैं।" " तुम पहले से ही सब जानती थी ?फिर पिता की ओर से अनजाने में हुई उपेक्षा का बदला लेते लेते तुम उनकी नजरों में इतना गिर गयी की उनके लिए तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं रहा।कहीं इसी तरह राजेश भी तुमसे दामन ना झटक ले। " "आज औरत की तस्वीर इतनी कमजोर नहीं रही की दामन थामने वाला कोई ना मिले " " बेटी पत्नी और माँ होने के बावजूद भी पता नहीं तुम औरत की तस्वीर के किस रुख की बात कर रही हो?" चित्र प्रदर्शनी की सफलता देख मैं मन ही मन खुश हो रहा था,आशा के विपरीत बडी तादाद में लोगों का आना, तस्वीरें मंत्रमुग्ध हो निहारना, तारीफ़ों के पुल बाँधना अभिभूत कर रहा था। कुछ तस्वीरें अभी बाकी थी । एक पर लिखवा दिया 'बिकाऊ' नही है। मन मेरा अब उस चेहरेको ढूँढ रहा था,जो मेरे लिये जीवनदाता है, मन में बसी तस्वीर को साक्षात सामने देख वही ठिठक गया । मन दुविधा में था यदि ना पहचाना तो ? हिम्मत करके आगे बढ़ा। 'अन्नू हूँ मैं हीरा माँ मुझे पहचाना आपने' उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई, "अरे आप दूर हटिये कौन ?माँ की याददाश्त कमज़ोर हो गई है " उनके साथ खड़े लड़के को अच्छा नही लगा । 'तू ही तो याद है अन्नू तू मुझे भूला नही' "कैसे भूलता माँ तुमने जीवन दिया,पालनहार को पल पल ढूँढा है मैंने अब मिली हो ये देखो आपकी तस्वीर", माँ के हाथ काँप रहे थे । ममता की आँखें श्रवण पाकर छलछला गई । हज़ारों की तस्वीर के साथ कृतज्ञता के आँसू समेत माँ के हाथों में सौंप वह बोल उठा, मेरी माँ तो यही है इन्होंने मुझे ज
ीवन दिया है।वह फूट फूट कर रो दिया । ममता तो अनमोल होती है भाई । तस्वीर ( हसरत ) हामिद जब स्कूल से आया तो उसके चेहरे पर वैसी ही ताजगी थी जैसी मेले से दादी हामिदा के लिए चिमटा लाने पर नुमायां हुई थी . हामिदा ने पूछा - 'क्या हुआ हामिद ? आज तू बड़ा खुश है' . खुश होने की बात है न दादी, आज मैं स्कूल में फर्स्ट आया . तस्वीर बनाने की प्रतियोगिता में मैं अव्वल माना गया'. 'दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज की तस्वीर बनानी थी दादी'. 'लो खुद ही देख लो--------' - चूल्हा फूंकती कमजोर सी औरत थी . तस्वीर के नीचे लिखा था -'माँ को तो मैंने कभी जाना नहीं, यह तस्वीर मेरी दादी की है'. बूढ़ी आँखों ने अब अपनी प्रतिकृति को पहचाना . बच्चे हामिद ने एक बार फिर बूढ़े हामिद का पार्ट खेल दिया था, बुढ़िया अमीना फिर से बालिका अमीना बन रोने लगी . दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी . इस बार भी हामिद इसका रहस्य नहीं समझ सका . छन्न... छन्न..छनाक,,,की आवाज गूँजते ही माँ दौड़ कर उसके कमरे में आई और उसे हिला कर बोली "कहाँ खोई है क्या हो गया मेरी बच्ची जब से आई है कुछ बोलती भी नहीं रोमिल भी फोन नहीं उठा रहा क्या हो गया तुझे क्या तुम दोनों के बीच कोई झगड़ा हुआ है क्या? तुम दोनों की शादी के दिन भी नजदीक आ रहे हैं मेरा दिल घबरा रहा है बेटी, कितना तूफ़ान है बाहर अरे ये देखो हवा से तुम्हारे रोमिल की तस्वीर भी गिरकर टूट गई ये भी नहीं देख रही हो क्या"? राजीव ने मुड कर देखा, क्लास की सबसे खूबसूरत लडकी मृदुला उसे आवाज़ दे रही थी! वह गॉव का सीधा सादा किसान का बेटा! किसी भी स्तर पर मृदुला की समानता नहीं कर सकता था! घबराते हुए बोला,"जी कहिये"! "मुझे आपकी मदद चाहिये"! राजीव पुनः असमंजस में कि वह तो पढाई में भी औसत है , यह खुद प्रथम श्रेणी की छात्रा है, रुपये पैसे के मामले में भी, वह कहीं नहीं टिकता, फ़िर इसे कैसी मदद की जरूरत पड गई! उसने संकोच करते हुए पूछा," क्या मुझ जैसा अदना व्यक्ति भी किसी के काम आ सकता है "! "मुझे आपकी शर्ट चाहिये, कॉलेज के वार्षिक रंगारंग कार्य क्रम में हम लडकियां एक नाटक कर रहे हैं,मुझे लडके का रोल मिला है "! "ओह, जी अवश्य"! इतना कह कर राजीव हॉस्टल आगया! अब एक नयी परेशानी थी कि कौन सी शर्ट दे! उसके पास तो कोई ढंग की शर्ट थी भी नहीं थी! अचानक उसकी नज़र रूम मेट की मेज पर पडी नयी शर्ट के पैकिट पर गयी! राजीव ने बिना कुछ सोचे समझे वह शर्ट मृदुला को दे दी! रूम मेट उस शर्ट को खोजता रहा! उसे एक शादी में जाना था ! राजीव से भी पूछा! राजीव ने अनभिज्ञता जताई ! कार्य क्रम के बाद मृदुला ने वह शर्ट धुलवा कर राजीव को लौटा दी! रूम मेट ने खोई हुई शर्ट टेबल पर देखी तो बडा खुश हुआ!मगर उसकी समझ में नहीं आरहा था कि नयी शर्ट बिना इस्तैमाल किए किसी ने धो क्यों दी ! उसी शाम रूम मेट ने कालेज के सूचना पट पर कालेज के वार्षिक रंगारंग कार्य क्रम की तस्वीरें देखी तो वह मुस्कर
ा कर रह गया! मित्र की तरफ से चित्र सन्देश आया।साथ ही एक चुनौती भी। "इस चित्र में कमाल ढूँढो।एक चुनौती तुम्हारे लिए।" चुनौती पढ़ते ही दिमाग की घण्टी बजी और इसे अपनी शान पर ले बैठा। चित्र को बड़ा कर देखने लगा।किसी व्यक्ति द्वारा लिया स्वचित्र (सेल्फ़ी) थी। किसी स्थानीय बस के अंदर का हाल।एक दूसरे में फंसे अटे खड़े स्वार।गोदी में बमुश्किल बच्चे को सम्भालती महिला।पसीने से तर बतर बिलखता बच्चा।थोड़ा और ज़ूम किया तो झुक कर सीट को पकड़े खड़ी बूढ़ी महिला।सीट पर बैठे खिलखिलाते युवा। सीसे से झांकती ख़स्ता हाल सड़क। चित्र बड़ी ख़ूबसूरती से लिया गया।पर कमाल जैसा प्रतीत नहीं हुआ। थोड़ा और वर्द्धित किया चित्र तो धुंधला सा गया।पर खिड़की के बाहर से एक बड़ा बैनर नज़र आया।जिस पर मंत्री जी की आगे कदम बढ़ाते हुए सादगी में मुस्कराते हुए तस्वीर नज़र आई और उनके आगे बढ़े दाएँ पैर के पास लिखा वाक्यः "अभी तो हुआ है एक साल,देखो किया कितना कमाल।" "अरे !अरे !आप रो रही हो क्यों ?आप नही रो सकती ।शब्दों ने कलम से कहा।" अश्रु पोछते हुए कलम ने झूठी मुस्कान् लाते हुये कहा -'बस यूँ ही आँखे भर आई थी आओ आओ बैठो कहो कैसे आये।" "आये से क्या बहन ,हम तो तुम से ही है गर ..तुम नही तो हम क्या, पर हुआ क्या ..आज क्यों दुखी हुई आप" हूँ लंबी श्वास भरते हुए कलम ने कहा "आज मेरी स्याही से मेरे द्वारा देश के दो टुकड़े लिखे गए है।आज मेरे देश का एक अंग कट गया। जिस कलम ने कई ग्रंथो को लिखकर समरसता का सन्देश दिया आज कलंकित हो गई न।" " लड़का तो बहुत अच्छा है। बड़ा ही सुशील दिख रहा है। मुझे तो उसकी मां की तस्वीर देखनी है।" लड़की की मां सुनीता ने आसपास बैठे घर के लोगों से कहा। " दिखाती हूं। लेकिन क्यों, मां जी, आप लड़के की मां को क्यों
देखना चाहती हैं?" बहू ने रहस्यमयी सवाल किया। " बस ऐसे ही। दिखा तो।" बहू ने मंद -मंद मुस्कराते हुए वॉट्सएप पर तस्वीर दिखाते हुए कहा, " मेरी प्यारी ननद रेनू की होने वाली सास बिलकुल गऊ हैं न, मां जी, एकदम आपकी तरह।" यह सुनकर सुनीता के पति ठठा कर हंसे और बोले, " बहू, तुमने बिलकुल सच कहा। जोड़ी बहुत अच्छी मिल रही है। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं। जैसे इधर तुम सब कुछ ठीक कर लेती हो, उसी तरह अपनी रेनू भी दाल नहीं गलने देगी।" सुखिया कभी गुदड़ी के इस ओर करवट लेती,कभी उस ओर।कभी छितरा चुकी रुई के लिहाफ़ में दुबक जाती ।ब्याह के पुरे दस बरस बाद ये प्रथम अवसर था ,जब उसे कड़कड़ाती ठण्ड में ये 'शाही बिछौना' मिला था ,वरना तो पूरी सर्दी बेचारी एक फ़टी चटाई और चादर के सहारे गुजार देती ।वो तो कहो कि, आज पड़ौस के रामु काका अपने बेटे की बारात में उसके पति और पुत्र दोनों को जबरदस्ती साथ ले गए , और सुखिया के भाग जाग गए।वह भी इस आनंद को पूरी तरह जीना चाहती थी, सो एक पल भी गवाएं बिना गर्म बिछौने में घुस गई । रात्रि का प्रथम प्रहर रहा होगा , कुंकू.. कुंकू...की करुण आवाजों ने स्वर्गीय आनंद में बाधा डाल दी।उसे मुहल्ले में घुमती वह कुतिया याद आ गई ,जो पेट से थी, समझते देर न लगी कि उसने बच्चे तो दे दिए हैं,परंतु अब उन्हें सर्दी से बचाने में असमर्थ है ।सहसा उसे वह रात याद आ गई जब वह स्वयं प्रसूता थी और उस दिन भी इतना ही कड़क जाड़ा था , यदि दाई ने उसके और बच्चे के लिए गर्म कपड़े का प्रबन्ध न किया होता तो शायद आज वह निपूती होती ।असमंजस और खीज़ दोनों उस पर काबिज़ हो चुके थे ।नींद भी कोसों दूर जा चुकी थी , आवाज़ें थीं कि ,एन भीतर दस्तक रूपी चोटें दे रही थीं ।वह बड़बड़ाती हुई झटके से उठी , "अब तनिक बर्दाश्त नहीं कर सकती...मुई कुतिया को भी आज की रात ही मिली थी काली करने को..." और सच्ची अब करुण आवाज़ें बंद हो गई थीं, और सुखिया ? वह रोज़ वाली चटाई पर इस तरह बेसुध सो रही थी, जैसे बच्चे कुतिया ने नहीं , उसने जने हों । "कमल, बेटा क्या बात हैं, बहुत उद्गीन लग रहे हो । तुम्हारी अम्मा कह रही थी दो तीन दिन से बहुत देर - देर तक जाग रहे हो ।" "नही पापा कुछ नही , बस कुछ पढ़ाई कर रहा था ।" "अरे पढ़ाई ? अभी तो तुम्हारे सभी प्रतियोगिताओ के पेपर ख़त्म हुए हैं ; अब कौन सी पढ़ाई कर रहे हो ।" "पापा वे नये संस्था खुली हैं ना अपनी कॉलोनी में , उन्होने ही एक वाद विवाद प्रतियोगिता आयोजित की हैं "देश की स्थिति " उसी की तैयारी में लगा हूँ ; किंतु एक छोर पकड़ता हूँ तो दुसरी ओर कुछ छूट जाता हैं ।" "बेटा देश की तस्वीर ही ऐसी हैं, अजब -गज़ब रंग , एक वर्ग खुश तो दूसरा नाराज़ ! " पहाड़ी पार करते ही सेनापति ने सेना को हाथ के इशारे से रुकने का आदेश दियाI फिर अपना घोडा राजा के पास रोककर, सामने की तरफ इशारा करते हुए उत्साह भरे स्वर में कहाः "वो देखिए राजन हमारी मंजिल! हम भारत पहुँच गए हैI" "क्या सचमुच यह वही भारत है जहाँ हम पहले
भी आए थे सेनापति?" "जी हाँ महाराज! यह वही भारत है, हम इसके चप्पे चप्पे से वाकिफ हैंI" "लेकिन भारत देश तो बहुत विशाल हुआ करता था, हम किसी गलत जगह तो नहीं आ गए?" "नहीं नहीं महाराज! हम बिलकुल सही जगह आए हैं, यह देश भारत ही है!" "हर तरफ खून खराबा, गरीबी और ये भूखी बस्तियाँ, नहीं नहीं! ये तो हरगिज़ भारत की पहचान नहीं थीI" "वो देखिए भारत की पहचानI पीपल और देवदार के विशाल और शानदार वृक्षI" हरे भरे वृक्षों की कतारों को गौर से देखते हुए राजा ने पूछाः "मगर इनकी हर शाख पर सोने की चिड़िया की जगह सिर्फ उल्लू ही क्यों दिखाई दे रहे हैं?" यह सुनकर सेनापति अचकचाया, प्रश्न अनसुना करते हुए दूसरी तरफ उँगली का इशारा करते हुए बोलाः "उधर देखिए महाराज! हर तरफ वही भव्य मंदिर, गिरजे और मस्जिदेंI" "इन धर्म स्थानों से तो ईश्वरीय वाणी सुनाई दिया करती थी, मगर अब ये नफरत का ज़हर क्यों उगल रहे हैं?" "अगर यह भारत है, तो अब तक हमें रोकने के लिए कोई पोरस आगे क्यों नहीं आया?" "क्योंकि दुर्भाग्य से अब यहाँ पोरस पैदा नहीं होते, सिर्फ आम्भी जैसे गद्दार ही पाए जाते हैं महान सिकन्दर!" "फ़ौज को वापिस यूनान लौटने का हुक्म दिया जाए सेनापति सेल्यूकसI" सिकंदर ने भारत की तरफ देखकर एक ठंडी आह भरी और बुझे से स्वर में उत्तर दियाः "जो देश अपनों के हाथों पहले ही लुट पिट चुका हो, उसे हम क्या लूटेंगे?" बाबूजी ने बेटे को बहुत ही लाड प्यार से पाला था किन्तु पता नहीं उनकी परवरिश में क्या कमी रह गयी थी कि बेटा धीरे-धीरे अपराध की दुनिया की ओर बढ़ने लगा और लाख समझाने के बावजूद भी बाबूजी उसे संभाल न सके. बेटा बगैर कुछ बोले घर से निकल गया और शाम को अपेक्षाकृत शीघ्र घर लौट आया. अमेरिका से छोटे बेटे का वीडियोकाल आते ही अरुण की रुलाई फुट
पड़ी. मानो कह रहे हो कि बेटा बैंक का कर्ज तो सह लूँगा यह शारीरिक, मानसिक दर्द सहा नहीं जाता है. उन के चहरे पर खींची दर्द की लकीर को उस ने देख लिया था. कुछ देर दोनों एकदूसरे के दर्द को महसूस करते रहे, " तेरी अमेरिका में इंजीनियरिंग की सर्विस लग गई हैं, बड़ी ख़ुशी हुई, " वे बड़ी मुश्किल से बोल पाए थे. वे कैसे बताते की बेटा तेरे जाने के इंतजाम में इतना कर्ज हो गया कि उस कर्ज के बोझ और तेरी याद भुलाने के लिए दारू का सहारा लेना पड़ा. फिर कब पीलिया हुआ मालूम ही नहीं पड़ा. इस पीलिए ने लीवर बिगाड़ दिया. लीवर ने किडनी ख़राब कर दी. इस के बाद वे दर्द से बोल नहीं पाए. " डॉ ने क्या बताया है ?" अपने आंसू रोक कर विकास ने बड़ी मुश्किल से पूछा. " पिताजी की अस्पताल से छुट्टी करवा लो. शायद उन्हें दर्द से मुक्ति मिल जाए. और हमें भी ..." कहते हुए विकास ने आँखों से आंसू पौछ कर मोबाइल बंद कर दिया. . बर्बादी का सामान लिये पुलिस से बचता हुआ वो, अपने बचाव के लिये उसके घर में आ घुसा था। कमरे में लगी तस्वीरो से कोई कला प्रेमी लगने वाला वो अपाहिज शख्स अपनी बैसाखी पर खुद को संभाल पाने से पहले ही उसकी 'गन' की जद में आ चुका था। दीवारो पर सजी तस्वीरो में देश के विभाजन की एक तस्वीर देख वो एकाएक बैचेन हो गया और अनायास ही उसका गुस्सा नफरत बन शब्दो में ढल गया। "हमें चंद टुकड़े जमीं के भीख में देने वालो, तुम्हारी बर्बादी ही हमारा मकसद है।" "बेटा ! कितनी पीढ़ीयो तक दामन में नफरत लिये ये बर्बादी के खेल खेलते रहोगे।" अपाहिज ने उसे देखते हुए कुछ संजीदगी से कहा। "जब तक नामोनिशां न मिटा दे तुम्हारी हस्ती का।" "असंभव है पुत्र, यहां कदम कदम पर मां के लाल रक्षा की अलख जगाये बैठे है।" "दो-चार दिन अलख जगाकर पूरे वर्ष सोने वालो का देश! ये बचायेंगें ?" मन की कलुषता ने अट्ठाहस शुरू कर दिया। "निस्संदेह पुत्र, ये कृष्ण की भूमि है जहां दुश्मन प्रेम को न समझ पाये तो विंध्वस का मार्ग भी अपना लिया जाता है।" अपाहिज शख्स ने उसके पीछे लगी कृष्णा जी की तस्वीर की ओर हाथ बढ़ा इशारा करते हुए अपनी बात कही। बाजी पलट चुकी थी और गन अब कलाप्रेमी के हाथ में थी। दुश्मन की भयभीत आँखें अब कृष्णाजी के साथ लगी एक पुरानी तस्वीर पर जा टिकी थी जिसमे कलाप्रेमी शख्स फौजी वर्दी पर मैडल लगाये शान से खड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर झल्लाहट का भाव आया और एक बार उसने सोचा कि एक भद्दी सी गाली दे उनको, लेकिन अपने गुस्से को जज़्ब करते हुए वो बोल " आपको कहीं जाना है, लिफ्ट चाहिए, रोक क्यूँ लिया मुझे "! आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई साहब जी , प्रणाम ! हमेशा की तरह त्वरित गति से संकलन प्रकाशित करना , आपकी कार्यक्षमता और कर्तव्यनिष्ठा के साथ आप के जज्बे को दिखाता है . इस लघुकथा गोष्टी की सफलता और संकलन के लिए हम सब की ओर से आप को हार्दिक बधाई एव शुभकमनाएं स्वीकार करे. संकलन में सम्मिलित मेरी रचना में "डॉ" को "डॉक्टर" करने की कृपा कीजिए. सादर निवेदन है. ...
./\.... प्रणाम स्वीकार कीजिएगा .
बारिश की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस उत्तरायण में इस क़दर भावुक मन होना वह स्वीकार नही कर पा रही थी और अस्विकार भी। फिलहाल, संध्या अपने मन के सारे विक्षोभों को परे धकेल, अपने आप को पूरी तरह मन के हवाले कर देना चाह रही थी। और फूलों की तरह किसी डाली से लगी रह कर डोलना व तितली की तरह उडना चाह रही थी। इस हल्की हल्की बारिस की बूंदों की सिहरन, मन के अंतरतम तल तक महसूस कर लेना चाहती थी। दिल तक। इस अंजानी खुषी व षीतल छुअन ने पेड़ पौधों लताओं व गुल्मों को हौले हौले तो कभी जोर से हिलते पत्तों के संगीत में डूब जाना ही चाहती थी। बाहर गुलमोहर की पत्तियों से छन छन करती बूदें स्वर लहरियों में खो जाना चाहती थी। ऐसे में संध्या सोच रही थी कि जीवन की इस संध्या में कोैन सा बसंत हरहरा रहा है। और हरहरा रहा है तो उसमे डूबना कितना उचित है पर वह इन सब बातो से बेपरवाह हो जाना चाहती है। बस इस वक्त तो बादल सा बरसने का ही मन कर रहा था। वह अपने को रोक नही पायी। बूंद बूंद बरसने से। डेक मे एक सूफियाना गाना लगा। न जाने कब ड्रेसिंगटेबल तक पहुंच दोनो हाथों को पीछे ले जा बालों का जूडा बानती हुयी अपने आप को देखने लगी। गौर से। मांग के अगल बगल व कनपटी के दो चार बालों को छोड दिया जाये तो अभी भी सारे के सारे काले व घने बाल किसी भी औरत के लिये ईष्या का कारण बन जाते है। उसके चंद चांदी से बाल भी इस उम्र को और पका व निखरा ही बना रहे थे। चेहरे पर अभी भी नमक व गमक मोती से चमक रहे थे। स्ंाध्या को लग रहा था आज जिंदगी मे पहली बार अपने आप को आइने में देखा है। कभी देखने का मौका ही न आया जिस उमर में लडकियां अपने खिलाव व उभारों को देख देख खुश होती हैं उस उमर मे ही तो रीतेष ने डोरे डाल दिये। पहली बार जव उसने प्यार का इजहार किया तब तक तो वह उसका मतलब भी ठीक से न समझ पाने की उम्र में थी। तब वह कितना घबरा गयी थी। हडबडाहट में उसने यह बात जा कर आई से कह आयी थी। कि रीतेष मुझसे शादी करने को कह रहा है। उस दिन तो लोगेां ने रीतेश की बातों को मजाक में लिया पर एक दिन जब यह खबर मिली कि रीतेश ने नदी में छलांग लगा दी है कि अगर संध्या से शादी नही हुयी तो वह मर जायेगा। तब वह अंदर ही अंदर दहल गयी थी। उसे तो समझ ही न आ रहा था उसे क्या करना चाहिये। हालाकि उसकी साथ की सहेलियां उससे चुहल करती कि तेरे को कोई तो इतना चाहता है जो जान भी दे सकता है। यह सब सुन सुन कर उसकी चिडिया जैसी जान सूख जाती। वह समझ ही न पाती कि इस पर वह किस तरह रिएक्ट करे। जब इस प्रकार
की कई हरकतें रीतेश करने लगे अपनी पढाई लिखाई छोड गुमशुम से रहने लगे तो उसके घरवालों ने अपने एकलौते बेटे की खातिर उसके यहां रिश्ता लेकर आये जिसे पहले तो उसकी मॉ ने मना कर दिया। जिसका सबसे बडा कारण रीतेश का उनकी जात का न होना तो था इसके अलावा संध्या की उमर भी बहुत कम होना था। पहले तो उन्होने कहा कि अभी नही पहले बच्ची को पढ लिख तो लेने दीजिये पर बहुत समझाने पर चार साल बाद ही रीतेष के साथ हाथ पीले कर दिये गये। मॉ ने यह सोच कर भी हामी भर दी थी कि चलो अगर घर बैठे बैठाये अच्छे खाषे घर का रिस्ता आ रहा है। लडका इकलौता है अच्छी खासी जायजाद है। लडका भी देखने सुनने में ठीक ठाक है। तो ऐसे मे न करके बाद में वह अकेले कहां कहां वर खोजती फिरेगी। हां कर दिया था। षादी के वक्त उम्र ही क्या थी। उन्नीस साल। आज कल तो इस उम्र में लडकियां जींस टाप्स पहन कालेज में मटकती रहती है। अपने ब्वायफ्रेड के साथ धौल धप्पा करती हंसती खिलखिलाती। बिंदास चिडिया जैसी। हालाकि उस दौर में इतना खुलापन नही था। फिर भी लडकियां सलवार सूट में कालेज आना जाना शुरू कर चुकी थीं। पुरुष सहपाठियों से हल्के फुल्के मेलजोल को थोडे बहुत विरोध से सहमति मिल ही जाती थी। पर उसे तो इन सब बातों को मौका ही कब मिला। मांग मे सिन्दूर भर कर कालेज जाना और कालेज मे भी रीतेश का साथ होना। चौबिसों घंटे के साथ मे रीतेष भी खुश रहता। उसे लगता जैसे बच्चे को उसके पसंद का खिलौना मिल गया हो। और वह उससे दिनरात खेल रहा हो। वह उसके इस प्रेम को देखती और खुष होती। धीरे धीरे उसे लगा यही तो प्रेम है। वह रीतेष के साथ हंसती खिलखिलाती। पर कहीं न कहीं मन मे उसे रीतापन सा व्याप्त रहता लेकिन वह इस बात को मन से झटक देती उसे लगता हो सकता है वह ही ठीक से न समझ पाती हो अपने आ
पको। संध्या विचारों में और गहरे उतर पाती कि बीबी की आवज से वह चौक गयी। घडी की तरफ देखा शाम के पांच बज चुके थे। बीबी 'मॉ' की चाय का वक्त हो चुका था। उसी के लिये आवाज दे रही थी। संध्या ने जल्दी जल्दी एक कप चाय बीबी के लिये दूध वाली बना कर दे आयी और फिर अपने लिये एक कप बिन दूध की नीबू वाली काली चाय बना के फिर से अपनी खिडकी के पास आ कर बैठ गयी। खिडकी के षेड से पानी की बूंदे थम थम के गिर रही थी। मन ही मन वह भी तो बूंद बूंद रिस रही रही है अपनी यादों में अपने सूने पन में अपनी उन इच्क्षाओं को लेकर जिसे वह कभी समझ ही नही पायी कि वे क्या इच्क्षाऐ हैं। हो सकता है इसका मौका ही न आया हो। उसी तरह जिस तरह उसने कुवारे पन के प्रेम को जाना ही नही। खैर संध्या अपने माज़ी मे डूबती उसके पहले ही मोबाइल मे एस एम एस फलैष की चमक देखते ही उसके चेहरे पे भी चमक आ गयी। जिसे वह चाह के भी नही रोक पाती। हालाकि उसे खूद पे भी आर्ष्चय होता कि ऐसा क्यूं ? मगर यह सब सोचना भी वह बाद के लिये मुल्तवी करके मोबाइल के एस एम एस को पढने लगी। संध्या के चेहरे पे मुस्कुराहट फैल गयी। औरत एक नदी है। स्ंध्या ने कुछ देर तक तो खिड़की के बाहर उडते परिंदो को देखा, उनकी चहचह सुना, तितलियों को फूलों पे मंड़राते देखा, बारजे से टपकती बारिस की बूंदो को देखा। फिर हौले से बाहर के सारे द्रष्य छोड गुनगुनाती हुयी ड्रेसिंग टेबल के सामने खडी हो गयी। अपने आप को सी एफ एल की दूधिया चांदनी में देखने लगी। अपने ही चेहरे को देख कर शरमा गयी। उसे लग ही नही रहा था यह वही संध्या है। उसे लगता वह आजकल रोज रोज बदलती जा रही है। चेहरे पे रोज रोज निखार आ रहा है। इस उम्र में अपने अंदर के परिवर्तन को देख देख खुद न समझ पा रही थी। यह भावनाएं मन के किस कोने में दबी ढ़की थी जो अब उभर रही हेै। जैसे जलने के पहले ही बुझ गयी थी उपले की आग थोडा कुरेदते ही फिर से लहलहाने के लियो व्याकुल हो रही हो। लेकिन इस आकुलता व्याकुलता में भी उतावला पन कहीं न था अगर हो भी तो वह किसी मैदानी इलाके में मंथर गति से बहती नदी की तरह अंदर ही अंदर से हरहरा रही थी। क्या कोई मैदानी इलाके की मंथर गति से बहती नदी को देख कर अंदाजा लगा सकता है कि यह पहाडी नदी अपने उदगम पे कितनी शुभ्र,और उज्जवल थी जिसे इस मैदान पे आने आने तक न जाने कितने पत्थर दिलों को चीरना पडा होगा न जाने कितनी चटटानों पर सिर पटकना पडा होगा, न जाने कितने अवरोधों को पार करना पडा होगा न जाने कितने पेड पौधेां व झुरमुटों को अपने अंदर ही अंदर बह जाने दिया होगा। न जाने कितनी बार अपने आप को मैली होने से बचाना पडा होगा। तब जा कर मैदान में आकर मंथर गति से बह पा रही है। पर अभी भी तो लोग सतह ही देख रहे हैं क्या किसी ने देखा कि उसके अंदर भी लहरे अभी भी मचल रही हैं अभी भी उसके अंदर गति करने का माददा है अभी भी वह नदी ही है जो हरहरा सकती है अपनी पूरी स्निग्धता व भव्यता के साथ। पर नही कोई भी तो नही है जो उसके अंदर की हिलोरों
को महसूस करता जो भी मिलता वह बस नहा के अपने आपको तरोताजा करने की नियत से ही पांव पखारने की कोषिश की। खैर अब तो वह किसी की भी परवाह नही करती। परवाह करने का यह मतलब नही, वह किसी को दुख देना चाहती है। हालाकि वह किसी को दुखी कर भी नही सकती। यह उसकी फितरत में ही नही है। फिलहाल जलजले के बाद उसने अपने जीवन व बच्चों के बारे मे जो जो भी सोचा वह हो जाने के बाद, सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद जब कि महज जलजले की स्म्रतियां ही शेष है। वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी रही है। हौले - हौले बहते हुए। अपने अंदर की लहरों को देखते हुए। फिलहाल जबकि बच्चे अच्छे से विदेषों मे जाकर सेटल हो चुके हैं अपने अपने परिवार व बिजनेश में खुष रहने लगे। तब जाकर उसने अपने आपको अपने तक सीमित कर लिया। अब तो उसने अपनी सारी दुनिया अपने कमरे मे ही सजा ली है। मॉ को समय समय से नाष्ता खाना व दवाई दे कर उनका टी वी चला देती और फिर वह अपने कमरे मे अपने आपको कैद कर लेती। फिर बहती मंथर गति से हौले हौले। बस तब वह बस बहती बहती ओर बह रही होती है। अपने अकेलेपन में अपने माज़ी में अपनी कल्पनाओं में अपनी कविताओं और पंेटिग्स में। कभी कभी मन बहलाव के लिये नेट पे बैठ बच्चों से चैट कर लेती और हालचाल भी ले लेती। और फिर कभी खिडकी पे बैठ हरसिंगार की पत्तियों के पीछे से झांकती लम्बी खाली सपाट सडक को देखती। जिसमें इक्का दुक्का रहगुजर ही कभी कभी दिखाई पडते। उस दिन वह जब पेंटिग करते करते उब गयी तब नेट पर किसी साहित्यिक अंर्तजाल पे जाकर किसी नयी रचना को पढ़ना चाह रही थी कि एक कहानी का षीर्षक देख नजरे रुक गयी। 'पहाड़ और नदी' जिसमें नायक नायिका से कहता है। तब नायिका बिफर कर कहती है। यह कहानी पढ कर बहुत देर तक वह रोती रही। और फिर रहा न गया तो उस क
हानी के लेखक को मेल कर ही दिया। प्रभात जी, अभी अभी, नेट पर आपकी कहानी 'पहाड़ और नदी' पढी। खाशी भावुक व मन को छू लेनी वाली कहानी लिखी है। किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी यह कहानी अंर्तमन तक हिला गयी। एक अच्छी रचना के लिये आप बधाई के पात्र है। लेकिन क्या बात है इसके बाद आप की कोई रचना नही आयी। यदि हो तो वह कहां व कैसे उपलब्ध हो सकती है। दूसरे ही दिन एक छोटा सा जवाब मेल बाक्स में नमूदार हुआ। संध्या जी, आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। जान कर प्रसन्नता हुयी। रही आपके प्रष्न की कि मेरी दूसरी रचनाएं क्यों नही आयी। इस संदर्भ में मात्र इतना ही कहना चाहूंगा कि लेखन मेरा व्यवसाय या मिसन नही। षौक है। लिहाजा जब तक कोई विचार अंदर तक हिलाता या भिगोता नही तब तक मेरी कलम चलती नही। लिखने के लिये लिखना आदत नही। पर ऐसा नही कि इसके बाद लिखा नही थोडा बहुत जो भी लिखा उसे अपने तक ही सहेजे हूं। वैसे से भी मुझे छपास की कोई बहुत ज्यादा ललक कभी रही नही। लेखन मेरे लिये एक रेचन की तरह है जिसके बाद मै अपने को हल्का कर लेता हूं। या कह सकती हैं स्रजन मेरा स्वांतह सुखाय कर्म है। फिलहाल मै आप को अपनी एक और कहानी भेज रहा हूं। यदि आपको पसंद आती है तो यह मेरा सौभाग्य होगा। उसके बाद से रचनाओं और पत्रों का एक सिलसिला ही निकल पडा। उसके बाद फोन पे बातों ने नदी के लिये एक नये और अंजानी मंजिल का रास्ता खुलता गया जो उसकी नदी की मंथर गति में हौले - हौले गतिषीलता देता जा रहा था। अचानक उसे खयाल आया एस एम एस का तो उसने जवाब ही नही दिया। पर इस वक्त वह इस मेल का जवाब देने की जगह बात करना ही उचित समझा। संध्या की नाजुक उंगलियां मोबाइल के मुलायम की पैड़ पर खेलने लगीं। बाहर अभी भी हरसिंगार की पत्तियों से व खिडकी के शेड से बूंदे गिर रही थी। जो नियॉन बल्ब की दूधिया रोशनी में चमक रहे थे। संध्या की हंसी उसमे जलतरंग सा बज रही थी। पहाडी बरसाती काली रात आज भी कालिमा से व्याप्त थी पर न जाने क्यूं उसे आज उतनी भयावह न लग रही थी। उस कालेपन में एक कोमलता व गहराई अनुभव कर रही थी। मन हौले हौले मस्ती में डूबना चाह रहा था दो चार दिनों में ही आये अपने अंदर के इस परिवर्तन को वह समझ तो रही थी। रोकना भी चाह रही थी पर न जाने मन देह व दिल दोनेा जीवन भर की आदत व तपस्या का संग साथ छोड रहे थे। पर वह उसी भाव में तो बहना चाह रही थी। मन की एक एक लहर को गिनना व जीना चाह रही थी। लिहाजा रात का खाना मॉ को खिला के खुद खा के अपना पसंदीदा टी वी सीरियल भी देखना छोड नेट पे आ बैठी षायद कोई नयी मेल आयी हो। मेल बाक्स ढेर सारी जंक और बेकार मेलों से भरा पडा था जिसे वह एक एक कर डिलिट करती जा रही थी। उसी मे वह मेल भी थी जिसमे उसने अपने बारे में लिखा था। संध्या जी, तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिष और बारिष व तूफान स
े टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है। उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती। वहां जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। षेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस षावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां। ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी शिकवा शिकायात के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये। जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं। जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं।
और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं। यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं। और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नषा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है। बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं। लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो। बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह। नोट ...आपको तुम लिखने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं। पर इस खत में आप से अपनापन नही आ रहा था। इसलिये यह गुस्ताखी की है। उम्मीद है आप मॉफ करेंगी। इस खत को पढ कर कितना उदास हो गयी थी काफी देर तक रोती रही थी। संध्या ने खत को आज भी पूरा का पूरा पढ गयी। ? उदासी एक बार फिर उसके वजूद में पूरा का पूरा घिर आयी। बाहर काली रात अब और काली हो चुकी थी। बारिष की बूंदे तेज और तेज हो कर खिडकी के शेड से अब बूँद - बूँद की जगह धार से बहने लगी थी। हर सिंगार का पेड भी पानी से तरबतर हो रहा था खुले आकाश के नीचे। पापा के न रहने पर भी मॉ ने षादी मे कोई कोर कसर न छोडी थी वह नही चाहती थीं को बेटी को कहीं से यह अहसास हो कि उसके पापा नही है। और उधर रीतेश के घर वालों ने भी तो कोई कोर कसर न छोडी थी अपने हिसाब से जो भी अच्छे से अच्छा बन पडा किया। करते भी क्यूं न उनके एकलौते लडके का ब्याह जो हो रहा था। और बहू भी तो चॉद जैसी थी। सबसे बडी बात लडके को पसंद थी। सब कुछ कितना शौक से हुआ था। वह भी उस खुषी मे सामिल थी। उसे भी सब कुद अच्छा अच्छा लग रहा था। दो चार दिनों मे ही तो उसने ससुराल के हर एक का मन मोह लिया था। जो भी आता उसकी तारीफ किये बगैर न रहता। सभी उसके रुप और गुण दोनो की तारीफ करते न अघाते। और करते भी क्यों नही क्या नही था उसके पास सुंदर तो थी ही पढने लिखने मे भी अच्छी थी गाना बजाना उसे आता था। स्वभाव भी उसका सबके प्रति प्रेमपूर्ण था। रीतेष तो उसके प्रेम में पागल थे ही। पीछे पीछे उसके डोलते रहती। जहां वह जाती वहीं वह भी रहती। साथ सोना साथ जागना साथ साथ कालेज जाना। बी ए के अतिंम वर्ष में ही तो विवाह हो गया था। फिर एम ए मे दोनो ने एक साथ ही दाखिला लिया था। अब तो कालेज भी एक साथ जाना आना होता। रीतेश सितार अच्छा बजाते जब वह बजाते त
ो वह गाया करती। दोनो की जोडी अच्छा समां बांधती। दोनेा कबूतर कबूतरी से हर दम गुटर गूं गुटर गूं करते रहते। हालाकि इतने ढेर सारे सुखों के बीच में भी संध्या के दिल में कहीं न कहीं एक खलिष की हल्की हल्की लहर कभी न कभी नदी की तलहटी से उपर आ ही जाती उसे लगता कि क्या यही प्रेम है क्या इसी के लिये लडकियां परेषान रहती है। वह अक्सर अपने आप से पूछती पर उत्तर न मिलता। तो वह फिर रीतेष की बाहों में अपना गौराया सा चेहरा दुपका के सो रहती। झील सी गहरी ऑखों का मीठा मीठा पानी कसैला हो गया। नदी गोमुख से निकल पहाडों पे कल कल कर रही थी अपनी पूरी भव्यता और सुंदरता के साथ। संध्या की झील सी ऑखें हर समय झील से लहराती रहती। रीतेश ही नही जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। जो कोई भी देखता बिना रीझे न रहता। हर कोई कहता। रीतेष की बहू बहुत सुन्दर है। रीतेश की बहू बहुत अच्छा गाती है। रीतेश की बहू बहुत अच्छा बोलती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बतियाती है। रीतेश की बहू तो की बोली बानी तो बिलकुल कोयल सी है। रीतेश की बहू पढने लिखने भी बहुत होषयार है। रीतेष की बहू रीतेश की बहू। जिसे देखो वही रीतेश की बहू के गुणगान में लगे रहते। वह भी मस्त और मगन कोयल सी कुहुकती व चिडिया सी फुदुकती रहती। खुष खुष। पर उसे यह तनिक भी अहसास न हो रहा था कि उसकी जितनी भी तारीफ होती है उतना ही मन का कोई कोना रीतेष के अंदर टूटता है। उसे लगता कि शायद संध्या के आगे तो उसका वजूद चुकता जा रहा है। वह उसकी दीप्ति के आगे छिपता जा रहा है। अंर्तमुखी रीतेश के व्यवहार ने संध्या को यह अहसास ही न होने दिया कि इनफियारिटी कॉम्पलेक्स की कोई गांठ रीतेश के अंदर बन रही है। वह तो उनकी चुप्पी को उनका स्वभाव समझती और उन्हे ज्यादा से ज्यादा खुष रखने की कोशिश करती।
वह उन्हे जितना खुष रखने की कोषिष करती रीतेष उतने ही गुमसुम्म हो जाते और चुप हो जाते पहले तो दो चार दिन में फिर से सामान्य हो जाते पर उनका यह गुमषुम पना अंदर ही अंदर क्या गुल खिला रहा है। जब तक उसे पता लगता लगता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक जीवन का बसंत कब बारिस के मौसम मे बदलता गया जो धीरे धीरे तूफान में बदला अैार तूफान एक ऐसे जलजले में बदल गया जिसमें सब कुछ बह गया। जिसे संवारते संवारते आज इस किनारे पे आ लगी है। जहां साथ देने को सिर्फ है तो मॉ है जो उसकी जननी है। पर फिलहाल यह सब सोचते सोचते उसे भी काफी देर हो चुकी थी। बाहर धुंधलकी बरसाती ,शाम कब काली अंधियारी रात में बदल गयी उसे पता ही न लगता अगर मॉ ने चाय व दवाई के लिये आवाज न दी होती। रीतेश के जिस घुन्नेपन को वह उसका स्वभाव समझती उसके पीछे कितना घिनौना चेहरा छुपा है उसे धीरे धीरे पता लगता गया। पहले तो उसकी और मीना और उसके मेल जोल को मौसेरे भाई बहनों का स्नेह समझती कोई ज्यादा ध्यान ही न दिया पर बाद में उसे पता लगा कि उनलोगों को रिस्तो की पवित्रता का कोई अहसास नही है। वे दोनेा तो भाई बहन के इस पवित्र रिस्ते के पीछे इना घिनौना खेल खेल रहे थे कि सुन के ही उसे उबकाई आ गयी। जिस दिन पहली बार इस बात का पता लगा वह विष्वास ही न कर पायी कि दुनिया में एसा भी हो सकता है और उसी के साथ हो सकता है । रीतेष और मीना को एक साथ आपत्तिजनक अवस्था में उसने खुद देखा। उस दिन उसके शरीर में फिर गंदे कीडे रेंगने लगे जिनसे निजात पाने के लिये वह कितना रोयी थी कितना तडपी थी यह उसकी आत्मा ही जान सकती है या वह खुदा जिसने उसे बनाया है। इतने बडे आघात को वह महज इस लिये सह गयी कि अब तक वह फूल सी बच्ची व एक बेट की मॉ बन गयी थी। अब सवाल सिर्फ उसकी जिंदगी का ही नही रह गया था इन बच्चों का भी जीवन उसके व रीतेश के साथ जुड गया था। और फिर वह पिता के न रहने का दर्द अच्छी तरह से जानती थी। इसलिये वह कोई ऐसा कदम नही उठाना चाहती थी कि उसकी बेटी को बाप को प्यार न नसीब हो। इस लिये उसने अपने सीने पे पत्थर रख कर भी रीतेश व मीना के घिनौने संबंध को स्वीकार कर लिया था। पर अब जब भी रीतेश उसे छूते तो वह तडप उठती लगता कि रीतेष के हाथ नही गंदगी से लिथडे हाथ है जो गंदे कीडों सा शरीर पे रेंग रहे हैं पर वह उन गंदे कीडों को भी बरदास्त कर गयी। जब रीतेश ने रो रो के मॉफी मांगी थी और मॉफ न करने पर मर जाने की धमकी दी थी। । पर उसका मासूम मन तब भी नही समझ पा रहा था कि यह कसम भी उसी तरह की झूठी कसम है जिसे उसने शादी के पहले खायी थी। संध्या रोती जा रही थी और इन सब बातों को सोचती जा रही थी। उसके अंदर की एक एक लहर बह रही थी। रीतेष माफी मांगने के बाद बहुत दिनो तक शर्मिन्दा न रह सके कुछ दिन बाद उनकी मीना के साथ फिर वही रासलीला शुरू हो गयी। बस फर्क इतना था कि अब यह खेल थोडा ज्यादा ही लुका छिपा के खेला जाता पर यह लुकाव छिपाव भी ज्यादा दिन न चला उजागर हो ही गया। लिहाजा इस बार संध्
या ने कुछ कहा तो नही। बस रीतेष को अपने पास न फटकने देती। वह उनके साथ रह के भी न रहती । उनको चुपचाप खाना दे देती। सारा काम कर देती जैसे वह उनकी नौकर हो। वह बिलकुल टूट चुकी थी पर सास का स्नेह व ससुर का वरदहस्त ही था जो उसे सम्हाले हुआ था। वर्ना फूल की यह डाली तो टूट ही गयी थी। सोचते सोचते संध्या की आंखें सावन भादों बन बरसन लगी। बाहर बादल भी पूरी जोर से बरस व गरज रहा हो मानो वह भी इस वक्त संध्या के दुख से दुखी हो गया हो। वह न जाने कितनी देर और रोती रहती अगर मोबाइल की घंटी न बजी होती। उसने झट ऑखें पोछी और, हैंडसेट की लाइट में प्रभात का नाम चमक रहा था। मौसम अपना मिजाज रोज रोज बदल रहा है। दो दिन पहले तपन थी कल बादल छाये थे और आज बारिस। ऐसे ही संध्या का मन भी रोज रोज बदल रहा था। वह अपने अंदर आये इस बदलाव से पूरी तरह वाकिफ थी। पर बेबस थी इस बार उसकी इच्छा षक्ति काम न दे रही थी। ऐसा नही था इतने दिन की एकाकी यात्रा में कोई ऐसा रहगुजर न मिला हो जिसके साथ बैठना बोलना अच्छा न लगा हो। पर हर बार दो चार मुलाकातों में ही अपने घिनौने हाथ पैर पसारने शुरू कर देते। देह में घिनौने कीड़े रेंगने लगते। जो मन तन को गंदा ओर वीभत्सता से भर देते और वह घोर वित्रषणा से भर उठती। पता नही शायद वही वित्रषणा रही हो या कि कोई ओर अन्जाना कारण उसके अंदर गांठ के रुप में पलता बढता गया जो आज इस रुप में उभर आया है। जब वह किसी भी व्यक्ति और वस्तु को छूना उसे गंवारा नही होता। हर चीज व वस्तु जब तक दो तीन बार धो के साफ नही कर लेती उसे लगता यह चीज गन्दी है। हर चीज वह धो पोछ के ही इस्तेमाल करती है। उसकी इसी आदत से निजी जीवन भी बुरी तरह से बाधित होता गया। और वह धीरे धीरे और और एकाकी होती गयी। इधर दो तीन सालों में जब से बच्चे
अपने अपने स्थानों में गये, तबसे तो घर में ही कैद हो के रह गयी है। जहां सिर्फ वह है और मॉ। मॉ का काम धाम करके बस दिन भर साफ सफाई में ही लगे रहना उसका षगल बन गया उसे लगता हर एक चीज मैली है गन्दी जिसे छू कर वह भी गन्दी हो जायेगी। कभी कभी तो उसे भिण्डी जैसी सब्जी में भी किसी पुरुष की उंगलियां नजर आती जो उसे छूना और ड़सना चाहती है। इस परेशानी को डाक्टर ओ सी ड़ी कहते हैं जिसका इलाज भी कराया पर कोई खास रिजल्ट नही आया। अब तो इलाज कराना भी छोड दिया है। इसे भी एकाकी पन की तरह स्वीकार्य कर लिया है। देह में चिपके कीडों को पहली बार तब महसूस किया था। महज आठ व नौ साल की खूबसूरत गुडिया । हर वक्त फूल किस खिली खिली। जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। तारीफ किये बिना न रह जाता कह ही उठता संध्या अभी इतनी सुंदर है तो बडी होकर तो किसी राजकुमारी से कम नही लगेगी। यही फूल सी राजकुमारी बंगले के अहाते में खेल रही है। अकेले ही एक पैर पे उचक उचक के अपने आप में ही मगन है। पास ही उससे कुछ बड़ा पर मोट और गबदू सा लडका भी खडा है । बाबर। वह चुपचाप बडी देर तक तो फूल सी बच्ची को देखता रहा फिर पता नही क्या मन में आया कि उसने उसे अपने दोनो हाथों में दबोच के पास के ही गढढे में कूद गया। फूल बेहद डर गयी बाबर उसे दोनेा हाथों से पकडे था। वह घबराहट में रो भी न पा रही थी। पर पता नही कैसे वहां से उठ के भागी और जा कर आई की गोद में दुबक गयी। सबके बहुत पूछने पर भी वह कुछ न बोली उसके साथ क्या हुआ। पर रात सपने मे उसे लगा जैसे उसे बाबर नही किसी बडे से कीडे ने पकड लिया हो। वह सपने में ही घबरा गयी। षायद तब से ही उसे हर चीज लिजलिजी व गंदी सी लगती कोई भी उसे छूता तो लगता कोई कीडा छू रहा हो। उसके बाद तो न जाने कितनी बार नजरों के कीडे काटते चले आ रहे है उनसे बचते बचते आज एक उम्र गुजर गयी पर अभी भी कीडों से निजात नही मिली लगता है थोडा सा लपरवाह हुयी और इन कीडों ने देह में रेंगना शुरू किया। यह सब सोचते सोचते न जाने कब संध्या की खूबसूरत झील से आँखे भर आयीं जिसके ऑसुओं को समाज के इन गंदे कीडों ने कसैला कसैला कर दिया था। प्रभात की गजल का यह शेर संध्या कई बार मन ही मन दोहरा चुकी है। हालाकि यह सच है कि कभी उसकी जिंदगी के लिये यह बात सही रही होगी पर आज उम्र के इस मुहाने पे यह बात पूरी तरह से नही कहा जा सकता है। अब तो सब कुछ निपट चुका है। बच्चे सेटल हो चुके हैं उनकी शादी हो चुकी है अपने अपने घर मे खुष हैं प्रसन्न हैं। जिंदगी एक ढर्रे पे चल रही रही है। यह अलग बात है कि तन्हाई मे आज भी वह खलिश जो वह रीतेश के साथ रहने पर भी महसूस करती थी वह आज भी है और अब तो कुछ गाढी हो के उभर आयी है। या हो सकता है की गाढी तो पहले से ही रही हो पर इतनी शिद्दत से सोचने का मौका न मिला हो। संध्या ने रोजमर्रा के काम समाप्त किया। मॉ को दवाई और दलिया खिला दिया जो लेटी लेटी झपकी लेने लगी तो वह भी अपने लिये नीबू की चाय बना के खिडकी पास ही कुर्शी लगा क
े बैठ गयी। बाहर गुलमोहर रोज सा अपने आप मे हौले हौले हिल रहा था। काली लम्बी सूनसान सड़क दूर तक पसरी थी जो कभी कदार एक आध मुसाफिर के आवागमन से कुछ देर को गुलजार होती और फिर उसी सन्नाटे मे पसर जाती। संध्या की जिदगी भी तो किसी पॉश कालोनी की दोपहर की सूनसान सडक ही तो है। जहां दिन मे एक दो बार बच्चों के फोन कॉल या फिर मॉ की दवाई और दर्द की कराहों के सिवाय कोई हलन चलन नही है। गुलमोहर के पेड के साथ साथ उसका साया भी हौले हौले हिल रहा था। इस हलन चलन को देखते देखते संध्या को अपने बदन पे फिर से कीडे रंगते महसूस होने लगे। वह बेचैन होने लगी। कीडे एक बार फिर उसकी स्म्रतियों मे रेंगने लगे। रीतेष अपनी आदतो मे सुघार करना ही नही चाहते थे। कई बार लडाई झगडा और समझौता हुआ पर कुड दिन बाद फिर वही हरकते वह उब चुकी थी काफी अंदर तक टूट चुकी थी। हालाकि सासू मॉ और ससुर का उसके प्रति प्रेम बना था और वे खुद अपने बेटे को ही गलत कहते थे। पर इन सब बातों से उसे तसल्ली नही हो रही थी। अंत मे उसने इस रिस्ते से भी समझौता कर लिया था अपने बच्चों की खातिर पर रीतेश दिनो दिन और ज्यादा घुन्ने होते जा रहे थे। इसी बीच जब उसके काम और मेहनत से खुष हो के युनिर्वसिटी ने उसे अपने डिपार्टमेंट को हेड बना दिया तो इस बात ने रीतेष के अंदर की हीन भावना को और मजबूत कर दिया जिसकी पूर्ती वह दूसरी औरतों को अपनी ओर आकर्षित करके अपनी मर्दानगी का सबूत देने और अपने आप को बेहतर साबित करने की नाकाम कोष्षि करते । रीतेश के एक और औरत से उनके सम्बंध हो गये थे। इस बात ने उसे पूरी तरह से झकझोर दिया और फिर जो होना था वही हुआ। वह अपने बच्चों को ले के अपने घर चली आयी। पिताजी के जाने के बाद भी मॉ उतनी टूटी न थी जितनी वह आज उसके वापस आ जाने से हुयी थी।
पर मॉ बहुत मजबूत कलेजे की थी उसने उसे ढाढस बंधाया और अपने काम काज मे लग गयी। और उसने भी अपने को मॉ की तरह अपने को नौकरी और बच्चों के बीच खपा दिया सुबह से षाम तक सोचने की फुरसत ही न मिलती जिंदगी नौकरी और बच्चों के बीच डोल रही थी। देव साहब लम्बा चौडा भव्य षानदार व्यक्तित्व कालेज के प्रिसिपल जिन्हे वह पिता तुल्य समझती जिनके आचरण और व्यवहार मे भी वही भव्यता छायी रहती पर इस भव्यता और आर्दष की परतें धीरे धीरे उतरती गयीं किसी पुराने बर्तन की कलई जैसे। संध्या उस कालेज के स्टाफ की षान थी स्अूडेंटस के बीच भी काफी लोकर्पिय थी अपनी खूबसूरती के कारण अपनी विदवता के कारण अपने व्यवहार के कारण पर उसके सारे गुण ते उसकी खूबसूरती दबा देती। हर प्रोफेसर हर स्अूडेंट उसके नजदीक आने के चाह रखता पर उसकी कोमलता मे भी छुपे हुए दृण निस्चय को देख के कोई हिम्म्त नही करता था अपनी सीमा रेखा के बाहर आने का। उन सब लोगो की तरह देव साहब भी उसके आकर्षण से अछूते न रहे और एक दिन अपनी असलियत दिखा ही दी। एक दिन जब एकांत पाकर प्रणय निवेदन करते हुए छूने की कोशिश की तो वा संयम से काम लेती हुयी बहाना बना के आफिस के बाहर आयी और फिर दोबारा कालेज लौट के नही गयी गया तो उसका इस्तीफी ही गया। बाद मे उन्होने बहुत मनाने अैर सफाई देने की कोशिश की पर संध्या टस से मस न हुयी। पर इस हादसे के बाद उसके अन्दर पुरुष जाति की नफरत के कीडे एक बार फिर कुलबुलाने लगे और दिन रात षरीर मे रेंगने लगे। नौकरी छूटने की चिंता बच्चों का भविष्य और मरदों की करतूतें उसे अंदर तक तोड डाल रही थी। पर उसने अपने को एक बार फिर संभाला इत्तफाक से उसे एक दूसरे कालेज मे दूसरे षहर मे फिर उसी स्टेटस की जॉब मिल गयी। उसने बच्चों को लिया और फिर एक नयी मंजिल की ओर चल दी। मगर इन सब हादसों का नतीजा हुआ उसके मन की कोमल धरती सूखती गयी सूखती गयी उसकी खूबसूरत आखों के आंसुओं की तरह। जमाने के कामुक कीडों ने न जाने तो कितनी बार उसे काटना चाहा छूना चाहा नोचना चाहा पर न जाने कौन उसकी अंदरुनी ताकत थी कि वह किसी न किसी तरह बच ही जाती पर वह इन कीड़ों के मानसिक डंको से न बच पायी और उसका ओ सी डी बढता ही गया दिनो दिन और अब हर चीज मे गंदगी ढूंडती अपने हाथ दिन मे कई कई बार धोती कभी डिटाल से तो कभी गरम पानी से और कोई उसको छू लेता तो वह उसके जाने के बाद या घर आने के बाद तुरंत कपडे धोती और नहाती ताकि उसके कीडे पानी मे बह जायें और वह फिर साफ सुथरी हो जाये पर वह जितना ही अपने आप को सफ सुथरा रखने की कोषिश करते ये कीडे और और और तेजी से रेंगने लगते। उसकी इस आदतों से बच्चे भी परेशान होने लगे थे। पर वह मजबूर थी अपने आप को समझाने मे। एक ओर जहां उसकी यह ओ एस डी की बीमारी बढती जा रही थी वहीं उसके मन की धरती भी सूखती जा रही थी पपडियाती जा रही थी। संध्या अपनी इन स्म्रतियों मे जाने कितनी देर तक डूबी रहती अगर उसे मॉ की आवाज न सुनायी देती पानी देने के लिये। इधर वह मॉ को पानी देने के लिये उ
ठी उधर बाहर सूनी सडक पर धूल का गर्म गुबार उड रहा था जिसके कारण गुलमोहर की पत्तियां और हिल रही थी। और उसका साया भी हिल रहा था। पता नही यह गुलमोहर का साया था या संध्या के दर्द का साया था ? सूनसान जंगल मे चुपचाप बहती रही। जीवन के जंगल मे चुपचाप बहती रही बहती रही। रात बीतती रही दिन गुजरते रहे। मॉ के पर्वत जैसे व्यक्तित्व और साये से जब निकली तो उसका जीवन किसी नयी नदी सा ही तो षुभ्र और उज्जवल था मन मे भावनाओं की लहरें कुलाचें मारने लगी थीं जो शायद पिता के न रहने की कमी से मन मे अंदरी ही अंदर हरहरा रही थीं पर उपर से षांत थी। रीतेष ने भी तो अपनी भूजाओं मे बांध बहने दिया था अपनी तरह से उफनते दिया था बहने दिया था और तब वह कितनी मगन थी कितनी खुष थी। लेकिन जिंदगी की राह मे न जाने कितनी बडी बडी चटटाने न जाने कितने बडे बडे रोडे आये जिनसे तो कई बार लगा भी कि अब वह कहां जाये क्या करे पर वह तो नदी थी अपना रास्ता खुद बनाना जानती थी। अपनी तरलता से कभी उन चटटानों के बगल से खुद को बह जाने दिया और जो छोटे मोटे कंकड पत्थर आये उन्हे बहा के दूर कहीं फेंक दिया। वह निर्बाध रुप से बहती रही बहती रही। वह नये शहर मे आके एक बार फिर अपने को सेटल कर लिया बच्चे स्कूल जाने लगे जिंदगी ढरें पे चलने लगी। वह सुबह से शाम तक अपने को कभी कालेज के काम मे तो कभी घर के काम मे उलझाये रखती। दीन बीतते रहे जिंदगी बहती रही हौले हौले गुपचुप गुपचुप। बेटी ने अपनी पढाई पूरी की नौकरी की और अपने एक कुलीग से शादी करके विदेश सेटल हो गयी। एक दो सालों मे बेटा भी वही जा के सेटल हो गया वहीं शादी कर ली। हालाकि वह अपने प्रेम विवाह का हश्र देख चुकी थी फिर भी उसने बच्चों के निर्णय मे कोई आपत्ती नही जतायी। उसका विचार है कि हर एक को अपना जीवन
अपने तरीके से जीने का पूरा अधिकार मिलना चाहिये। आज दोनो बच्चे अपने अपने परिवार मे खुष हैं प्रसन्न है। दिन बीते साल बीते मॉ रिटायर हो के उसके पास चली आयी । और जाती भी कहां मॉ का उसके सिवाय और कोई था भी तो नही वही तो इकालौती संतान थी। मॉ और बेटी दो लोंग बस। घर मे कोई ज्यादा काम होता नही दोनो मॉ बेटी अपने लिये मिल जुल के पका लेते और काम काज कर लेते न कोई किच किच न कोई परेशानी हॉ। सिवाय इस बात के भी की इस पकती उम्र मे भी कुछ पके और कुछ उससे कम उम्र के लोग भी उसे अकेला जान के पास आने की कोषिश करते । कई बार उसे भी लगा कि वह कुछ टूट रही है पर जब भी मर्द उसके नजदीक आता तो उसके षरीर मे कीडे रेंगने लगते और इस तरह से रेंगने लगते कि वह घबरा के उस व्यक्ति से दूर हो जाती और फिर अपने एकाकी राह मे मंधर गति से बहने लगती बिना किसी हलन बिना किसी चलन। यूं तो जिंदगी की नदी मे तूफान और भंवर आते ही रहे हैं। पर इधर वालेंटरी रिटायरमेंट के बाद से और बच्चों के सेटल हो जाने के बाद उसकी जिंदगी किसी जंगल की शांत नदी सा बह रही थी बिना किसी हलन बिना किसी चलन। ओर न जाने कितने दिन चलती ही रहती। गर प्रभात से परिचय न होता। हालाकि शुरुआती खतो किताबत से उसे ये उम्मीद नही थी कि यह सिलसिला इस हद तक बढे जायेगा कि उसके दिल की सूखी और दरककी हुयी धरती पे फिर से एहसासों के बादल बरसेंगे फिर से कुछ भावनाओं के उम्मीदों की कोपल फूटेंगी। संध्या आज भी अपने रुटीन के काम काज से निपट के खिडकी के पास बैठ निहार रही थी सामने की साफ सुधरी पर सूनी सडक को और निहार रही थी पर इस सूनी सडक को देख कर आज वह अपनी जिंदगी की इस एकाकी यात्रा को नही याद कर रही थी। बल्कि आज वह बाहर लॉन मे लगे मोगरा और जूही के फूलों की मीठी मीठी गमक मे खो जाना चाहती थी। अपने अंदर के एहसासों की नदी मे डूब जाना चाहती थी जो उसकी बरसों की परती पडी धरती पे जिंदगी के सारे कटु अनुभवों की कठोर चटटानो को तोाड के बह जाना चाहते हैं एक नदी की तरह एहसासों की गुनगुनाती नदी की तरह। किसी पहाडी नदी सा उचछंखरल तो नही पर मैदान मे बहती एक षांत पवित्र नदी की तरह। संध्या इन्ही ख्वाबों और खयालों मे डूबी हुयी थी कि मोबाइब पे एक बार फिर प्रभात का नाम फलैश हुआ मोबाइल की धंटी बजी और उसके अंदर जलतरंग बज उठी। एक बार फिर षायद पहली बार एहसास की गुनगुनी नही बह उठी बरसों की परती पडी धरती पे । मुकेश इलाहाबादी .. मुकेश इलाहाबादी .. इसे धारावाहिक प्रस्तुत करना था आदरणीय. यह प्रस्तुति तो सामान्य पाठकों के धैर्य की प्ररीक्षा लेती लगी.
कायरा रास्ते पर अपनी स्कूटी दौड़ाए जा रही थी , और उसके पीछे जय के आदमी उसकी सेफ्टी को ध्यान में रखकर , उसके पीछे - पीछे चल रहे थे । एक से दो किलोमीटर चलने के बाद कायरा को महसूस हुआ , कि कोई उसका पीछा कर रहा है । उसने तुरंत पीछे मुड़ कर देखा । लेकिन जय के आदमियों ने कायरा की हरकतों को भांप लिया और कायरा के पीछे मुड़कर देखते ही, उन्होंने अपनी कार की स्पीड एक दम मध्यम कर ली, जिससे वो लोग कायरा से काफी दूर हो गए । कायरा ने उन्हें देखा तो , पर उसे उन पर बिल्कुल भी शक नहीं हुआ क्योंकि वो लोग उससे काफी दूरी में थे । जब कायरा को ऐसा कोई नहीं दिखा , जिसपर वह शक कर सके , तो उसने अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ा दी और सामने देखकर ड्राइव करने लगी । कायरा के सामने की तरफ मुड़ते ही जय के आदमियों ने , अपनी कार की स्पीड बढ़ाई और दोबारा कायरा के पीछे चलने लगे। कायरा ने लेफ्ट साइड टर्न लिया और फिर कुछ दूर आगे चलकर राइट साइड में टर्न लिया और उसके बाद उसने दोबारा स्कूटी की स्पीड बढ़ा दी । जय के आदमियों ने भी उसी की तरह टर्न लिए और उसका पीछा करने लगे । कायर को एक बार फिर महसूस हुआ , कि कोई उसका पीछा सच में कर रहा है । लेकिन इस बार कायरा ने पीछे पलटकर नहीं देखा , बल्कि अपनी स्कूटी के आइने को उसने हल्का सा घुमाकर देखा , तो उसे आइने पर वही ब्लैक इनोवा अपने पीछे आती दिखी , जो कुछ देर पहले उसके पीछे मुड़कर देखने पर, उससे बहुत दूर और धीमी गति से चल रही थी । कायरा को ये तो समझ आ गया, कि ये लोग उसका ही पीछा कर रहे हैं, लेकिन उसे वो आदमी राजवीर के आदमी लगे । जब उसने एक बार फिर आइने में उन्हें अपनी ओर आते देखा , तो उसे बेहद गुस्सा आया और उसने खुद से अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ाकर कहा । कायरा - अब देखो राजवीर के चमचों , कैसे तुम लोगों को मजा चखाती हूं ......। इतना कहकर उसने स्कूटी की स्पीड और तेज़ कर दी और पल भर में वो उन आदमियों के देखते - ही - देखते आंखों से ओझल हो गई । जब जय के आदमियों को कायरा सामने नहीं दिखी , तो उन्होंने अपनी कार की स्पीड बढ़ाई और सड़क पर कार दौड़ाने लगें, लेकिन कायर उन्हें कहीं नहीं दिखाई दी । उन दोनों ने एक दूसरे को हैरानी से देखा और सामने सड़क पर देखते हुए एक दूसरे से कहा । पहला आदमी - यार , ये मैम कहां चली गई ..???? अभी यहीं तो थी...!!!! दूसरा आदमी - पता नहीं यार, मैं तो लगातार उन्हें ही देख रहा था, मेरे देखते ही देखते उन्होंने अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ाई और फिर पता नहीं कहां गायब हो गईं । अब हम जय सर और आरव सर को क्या जवाब देंगे , कि हम मैम पर नज़र तक नहीं रख पाए। दोनों ही हम पर बहुत गुस्सा करेंगे । पहला आदमी - यार बताना तो पड़ेगा भाई । नहीं बताएंगे तो शायद ज्यादा भड़केंगे , दोनों ही.... । तू कॉल कर और सबसे पहले आरव सर को बता.....। दूसरा आदमी - ओके.....। ( इतना कह कर उस आदमी ने आरव को कॉल किया , आरव ने तुरंत कॉल रिसीव कर हैलो कहा , तो उस आदमी ने आरव से कहा ) सर हम कायरा
मैम के पीछे ही थे , उन पर नज़र रख रहे थें, पर शायद उनको हम पर शक हो गया । इसी लिए शायद उन्होंने अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ाई और पल भर में हमारी आंखों के सामने से ओझल हो गईं । आरव ( शांत भाव से ) - तुम किसी मामूली लड़की का पीछा नहीं कर रहे हो, तुम एक शेरनी का पीछा कर रहे हो । और एक शेरनी की रक्षा करने की जिम्मेदारी मैंने तुम लोगों को दी है , जो कि कैसे करनी है तुम लोग बहुत अच्छी तरह से जानते हो । अगली बार से जब कायरा का पीछा करना हों, तो उसी की तरह अपना दिमाग चलाना । समझ गए ना ....???? आदमी - यस सर.....!!!! पर अभी क्या करें ?? अगर उन्हें किसी ने फिर हार्म पहुंचाने की कोशिश की तो .....???? आरव - वो संभाल लेगी .......। क्योंकि अगर उसने तुम लोगों को बेवकूफ बनाकर , तुम्हें खुद का पीछा करने से रोका है , तो जरूर उसके दिमाग में कुछ चल रहा है । वैसे तुमने देखा , कि वो किस तरफ गई थी ....???? आदमी - नहीं देख पाया सर , लेकिन जिस रास्ते पर हम अभी खड़े हैं, इसी रास्ते से मैम ने अपनी गाड़ी की स्पीड बढ़ाई थी , और ये रास्ता राजवीर सर के घर की तरफ भी जाता है । आरव - ठीक है, तुम लोग अभी अपने घर जाओ और थोड़ी देर आराम करो । और हां , जय को मुझसे आधे घंटे में कॉन्टेक्ट करने के लिए कह दो....। आदमी - ओके सर....। आदमी की बात सुनकर आरव ने कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया और मुस्कुराकर कॉफी की एक सीप लेकर उसने खुद से कहा । आरव - तुम न कायरा कब क्या करती हो , कुछ समझ नहीं आता । जरूर तुम राजवीर के घर जा रही होगी .....। खुद से इतना कहकर ,कुछ सोचकर वह खुद में ही मुस्कुरा दिया और कॉलेज के लिए रेडी होने चला गया । इधर कायरा ने अपनी स्कूटी राजवीर के घर के बाहर रोकी ओर दनदनाती हुई राजवीर को तेज़ स्वर में आवाज़ देकर , उसके घ
र के अंदर चली आयी । राजवीर अपने घर में अकेला था । मिस्टर तिवारी कहीं बाहर गए थे और मेघा जी सुबह - सुबह मंदिर गई हुईं थी । राजवीर रात भर से नहीं सोया था और गुस्से से भरा हुआ अपने बिस्तर के किनारे में बैठा , अपनी फोन की स्क्रीन में देख रहा था । कल रात से वो अपने आदमियों के कॉल का वेट कर रहा था , ताकि उसे चंदन की मौत की खबर मिले । लेकिन अभी तक उसे चंदन के मौत की खबर नहीं मिली थी, इस लिए वह गुस्से से बैठा उबल रहा था । उसने खुद भी अपने आदमी को कई बार कॉल करने की कोशिश की , लेकिन सभी का नंबर स्विच ऑफ आ रहा था । आता कैसे नहीं , सभी के फोन तो पुलिस के पास थे , और वो भी बंद पड़े हुए थे । राजवीर ने जैसे ही कायरा की आवाज़ सुनी , उसका गुस्सा गायब हो गया और वह तुरंत अपने कमरे से बाहर आया । अपने घर के हॉल में जब उसने कायरा को देखा , तो उसकी नजरें हैरानी से बड़ी - बड़ी हो गईं । इधर कायरा को आवाज़ करते देखकर सारे गार्ड्स और नौकर हॉल में इकट्ठे हो गए। उनमें से एक नौकर ने कायरा से कहा । नौकर - कौन हैं आप , और इस तरह हमारे छोटे साहब का नाम क्यों पुकार रही हैं ....??? कायरा - मुझे उससे मिलना है अभी इसी वक्त....., उसे बुलाओ मेरे सामने । नौकर इसके आगे कुछ बोलता उससे पहले ही राजवीर हॉल में आया और उसने सभी से कहा । राजवीर - छोड़ो उसे , और सभी अपना - अपना काम करो । नौकर - लेकिन साहब ये......। राजवीर - जितना कहा है उतना करो मोहन ( नौकर ).....। ( कायरा की तरफ मुस्कुराकर देखते हुए ) ये मेरी दोस्त हैं, मेरी दोस्त के साथ कोई बदसलूकी नहीं करेगा और न ही आज के बाद उससे कोई सवाल करेगा, यहां पर इसे इस तरह खड़े करके... । ये जब चाहे तब यहां आ सकती है । कायरा ( मन में नफ़रत से राजवीर को देखते हुए बोली ) - बदसलूकी करने वाला आज खुद घर के नौकरों को बदसलूकी न करने की सलाह दे रहा है । वाह राजवीर.... , कितने रंग देखने बाकी है अभी तुम्हारे । हर रोज गिरगिट की तरह एक नया रंग देखने मिलता है तुम्हारा । राजवीर के लगभग ऑर्डर भरे शब्द सुनकर , सभी हॉल से तितर - बितर हो गए । मोहन डाइनिंग टेबल के पास रखे एक्वेरियम को साफ कर रहा था और उसके साथ एक और नौकर भी था । मोहन उम्र में सभी से बड़ा था, इस लिए सारे नौकर उसे काका कहकर बुलाते थे । साथ ही मिस्टर तिवारी उसे अपने दोस्त की तरह ट्रीट करते थे, क्योंकि दोनों की उम्र लगभग बराबर थी । लेकिन मेघा और राजवीर के लिए मोहन , बस एक नौकर से ज्यादा और कुछ नहीं था । मोहन की नज़र एक्वेरियम साफ करते हुए बार - बार राजवीर और कायरा की तरफ जा रही थी , क्योंकि वह राजवीर की सारी हरकतों से भली - भांति परिचित था । और उसके सामने एक लड़की का ऐसे राजवीर का नाम लेकर चिल्लाना , राजवीर की किसी गलती का उसे अंदेशा करा रहा था । लेकिन वह चुप रहा, क्योंकि उसकी कोई सुनने वाला यहां था ही नहीं । तभी उसके साथ वाले नौकर ने एक सुनहरी मछली को , पानी से भरे एक पॉट में रखते हुए कहा । नौकर - आपको नहीं लगता क
ाका , कि छोटे साहब झूठ कह रहे हैं । ( राजवीर और कायरा की तरफ देखते हुए ) अगर वो मेमसाब इनकी दोस्त होती , तो वे इस तरह नफ़रत भरे स्वर में छोटे साहब को आवाज़ नहीं देती । मुझे तो उन मेमसाब की नज़रों में छोटे साहब के लिए , सिर्फ और सिर्फ गुस्सा और नफ़रत नज़र आ रहा है । मोहन ( राजवीर और कायरा की तरफ देखकर ) - मुझे लगता नहीं है, बल्कि साफ - साफ दिख रहा है चंदू ( मोहन के साथ वाला नौकर ) ...., कि छोटे साहब ने जरूर उस लड़की के साथ कुछ न कुछ ग़लत किया है , इसी वजह से वह लड़की इतने गुस्से में हैं । नौकर ( मोहन की तरफ नज़रें घुमाकर ) - काका....., जब आप छोटे साहब की करतूतों के बारे में इतना सब जानते हैं , फिर आप बड़े मालिक से सब कुछ कह क्यों नहीं देते । मोहन ( एक्वेरियम के रंगीन पत्थरों को अपनी हथेली में उठाकर कहता है ) - मैं अपने दोस्त ( मिस्टर तिवारी ) की रंग भरी ज़िन्दगी को बेरंग नहीं करना चाहता चंदू....। न ही उनकी नज़रों में अपने इकलौते बेटे की वजह से बेज्जती का झंझावात उठते देख सकता हूं और न ही उनके माथे पर अपने बेटे को लेकर चिंता की लकीरें देख सकता हूं । मेरा दोस्त दिल का बहुत भोला है , उसे उसकी पत्नी और अपने बेटे की चालाकियां समझ नहीं आती । और जिस दिन समझ आ गई , वो टूट जाएगा । और मैं ये हरगिज़ नहीं होने दे सकता .....। मोहन ये सब कह तो रहे थे , पर उन्हें नहीं पता था , कुछ करतूतें आलरेडी मिस्टर तिवारी के सामने आ चुकी है राजवीर की । जो कि मिस्टर तिवारी के चिंता और परेशानी का सबब बनी हुई हैं । इधर अपने सामने कायरा को देखकर राजवीर उसके पास सामने आकर खड़ा हो गया और मुस्कुराते हुए उससे बोला । राजवीर - क्या बात है ....!!! आज सूरज पश्चिम से निकला है या फिर मेरी आंखों का धोखा है , जो आज तुम
मेरे सामने मेरे ही घर की छत के नीचे खड़ी हो ....!!!!! कायरा ( बिना किसी भाव के बोली ) - ये सच्चाई है , कि आज मैं तुम्हारे ही घर में खड़ी हूं । राजवीर ( जान बूझकर नासमझ बनते हुए बोला ) - अरे वाह......। मैं तो यही चाहता था , कि कब मैं तुम्हें अपने घर लेकर आऊ और तुम्हें अपने कमरे में सजाकर , अपने घर की शोभा बढ़ाऊं....। कायरा ( गुस्से से राजवीर को देखकर ) - लड़की कोई शो पीस नहीं होती है राजवीर , जो तुम उसे अपने कमरे में सजाओगे और अपनी घर की शोभा बढ़ाओगे। राजवीर ( कायरा को गंदी नज़रों से ताड़ते हुए कहता है ) - किसने कहा ऐसा नहीं होता..???? लड़कियां तो घर की शोभा बढ़ाने के लिए ही होती हैं और साथ में मर्दों की रात रंगीन करने के लिए भी....। कायरा ( फीका सा मुस्कुराकर ) - तुमसे इसी सोच की उम्मीद की जा सकती है राजवीर.....। राजवीर ( शातिर हंसी हंस कर कहता है ) - चलो अच्छा है , तुम्हें मुझसे कुछ तो उम्मीद है.... । ( कायरा उसकी इस बात को इग्नोर कर देती है , राजवीर तभी उससे आगे कहता है ) वैसे तुमने बताया नहीं कि तुम यहां क्यों आयी हो ??? मुझसे मिलने आयी हो , या फिर कल मेरी इंसल्ट करने के बाद , मुझसे माफी मांगने आयी हो ...??? कायरा ( राजवीर की आंखों में आंखें डालकर बोली ) - गतफामी है राजवीर तुम्हारी, कि मैं तुमसे माफी मांगने आयी हूं । ( उसके अलग - बगल चक्कर काट कर कहती है ) वैसे अच्छा सवाल किया तुमने , कि मैं यहां क्यों आयी हूं । राजवीर ( कायर की तरफ देखकर असमझ सा कहता है ) - क्यों आयी हो....???? कायरा ( राजवीर के सामने खड़ी हो गई और गुस्से से भरकर उसने उससे कहा ) - तुम्हें वॉर्न करने ....। क्योंकि कल तुमने आरव के बिजनेस के साथ जो किया है न राजवीर, ठीक नहीं किया । तुम मुझे पाने के लिए इस हद तक गिर गए हो राजवीर, कि अब तुम आरव को नुक़सान पहुंचाने लगे हो । उनका बिजनेस बर्बाद करने में तुले हुए हो तुम......। राजवीर ( बेशर्मी के साथ कायरा से बोला ) - प्यार करता हूं मैं तुमसे , और इन्सान जिससे प्यार करता है उसे पाना उसका हक़ भी है और अधिकार भी । कायरा ( राजवीर को घूरते हुए , फिंकी हंसी हंस कर कहती है ) - हंसी आती है राजवीर मुझे तुम पर.....। कि तुम्हें प्यार का मतलब ही नहीं पता है । जिद्दी पन और मोहब्बत में बहुत अंतर होता है राजवीर तिवारी....., इस बात को तुम जितनी जल्दी समझ जाओ उतना अच्छा होगा तुम्हारे लिए । ( राजवीर की आंखों में गुस्से से झांकते हुए ) और एक बात...., प्यार जबरदस्ती नहीं किया जाता है, बल्कि वह सामने वाले को, खुशी से होता है , जिसे समझने के लिए शायद तुम्हें अगले सात जन्म भी कम पड़ जाएंगे । राजवीर ( कायरा की तरफ बढ़कर , उसकी कलाई को कसकर पकड़ते हुए, दांत पीसकर गुस्से से कहता है ) - अगर तुम्हारे लिए मेरा प्यार जिद्दी पन है, तो जिद्दी पन ही सही । लेकिन मैं तुम्हें पाकर ही रहूंगा.....। और तुम्हें पाने के लिए अगर मुझे अपने रास्ते से कईयों को हटाना भी पड़े , तो मैं बिल्
कुल भी संकोच नहीं करूंगा । चाहे फिर वह कोई भी हो , आरव भी......। कायरा ( एक झटके से उसका हाथ झटकती है और फिर उससे कहती है ) - आरव के साथ तुम कुछ नहीं कर पाओगे राजवीर , क्योंकि अब मैं तुम्हें उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाने दूंगी । राजवीर - इतनी फिकर , वो भी मुझे छोड़ कर आरव के लिए । अच्छा नहीं लगा मुझे ये जानकर कायरा.....। कायरा - तुम्हें अच्छा लगने भी नहीं देना चाहती मैं राजवीर....। राजवीर ( चिढ़कर ) - रिश्ता क्या है तुम्हारा उससे, सिर्फ दोस्त ही तो हो तुम दोनों । तो फिर उसके लिए मुझे क्यों धमकी दे रही हो ..???? सीधे से तुम मेरे पास आ जाओ , मुझे आरव के साथ या किसी और के साथ कुछ करने की जरूरत ही नहीं होगी कायरा । मैं तुम्हें उस आरव से ज्यादा एशो आराम दूंगा , अपने हिस्से की सारी प्रॉपर्टी पैसा सब तुम्हें दूंगा । ( कायरा की तरफ अपने कदम बढ़ाकर, उसे वाहिशी नजरों से देखते हुए कहता है ) उससे ज्यादा प्यार तुम्हें मैं दूंगा...., तुम कहोगी तो मैं तुम्हारे लिए दिनभर घर में, तुम्हारी आंखों के सामने रहने के लिए तैयार हूं, हमेशा तुम्हें अपनी बाहों के घेरे में कैद करके । कायरा ने सुना , तो उसका खून खौल गया और उसके एक जोरदार थप्पड़ राजवीर को रसीद कर दिया । सटाक......, की ध्वनि पूरे हॉल में फ़ैल गई । और राजवीर लड़खड़ाकर दो कदम पीछे हो गया । सारे नौकर चाकर हॉल में इकट्ठा हो गए , साथ में मोहन और चंदू भी थे । सब राजवीर और कायरा की तरफ आंखे फाड़े देखने लगे । कायरा ने राजवीर को उंगली दिखाकर, उसकी आंखों में आंखें डालकर , गुस्से से जलते हुए उससे कहा । कायरा - हिम्मत भी कैसे हुई तेरी राजवीर.... !!!!!! मुझसे ऐसे बात करने की , आरव और मेरे लिए इतना कुछ कहने की ..???? अगर किसी की जान लेना , कानूनी अपर
ाध नहीं होता न, तो अभी तक तुम यहां जमीन पर पड़े हुए अपनी आखिरी सांसें गिन रहे होते । राजवीर ( अपने गाल पर हाथ रखकर गुस्से से भरकर कहता है ) - तुमने आरव के लिए , उस इन्सान के लिए मुझपर हाथ उठाया , जो मेरा इस वक्त सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है । कायरा ( चिल्लाते हुए ) - हां उठाया मैंने हाथ तुम पर, और वो भी आरव के लिए.... । क्योंकि वो बेशक तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन होंगे, लेकिन मेरे लिए......, मेरे लिए वो एक इन्सान मेरा सब कुछ हैं । ( राजवीर की आंखों में गुस्से से देखते हुए ) प्यार करती हूं मैं उनसे , और वो भी तुम्हारी तरह नहीं , जिद्दी पन और जुनुनीयत वाला , बल्कि सच्चा..., सच्चा प्यार करती हूं मैं उनसे । मेरी रूह, मेरे जहन, मेरे दिल, मेरे अश्क, मेरी आंखों, और मेरी हर एक सांस में बसे हैं वो ......, जो कि तुम्हें कभी नज़र नहीं आएंगे , क्योंकि तुम प्यार को पहचानते ही नहीं हो राजवीर तिवारी । तुम्हारे लिए प्यार तो सिर्फ और सिर्फ जबरदस्ती है । जिसे इन्सान के आंखों द्वारा देखी गई उनके तन की खूबसूरती को प्यार समझकर, तुम अपने इस महल जैसे घर में सजाना चाहते हो । लेकिन मन की खूबसूरती....., मन की खुबसूरती का तो तुम्हें एक तिनका तक नहीं पता है राजवीर तिवारी । अरे तुम क्या मुझसे प्यार करोगे , जिसे प्यार का पी तक नहीं पता । प्यार तो वो होता है राजवीर , जिसके लिए इन्सान मर मिटता है , लेकिन अपने प्यार को पाने के लिए किसी और को मारता नहीं है । राजवीर ( खीझते हुए ) - तुम मुझे यहां प्यार पर भाषण देने आयी हो....???? कायरा - नहीं....., मैं तुम्हें प्यार पर भाषण देने नहीं बल्कि तुम्हें आगाह करने आयी हूं...., कि अगर दोबारा तुमने आरव को किसी भी तरह का नुकसान , चाहे वो बिजनेस से रिलेटेड हो , उनके अपनो से रिलेटेड हो या फिर खुद उनकी जान हो, इन सब में से अगर उनकी किसी भी चीज को तुमने नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी की , ( एक बार फिर राजवीर की आंखों में देखकर , कॉन्फिडेंस से कहती है ) तो याद रखना मिस्टर राजवीर तिवारी...., तुम्हारी मौत के पन्नों पर स्याही मैं अपनी खुद की कलम से चलाऊंगी....। राजवीर - धमकी दे रही हो मुझे...??? कायरा ( फीका सा हंस कर ) - धमकी...., और वो भी तुम्हें....। तुम उस लायक भी हो राजवीर, जो तुम्हें मैं धमकी दे सकूं । ( राजवीर कायरा की बात सुनकर बुरी तरह से चिढ़ गया , तो कायरा ने उसका चिढ़ा हुआ चेहरा देखकर कहा ) तुम तो मुझसे बात करने के भी लायक नहीं हो राजवीर......, क्योंकि तुमने कल जो मेरे साथ किया , उसके बाद तो तुम्हें यहां नहीं बल्कि अपने नए घर , पुलिस स्टेशन में होना चाहिए था । लेकिन खैर छोड़ो...., किस्मत अच्छी थी तुम्हारी । जो तुम्हें तुम्हारे इतने सारे गुनाहों की सजा सिर्फ इस लिए नहीं दी गई , कि तुम्हारी बड़ी बहन से सब इतना प्यार करते हैं , इसी लिए सबने तुमसे और तुम्हारे गुनाहों से ज्यादा , तुम्हारी बहन और उसकी आने वाली संतान को तवज्जो दी । लेकिन अगर तुमने दोबारा आरव क
ो नुक़सान के लिए कुछ भी किया , तो तुम मेरा वो रूप देखोगे , जो शायद आज तक तुमने किसी भी लड़की का नहीं देखा होगा । अगर मैं किसी की इज्जत और खुशी के लिए तुम्हें तुम्हारे अपराध की सजा देने से खुद को रोक सकती हूं , तो वक्त आने पर आरव को और अपनों को तुम्हारे प्रहार से बचाने के लिए , तुम्हें खुद भी सज़ा दे सकती हूं । इस लिए तुमने कल जो भी आरव और मेरे साथ किया है , वो दोबारा दोहराने की गलती कभी मत करना ....। राजवीर ( कायरा की आंखों में झांकते हुए ) - मैंने कल भी कहा था , और आज भी तुमसे साफ - साफ शब्दों में कह रहा हूं कायरा...., कि मैंने तुम्हारी किडनेपिंग नहीं करवाई है । कायरा ( चिल्लाकर ) - तो फिर किसने करवाई है..???? बोलो चुप क्यों हो...??? तुम्हारे अलावा हमारे प्यार और दोस्ती का दुश्मन और कौन है इस दुनिया में ...??? राजवीर - मि......। ( इतना कहते - कहते राजवीर रुक गया , और मन ही मन बोला ) अगर मैंने इसे सच्चाई बात दी , तो नुकसान मेरा ही होगा । और मुझे अभी मिशा के साथ मिलकर , बहुत कुछ करना है । और अगर मिशा की सच्चाई मैंने इसे बताई , तो वो मेरा हरगिज़ साथ नहीं देगी , इस लिए मेरा इस वक्त चुप रहना ही बेहतर होगा । कायरा ( राजवीर को चुप देखकर, एक बार फिर बिफरते हुए चिल्लाकर बोली ) - बताओ न राजवीर...., बोलते क्यों नहीं ...??? जवाब नहीं है या फिर देना नहीं चाहते तुम....??? राजवीर - देखो कायरा....., किसने किया क्यों किया ये मैं नहीं जानता , पर मैंने कल तुम्हारा किडनैप नहीं करवाया था । अब इस बात को मानो या न मानो , ये तुम्हारी मर्ज़ी । कायरा - मेरे मानने न मानने से सच्चाई बदल नहीं जाएगी राजवीर....!!!! तुमने जो किया है , उसे मैं तुम्हारी आखिरी गलती समझ कर तुम्हें छोड़ रही हूं । और तुमसे एक्सप
ेक्ट कर रही हूं , कि अब तुम मुझे पाने के ख्वाब छोड़ दोगे । क्योंकि इस जनम में तो मैं तुम्हारी कभी नहीं हो सकती । मैं सिर्फ आरव की हूं , और उनकी ही रहूंगी । और अगर किस्मत में हम दोनों का मिलना नहीं लिखा है , तो भी मैं ज़िन्दगी भर उनके प्यार के एहसासों में जी लूंगी । लेकिन उनके अलावा न ही मैंने कभी किसी को अपनी ज़िन्दगी में कोई जगह दी है और अब उनसे मोहब्बत करने के बाद, किसी और को मेरी ज़िन्दगी में जगह देने का सवाल ही पैदा नहीं होता । इस लिए तुम मुझसे और आरव से दूर रहो राजवीर । वरना तुम्हें अर्श से फर्श पर लाने में , मैं एक सेकंड की भी देरी नहीं करूंगी । समझे तुम ....। इतना कह कर कायरा ने एक नज़र उसे घूरा और फिर अपने कदम दरवाज़े की ओर बढ़ा दिया । दरवाज़े की चौखट तक पहुंच का उसने अपने कदम रोक लिए और फिर पीछे राजवीर की तरफ पलट कर उससे बोली । कायरा - मेरे कहे एक - एक शब्द पर गौर करना राजवीर, ये मेरे द्वारा तुम्हें मिली , पहली और आखिरी चेतावनी है, जो मैंने खुद तुम्हें तुम्हारे घर तक आकर दी है । अगली बार मैं तुम्हें कोई चेतावनी नहीं दूंगी , बल्कि सीधे तुम्हारी हरकतों का मुंह तोड़ जवाब दूंगी । मार्क माय वर्ड्स मिस्टर राजवीर तिवारी.....। इतना कह कर कायरा ने अपने कदम घर के बाहर की तरफ बढ़ा दिए और राजवीर कायरा का ये रूप , आखें फाड़े देखता रहा । अब उसे जाती हुई कायरा को देखकर, थोड़ा सा डर भी लगने लगा था । पर था तो वो राजवीर, जो कि हार मानने वालों में से था भी नहीं और कायरा की धमकी उसके सीने में आग की तरह काम कर रही थी । जिसे बुझाने के लिए उसे इस वक्त कुछ नहीं मिल रहा था । इधर कायरा ने अपनी स्कूटी ऑन की , और एक बार फिर रास्तों पर दौड़ा दी, बहुत कुछ चल रहा था इस वक्त उसके दिल और दिमाग में जिसे सिर्फ वही जानती थी । इधर आरव रेडी होकर , कॉलेज के लिए निकल चुका था । कार ड्राइव करते हुए उसके चेहरे पर एक चमक थी , जो कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी । आरव सड़क पर गाड़ी दौड़ते हुए बस कायरा के बारे में ही सोच रहा था । कायरा के साथ पहली बार मिलने से लेकर , कल तक का सफर उसकी आंखों में सामने किसी फिल्म की तरफ चल रहा था और उसे याद कर उसके चेहरे पर खिलखिलाती हुई मुस्कुराहट बनी हुई थी । आरव को कायरा का गुस्सा याद कर भी , बुरा नहीं लगा रहा था । बल्कि उसे गुस्से में भी कायरा अब अच्छी लगने लगी थी । हां , कुछ शब्द ऐसे कहे थे कायरा ने , जो वाकई आरव को तकलीफ दे रहे थे , लेकिन आरव उसे कायरा की नादानी समझकर , मुस्कुरा रहा था । आरव को ये भी एहसास था , कि कायर आज राजवीर के घर क्यों गई है । और वही सब याद करके उसे और खुशी हो रही थी । कब आरव कायरा को इतना जानने समझने लगा था , कि बिना उसका चेहरा और आखें देखे ही उसे अब आभास हो जाता था , कि कायरा कौन सा कदम किस लिए उठा रही है , ये उसे पता ही नहीं चला। पर वक्त के साथ , आरव कायरा को खुद के और करीब महसूस करने लगा था । उसके सामने कायरा का मासूम सा चेहरा घू
म रहा था । तभी उसके कानों में एक आवाज़ गूंजी। आवाज़ - जब इतना प्यार करता है उससे , तो कह क्यों नहीं देता उसे, अपने दिल की बात...??? आरव ने आवाज़ सुनकर तुरंत अपनी बगल वाली सीट की और देखा , तो उसे खुद की ही परछाईं नज़र आयी । वह हैरान हो गया , तो परछाईं ने उससे कहा । परछाईं - हैरान मत हो आरव , मैं कोई अनजान नहीं , बल्कि तुम्हारा ही अक्श हूं । आरव - क्यों आए हो आज पहली बार मेरे सामने ..??? इससे पहले तो तुम कभी नहीं आए। परछाईं - इससे पहले तुम्हें कभी इश्क़ भी तो नहीं हुआ । आरव उसकी बात सुनकर चुप हो गया और हौले से मुस्कुरा दिया । तो आरव की परछाईं ने उससे एक बार फिर कहा । परछाईं - तुम्हारे चेहरे की चमक और होठों पर फैली ये मुस्कुराहट बता रही है , कि तुम्हें उससे बेइंतहां मोहब्बत हो चुकी है । फिर क्यों नहीं कहता उससे...??? आरव - कैसे कहूं...?? हमेशा वो मुझसे लड़ती - झगड़ती रहती है । कई बार गुस्से में , तो कई बार शांत होने के बाद भी उससे ये कहते - कहते रुक गया हूं , कि मैं उससे बेइंतहा मोहब्बत कहता हूं । पता नहीं , उसे देखते ही मुझे क्या हो जाता है । धड़कने इतनी रफ़्तार से चलने लगती है कि जैसे बुलेट ट्रेन हो, आखें उसे देखते ही पलक झपकना भूल जाती हैं , सांसें ऐसे ऊपर नीचे होने लगती हैं जैसे वो उसकी खुशबू को अपने अंदर समा लेना चाहती हों । उसे देखते ही होठ ऐसे सिल जाते हैं , जैसे उन्होंने कभी बोलना ही न सीखा हो । कान हैं , जो बस उसे सुनने के लिए तरसते हैं । लेकिन वो ....., वो तो बस गुस्सा ही करती है । दुनिया के सामने बहुत बोलती है , पर मेरे सामने सिर्फ़ गुस्से से बोलती है, बाकी तो बस चुप रहती है, जैसे मुझे किसी गलती की सजा दे रही हो । लेकिन मुझे उसके गुस्से में कहे गए शब्द भी अब मीठे से ल
गने लगे हैं, जैसे वो मुझे मेरे भले के लिए ही समझा रही हो । परछाईं - इतनी फीलिंग्स हैं तेरे अन्दर , तो एक बार उससे कह दे । उसे भी एहसास हो जाएगा , कि तू उसे कितना चाहता है । आरव - फिर वही बात.....!!!! अरे अपनी फीलिंग्स एक्सप्रेस करने से पहले , वो मेरे बारे में क्या सोचती है, ये जानना भी तो जरूरी है । क्या पता , मैं उसे जितना प्यार करता हूं , वो भी मुझे उतना चाहती है या नहीं....??? परछाईं - इसका जवाब तो तुम्हें अच्छे से पता है आरव । आरव - हम्मम....., जवाब पता है । उसकी आंखों में मेरे लिए असीम प्यार देखा है मैंने , वो सारी फीलिंग्स देखी हैं उसकी नज़रों में मैंने , जो मैं उसके लिए फील करता हूं । उसकी आंखों में खुद का अक्श देखा है मैंने । लेकिन डरता हूं , कि कहीं ये मेरी आंखों का वहम न हो ....। परछाईं - हर आंखों देखी चीज़ झूंठी नहीं होती है आरव । कुछ सच्चाई आंखों में ही दिखती है , जिसे मानना न मानना खुद हमारे हाथों में होता है । तुमने जो उसकी आंखों में देखा है , वो महज एक धोखा न होकर , सच्चाई भी तो हो सकती है । क्योंकि तुमने एक बार नहीं , बल्कि बार - बार उसकी आंखों में खुद को देखा है । आरव - कह तो तुम सही रहे हो । परछाईं - मैं तुम्हारी दिल की आवाज़ हूं आरव , और दिल कभी झूठ नहीं बोलता । कब तक तुम मुझे , कायरा को नहीं सौंपोगे...??? कब तक तुम मुझे और मेरे जज्बातों को उससे छुपा कर रखोगे...??? एक न एक दिन मैं तुम्हें इतना मजबूर कर दूंगा , कि उसे तुम्हें मेरे अंदर उतारना ही होगा । आरव इस बात पर उसकी तरफ हैरानी से देखता है , तो वह परछाईं मुस्कुरा देती है और फिर आरव के देखते ही देखते अलोप हो जाती है । आरव को महसूस होता है, कि उसकी परछाईं ने उसे बहुत बड़ी सीख दी है , जो कि कोई और नहीं , बल्कि उसके ही जज्बात हैं , जिन्हें वो कई दिनों से महसूस कर रहा है, पर खुद को दोस्ती की आड़ में रोक रहा है, कायरा से अपने जज्बात प्रकट करने से.... । आरव अपने दिल के जज्बातों को जानकर और खुश हो जाता है और अपनी खुशी को बढ़ाने के लिए वह , एफएम पर गाने चला देता है । गाना बजने लगता है , जिसके शब्द हूबहू उसकी परछाईं के कहे गए शब्दों से और उसके दिल के जज्बातों से मेल खा रहे थे । वह गाना सुनकर , गाड़ी चलाते हुए खुद भी गाने लगता है और साथ में मुस्कुरा रहा होता है । बेखुदी दो पल की, तुम्हें प्यार कब तक ना करेंगे भला....। ये गाना गाते हुए उसके चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ - साथ एक चमक भी थी । होती भी क्यों न , क्योंकि वह सोच भी तो कायरा के बारे में, अपनी मोहब्बत के बारे में रहा था । और उसकी परछाईं व गाना सच ही तो कह रहे थे , आखिर कब तक आरव अपने दिल में उमड़ रहे कायरा के लिए जज्बातों को खुद के अंदर संजों कर रखेगा , कभी - न - कभी तो उसे अपने दिल की बात कायरा से कहनी ही होगी । अब बस देखना ये है , कि आरव कब कायरा से अपने दिल की बात कहता है और क्या कायरा अपने दिल की बात आरव के सामने अपनी जुबान पर लाती है ,
क्या कायरा आरव के जज्बातों को एक्सेप्ट करती है , या फिर वो एक बार फिर अपने अतीत के कारण आरव को न कह देती है ...????? सवाल बहुत सारे थें, लेकिन जवाब सिर्फ आने वाला वक्त ही दे सकता था । पर हमारे आरव साहब तो इस वक्त खुश थे, और उस गाने को बार - बार सुन रहे थे और मुस्कुराते हुए गुनगुनाए जा रहे थे......। ज़िन्दगी ....., दो पल की...., इंतज़ार कब तक हम करेंगे भला , तुम्हें प्यार कब तक ना करेंगे भला....????
रोक सकता है? उसे इस जगत की कोई शक्ति नहीं रोक सकती। जिसे अपने अहंकार को गला देने में रस आने लगा, उसे अब कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारे अहंकार की पूर्ति में तो हजार लोग बाधाएं डाल सकते हैं, लेकिन तुम्हारे निर-अहंकार की पूर्ति में कोई बाधा नहीं डाल सकता। यह बड़े मजे की बात है! संसार में कुछ पाना हो तो लोग बाधा डाल सकते हैं, लेकिन परमात्मा में कुछ पाना हो तो कोई बाधा नहीं डाल सकता, कोई की सामर्थ्य नहीं है बाधा डालने की। परमात्मा के साथ तुम्हारा सीधा संबंध है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में कोई खड़ा नहीं रह सकता --कोई पर्वत, कोई पहाड़। हां, संसार में कुछ पाना हो तो हजार अड़चनें हैं। धन कमाना हो तो हजारों लोग धन कमाने निकले हैं। उन सबसे प्रतियोगिता होगी। जरूरी नहीं कि तुम जीतो। बहुत संभावना तो हारने की है। बड़ा पद पाना है। अब यह साठ करोड़ का देश है। किसी को राष्ट्रपति होना है, तो एक ही व्यक्ति राष्ट्रपति हो सकता है और साठ करोड़ प्रतियोगी हैं। होना तो सभी को है। एक हो पायेगा। बड़ी बाधाएं होंगी। बड़ा उपद्रव होगा। बड़ी छीन-झपट, गलाघोंट प्रतियोगिता होगी। बहुत इसमें मरेंगे, बहुत इसमें टूटेंगे, बहुत इसमें उखड़ेंगे, बहुत विषादग्रस्त हो जायेंगे, बहुत हताश हो जायेंगे, तब कोई एकाध पहुंच पायेगा। लेकिन पहुंचते-पहुंचते वह भी इतना कुट-पिट चुका होगा, इतनी पिटाई हो चुकी होगी उसकी कि पहुंचकर भी किसी मतलब का नहीं होगा-मुर्दे की भांति पहुंच पायेगा। पहुंचते-पहुंचते लोग मर ही जाते हैं। प्रधान मंत्री होते-होते कोई साठ साल का हो जाता है, कोई सत्तर साल का, कोई अस्सी साल का। होते-होते जिंदगी हाथ से निकल गई होती है और इतना संघर्ष कि उस संघर्ष में प्राणों में जो भी गरिमापूर्ण है, सब मर जाता है। और इतनी वीभत्स प्रतियोगिता, इतनी घृणित प्रतियोगिता, कि जो भी मानवीय है उसकी तो सांसें कभी की घुट गई होती हैं। पहुंचते-पहुंचते आदमी आदमी नहीं रह जाता। इस जगत में सफल होना विफल होना है, क्योंकि सफलता के लिये जो आत्मा देनी पड़ती है वही तुम्हारी विफलता है। मुफ्त तो कुछ मिलता नहीं; आत्मा बेचो और ठीकरे इकट्ठे कर लो। लेकिन परमात्मा के जगत में बात बिल्कुल भिन्न है। वहां कोई प्रतियोगी ही नहीं है। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तुम अकेले हो। वहां तुम नितांत अकेले हो। वह यात्रा अकेले की है। कोई बाधा नहीं है। सिर्फ एक बाधा रहती हैः वह तुम्हारी ही है। और समाधि, वह बाधा तेरी टूट गई है। तुम डरो मरने से, बस उतनी बाधा है। तुम भयभीत रहो, उतनी बाधा है। वह भय चला गया है। अब भय की जगह तेरे मन में मिटने की प्रार्थना उठ रही है। और सभी प्रार्थनाएं, सच्ची प्रार्थनाएं मिटने की ही प्रार्थनाएं हो सकती हैं। बस, प्रार्थना उठी तो पूर्ति होने में देर नहीं है। चौथा प्रश्नः सिद्ध सरहपा ने महासुख की बात कही। महासुख क्या है? पहले तो समझें कि सुख क्या है? सुख तुम्हें कभी-कभी मिला है, इसलिये सुख को समझना आसान भी होगा। फिर समझें कि
दुख क्या है। क्योंकि दुख तो तुम्हें बहुत मिला है। सुख-दुख दोनों समझ में आ जायें तो महासुख की समझ आ सकती है। सुख क्या है? एक क्षण भर को अहंकार का मिट जाना सुख है। तुम चौंकोगेः अहंकार का मिट जाना सुख! हां, जब भी तुमने सुख जाना है, सोचना अब, विचारना अब, ध्यान करना उन क्षणों का। जब भी तुमने सुख जाना है, अहंकार मिट गया है; वह पक्की कसौटी है। सांझ सूरज को डूबते देखा, पहाड़ों पर सूरज की लालिमा छा गई, बादलों पर रंगीन रंग फैल गये, पक्षी अपने नीड़ों को लौटने लगे, सांझ का सौंदर्य, उतरती रात की गरिमा! किसी पहाड़ी एकांत में तुमने सांझ के सूरज को डूबते देखा, तुम चकित भाव-विभोर हो उठे। सुख की एक पुलक आई और गई। एक लहर आई और तुम नहा गये। यह कैसे हुआ? सूरज का सौंदर्य इतना प्यारा था, आकाश के रंग ऐसे अनूठे थे, पहाड़ों की शांति इतनी गहरी थी, पक्षियों का नीड़ों को लौटना, उनकी चहचहाहट, सब तुम्हारे हृदय को इस भांति से तरंगित कर दिये कि तुम एक छंद में बंध गये। तुम उस पर्वतीय एकांत में डूबते हुए सांझ के सूरज के साथ, आकाश के साथ एक हो गये। लीन हो गये। एक क्षण को अहंकार विस्मृत हो गया। एक क्षण को तुम भूल गये कि मैं हूं। सूरज इतना था कि तुम एक क्षण को भूल गये कि मैं हूं। बादलों में रंग ऐसे थे कि एक क्षण तुम्हें याद न रही कि मैं हूं। लौटते पक्षी, सांझ का सन्नाटा, पहाड़ का एकांत... तुम भूल गये एक क्षण को, इस शराब में डूब गये एक क्षण को ! तुम्हें याद ही न रही कि मैं हूं। बस उसी घड़ी एक लहर उठी। इसी लहर का नाम सुख है। फिर जल्दी ही तुम वापिस लौट आते हो, क्योंकि सूरज कितनी देर तक सुंदर रहेगा! यहां तो सब पलछिन का मामला है। अभी था अभी गया। अभी डूब गया। रात गहरी होने लगी। तुम चौंककर उठ आये। लौट पड़ने का समय आ गया
। रात अंधेरा हो रहा है, सांप हो, बिच्छू हो, जंगली जानवर हों! पहाड़ का मौका। तुम वापिस लौट आये। अहंकार फिर अपनी जगह खड़ा हो गया... शंकित, भयभीत । सुख की जो क्षण भर को झलक मिली थी, खो गई। ऐसे ही सुख मिलता है। कभी संगीत को सुनते समय... किसी ने वीणा बजाई और तुम तल्लीन हो गये और तुमने कहाः बड़ा सुख मिला! या अपनी प्रेयसी से मिलना हुआ, उसका हाथ हाथ में लेकर बैठे, सांझ के उगते पहले तारे को देखते रहे और तुमने कहाः बड़ा सुख मिला! लेकिन सुख का कोई संबंध न तो सूरज से है न सांझ के तारे से है, न प्रेयसी के हाथ से है, न संगीत से है ! अगर तुम समझोगे तो इन सब के बीच तुम एक ही बात पाओगे कि बहाना कोई भी हो, बात एक ही घटती है तुम्हारे भीतरः अहंकार भूल जाता है। और यह तुम्हें समझ में आ जाये तो फिर महासुख को समझने में ज्यादा देर न लगेगी। महासुख का अर्थ हुआः अहंकार सदा को भूल जाये; भूला सो भूला, फिर लौटे ही न । दुख का अर्थ होता हैः अहंकार। जितना ज्यादा अहंकार होता है उतना ज्यादा दुख। अहंकार की मात्रा से दुख की मात्रा नापी जाती है। इसलिये तुम अहंकारी को बहुत दुखी पाओगे; निर-अहंकारी को उतना दुखी नहीं पाओगे। तुम खुद ही सोचो। जब भी तुम्हारा अहंकार बहुत सघन होकर तुम्हें पकड़ लेता है कि मैं हूं, कि मैं कुछ खास हूं, तो फिर छोटी-छोटी बातें दुख देने लगती हैं। कोई आदमी जो तुम्हें रोज नमस्कार करता था आज उसने नमस्कार नहीं की; यही छाती में छुरे की तरह चुभ जाती है बात कि अच्छा, तो यह अपने को क्या समझने लगा! इसको मजा चखाकर रहूंगा! इसे बता कर रहूंगा कि मैं कौन हूं! तुम जहां भी, जब भी अहंकार से भर जाते हो, अड़चन होती है। तुम कभी परदेस गये? तुम कभी विदेशयात्रा को गये? तुम कभी ऐसी जगह गये, जहां तुम्हें कोई भी न जानता हो? वही यात्रा का सुख है। यात्रा का सुख यात्रा में नहीं है। यात्रा का सुख कश्मीर में नहीं है और नेपाल में नहीं है। यात्रा का सुख इस बात में है कि वहां तुम्हें कोई जानता नहीं है। इसलिये अकड़ने का कोई कारण नहीं है। अकड़ने से सार भी क्या है? वहां कोई नमस्कार भी नहीं करता, कोई कारण नहीं है दुख मानने का। वहां तुम कुछ भी नहीं हो। वहां तुम नाकुछ हो। इसलिये तुम्हें थोड़ा सुख मिलता है। यात्रा का यही सुख हैः थोड़ी देर के लिये तुम नाकुछ हो जाते हो। जो समझ लेते हैं, वे अपनी ही जगह नाकुछ हो जाते हैं। इतनी दूर जाने की क्या जरूरत? वे घर में बैठे-बैठे ही नाकुछ हो जाते हैं। शून्य में मिलता है सुख । अहं में मिलता है दुख। अहंकार कांटा है। अहंकार पीड़ा है। शून्य संगीतपूर्ण है। लेकिन तुम कभी सोचते ही नहीं इस बात को । तुम्हारा सुख, तुम्हारे सुख के बहुत से अनुभव, उन सबका निचोड़ निकालो, उन सबका मूल बिंदु खोजो। पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की? चरवाहे की बंसी का स्वर? याकि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट सुख कोई सुकुमार हाथ है, जिसे हाथ में लेकर हम कंटकित और पुलकित होते हैं? अथवा है वह आंख बोलती जो र
हस्य से भरी प्रेम की भाषा में? या सुख है वह चीज स्पर्श से जिसके मन में कंपन-सा होता, आंखों से मूक अश्रु ढल कर कपोल पर रुक जाते हैं? सुख कहां पर वास करता है? सुख? अरे, यह ज्योतिरिंगन तो नहीं है जो द्रुमों की पत्तियों की छांह में दिन भर छिपा रहता? याकि सौरभ पुष्प के उर का? कि कोई चीज ऐसी जो हवा में नाचती है रात को नूपुर पहन कर ? सुख! तुम्हारा नाम केवल जानता हूं। मैं हृदय का अंध हूं; मैंने कभी देखा नहीं तुमको । इसलिये प्यारे! तुम्हें अब तक नहीं पहचानता हूं। पर, कहो, तुम, सत्य ही, सुंदर बहुत हो ? पुष्प से, जल से, सुरभि से और मेरी वेदना से भी मधुर हो ? तुमने जानकर भी सुख जाना नहीं है। अंधे की तरह कभी सोचा कि सांझ का डूबता सूरज सुख दे रहा है। कभी सोचा कि प्रेयसी से मिलन हुआ, सुख मिल रहा है। कभी सोचा मित्र घर आया है इसलिये सुख मिल रहा है। कभी सोचा सुस्वादु भोजन से। कभी सोचा इससे, कभी सोचा उससे । मगर तुमने कभी मूल बात न पकड़ी। जब भी सुख मिला हो, किसी घड़ी में, तब एक बात अनिवार्य रूपेण घटती हैः अहंकार मिट जाता है। तो फिर अहंकार का मिट जाना ही सुख है; न तो सुख है सूरज का डूबना न उगना। पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की? चरवाहे की बंसी का स्वर? या कि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट नहीं! सुख तो वह घड़ी है जब तुम नहीं हो। मैं सुखी हूं, ऐसा वाक्य भाषा की दृष्टि से सही है, अनुभव की दृष्टि से सही नहीं है, क्योंकि जहां सुख होता है वहां मैं नहीं होता। सुख होता है तो मैं नहीं होता। मैं होता है तो सुख नहीं होता। इसकी क्षणभर को झलक मिलती है तो उसका नाम सुख है और फिर झलक खो जाती है। महीनों-बरसों के लिये, उस अंधेरे का नाम दुख है। और जब यह झलक थिर हो जाती है, यह तुम्हारा स्वभाव बन जाती है--
उस घड़ी का नाम महासुख है। सरहपा ने महासुख शब्द का ऐसा ही प्रयोग किया है, जैसे उपनिषद आनंद का करते हैं। लेकिन क्यों सरहपा ने आनंद शब्द का प्रयोग न किया, महासुख का क्यों किया? उसके पीछे भी कारण है। जब आनंद शब्द का हम उपयोग करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे सुख का और आनंद का कोई संबंध नहीं है। उससे एक भ्रांति पैदा होती है, जैसे हमारा सुख और आनंद दो अलग ही लोक हैं, इनके बीच कोई सेतु नहीं है। उस सेतु को निर्मित करने के लिये सरहपा ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, महासुख का उपयोग किया, ताकि तुम्हें यह याद रहे कि तुम दूर कितने ही होओ, लेकिन जुड़े हो । तुम्हारा सुख कितना ही क्षणभंगुर क्यों न हो, उसी महासुख की एक तरंग है। और यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर तुमसे कोई भी संबंध नहीं है उस महासुख का तो तुम उसे पाओगे कैसे? किस धागे को पकड़कर चलोगे उसकी तरफ? और यही सहज-योग का दान है। सहज-योग कहता हैः मनुष्य अभी जहां है वहीं से परमात्मा से जुड़ा है; जरा पहचानने की बात है; जरा गैल पकड़ लेने की बात है। रास्ता है; एक अदृश्य सेतु हमें जोड़े हुए है। हम सुख को तो जानते हैं, तो फिर महासुख हमसे बहुत दूर नहीं है, विजातीय नहीं है। हम सुख जानते हैं तो महासुख भी जान सकते हैं। हमने बूंद जानी है तो सागर को भी जान लेंगे, क्योंकि सागर बूंदों का जोड़ है, और क्या है? ऐसे ही महासुख सुखों का जोड़ है, और क्या है? सुख होगी बूंद, महासुख होगा सागर । जो भेद है सहज-योग की दृष्टि से, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। बस यही सहज-योग का क्रांतिकारी उदघोष है। में और आत्म-सुख में भी जो भेद है वह मात्रा का है--सहज-योग के अनुसार-- गुण का नहीं है। बाहर के सुख में और भीतर के सुख में भी जो संबंध है, जो भेद है, वह मात्रा का है। भीतर का महासुख है, बाहर का बिल्कुल छोटा-सा सुख है; मगर दोनों जुड़े हैं एक से। मनुष्य की गरिमा की घोषणा है यह। और मनुष्य कितना ही नीचे गिरा हो, इस बात की खबर है कि तुम जहां हो वहीं से सीढ़ी लगी है। तुम, हो सकता है, बिल्कुल नीचे के पायदान पर हो सीढ़ी के; मगर यह उसी सीढ़ी का पायदान है, जिस सीढ़ी के आखिरी पायदान पर परमात्मा है। यही तंत्र की घोषणा है। सहज-योग तांत्रिक है। जब मैंने कहा कि संभोग और समाधि दोनों जुड़े हैं, तो वह तंत्र की धारणा को ही प्रस्तावना देनी थी। तंत्र यही कहता है कि संभोग में जो सुख जाना जाता है, वह एक बूंद है और समाधि में जो सुख जाना जाता है, वह एक सागर है, अनंत सागर ! मगर दोनों में जोड़ है। दोनों जुड़े हैं। क्षुद्रतम में भी वही विराट मौजूद है। अणु में भी वही विराट मौजूद है। तुमने अपना द्वार खोला, तुम्हारे छोटे-से द्वार से जो आकाश दिखाई पड़ता है, वह विराट आकाश ही है। उन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है। सुख को थोड़ा समझो। सुख को थोड़ा जीयो । सुख को थोड़ा पहचानो। जहां सुख मिलता हो उन घड़ियों में अपने को ले जाओ। यौवन पकता है निमग्न अपने ही रस में। कला सिद्ध होती जब सुषमा क
ी समाधि में विपुल काल तक कलाकार खोया रहता है। वह सब होगा पूर्ण; एक दिन तुम चमकोगे जैसे ये नक्षत्र चमकते हैं अंबर पर । बनो संत-से चारु कि जैसे यूनानी थे जो अदृश्य हैं देव उन्हें पूजा सन्मन से। और मर्त्य मनुजों से भी मत आंख चुराओ। परिभाषा मत पढ़ो; न दो उपदेश किसी को; गुरु से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों, अगर शास्त्र उलझन में डाल देते हों, अगर गुरुओं की बातें सुनकर कुछ समझ में न आता हो और समझ उलझ जाती हो, तो अच्छा हो चले जाओ प्रकृति में। पूछो झरनों से पूछो वृक्षों की हरियाली से। पूछो केतकी, जुही, बेला के फूलों से पूछो बदलियों से, चांद-तारों से । चले जाओ एकांत में परिभाषा मत गढ़ो बैठकर मत सोचने लगो। बैठकर कुछ नहीं होगा। सोचने से कुछ नहीं होगा। जानने चलो, परिभाषा मत गढ़ो, न दो उपदेश किसी को। अकसर ऐसा हो जाता है, खुद पता न हो तो आदमी दूसरे को समझाने लगता है। दूसरे को समझाने से ऐसी भ्रांति होती है कि मुझे पता होगा और जब दूसरे समझने लगते हैं और मानने लगते हैं कि हां तुम जानते हो, तो आदमी खुद भी मानने लगता है, कि जब इतने लोग मानते हैं कि मैं जानता हूं तो इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं? एक बड़ा धोखा पैदा होता है। तुम लोगों को समझाकर, अपने को समझा लेते हो कि मैं जानता हूं। न तो परिभाषा गढ़ो। अपनी मनगढ़न्त परिभाषा का कोई अर्थ नहीं है। अनुभव से आने दो परिभाषा। और न दूसरों को समझाने बैठ जाओ। परिभाषा मत गढ़ो; न दो उपदेश किसी को; गुरु से मिले न ज्ञान... अगर न मिल सके गुरु से ज्ञान... । पहली तो बात गुरु मिल सके गुरु न मिल सके, शायद, मिल भी जाये गुरु तो शायद तुम समझ न पाओ वह क्या कह रहा है। शायद उतनी सामर्थ्य तुममें न हो कि किसी मनुष्य के सामने झुक जाओ, क्योंकि मनुष्य के सामने झुकने में
अहंकार बड़ी बाधा लाता है। अपने ही जैसे मनुष्य के सामने झुकना अहंकार को बड़ा कष्टपूर्ण हो जाता है। तो चले जाओ एकांत में, किसी वृक्ष के पास झुक जाना; उसमें तो उतनी अड़चन नहीं होगी! किसी झरने के पास झुक जाना। चले जाओ एकांत में। घुटने टेक देना पृथ्वी पर। सिर लगा देना पृथ्वी पर । अगर मंदिरों की चौखट पर सिर पटकने में संकोच लगता है कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और मंदिरों की चौखट पर सिर पटके, तो चले जाओ एकांत में । पृथ्वी पर सिर रख देना। आकाश के तारों से बातें कर लेना । शायद तुम्हें सुख की पुलक मिलने लगे। से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों, प्रकृति परमात्मा का प्रगट रूप है। प्रकृति से जो मिलता है, वह सुख है। परमात्मा के प्रगट रूप से जो मिलता है, वह सुख है। और, परमात्मा के अप्रगट रूप से जो मिलेगा, वह महासुख। प्रकृति से क्षण-भर को मिलता है; परमात्मा से शाश्वत मिलता है। पर दोनों एक ही धागे में जुड़े हैं। इसलिये ठीक ही किया सरहपा ने कि सुख और महासुख शब्द का प्रयोग किया, आनंद का प्रयोग नहीं किया। शब्दों के प्रयोग में भी बड़े अर्थ होते हैं। पांचवां प्रश्नः ओशो, विश्वास तो नहीं होता था कि कृष्ण के साथ लोग नाचे होंगे। आपके आश्रम को देखकर भरोसा आया है कि ऐसा भी कभी हुआ होगा। हम खुदा के कभी कायल ही न थे, तुम्हें देखा तो खुदा याद आया। सीताराम! धर्म जब भी जीवित होता है तब नाचता हुआ होता है; जब मर जाता है तब गुरु-गंभीर हो जाता है। धर्म जब जीवित होता है तो हंसता हुआ होता है। धर्म जब जीवित होता है तो आंखों में आंसू भी आनंद के ही आंसू होते हैं। धर्म जब जीवित होता है तो पैरों में घूंघरु बंधते हैं, बांसुरी पर टेर उठती है, एकतारा बजता है। क्योंकि धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता हैः उत्सव । धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता हैः यौवन। धर्म जब युवा होता है तो कृष्ण जैसे लोग पैदा होते हैं; धर्म जब सड़ जाता है, मर जाता है, तो फिर पंडित-पुरोहित लाश के पास बैठकर लाश की दुर्गंध को ढांकने के लिए चंदन इत्यादि का लेप करते रहते हैं। फिर लाश को कैसे सुंदर बनाया जाए, लाश को कैसे सड़ने न दिया जाए, लाश को कैसे सुरक्षित रखा जाए--यही उनकी चिंतना हो जाती है। और, जीवित तो धर्म कभी-कभी होता है, क्योंकि कृष्ण जैसा व्यक्ति ही कभी-कभी होता है। मुर्दा धर्म की लंबी परंपराएं होती हैं; कृष्ण तो कभी-कभी घटते हैं। मनुष्य अधिकतर तो मुर्दा धर्मों के साथ रहता है। इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है, जब भी कृष्ण घटित होंगे तभी सारा मुर्दा धर्म और उसकी परंपरा उनके विपरीत खड़ी हो जाएगी। कृष्ण जीवित कभी स्वीकार नहीं हो सकते, क्योंकि तुम करीब-करीब मुर्दा जी रहे हो। तुम से मुर्दा धर्म का तो संबंध हो जाता है, जीवित धर्म के साथ तुम नहीं नाच पाते। तुम नाचना ही भूल गए हो। तुम प्रेम भूल गए हो। तुम प्रेम की भाषा भूल गए हो। इसलिए तुम्हारे चर्च हैं, गुरुद्वारे हैं, गिरजे हैं, मंदिर हैं - - सब बाहरी आयोजन तो वहां हो रहा ह
ै, भीतर की आत्मा नहीं है। सुंदर पिंजड़े हैं, पक्षी कभी का उड़ गया है, या कि मर गया है। अब पूजा चल रही है। और लोग बड़ी गुरु-गंभीरता से पूजा कर रहे हैं। यहां तुम्हें देखकर कठिनाई होगी। अगर समझोगे तो ही समझ पाओगे। अगर थोड़ी संवेदनशीलता होगी तो ही समझ पाओगे। नहीं तो तुम हैरान होकर लौटोगे। मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं : आश्रम ऐसा नहीं होना चाहिए, कि जहां लोग नाच रहे हैं, गले मिल रहे हैं, कि प्रसन्न हैं, कि हंस रहे हैं। आश्रम तो गुरु-गंभीर होना चाहिए, कि लोग झाड़ों के नीचे झोपड़े बनाकर बैठे हैं, उदास, माला फेर रहे हैं, कि उनके चेहरों पर मुर्दगी है, कि जीवन में उनके निषेध है, नकार है। इंग्लैंड से कुछ दिन पहले एक टेलीविजन कंपनी ने आश्रम की फिल्म बनायी है। पता नहीं सरकार को पता नहीं चला या क्या हुआ, वह फिल्म बन भी गई, वह फिल्म इंग्लैंड में प्रदर्शित भी हुई। अब न मालूम कितने पत्र वहां से आए हैं! उन सारे पत्रों में एक बात जरूर स्मरण की गई है और वह यह --"कि आश्रम हंसता हुआ भी हो सकता है! लोग नाचते हुए भी हो सकते हैं, खिलखिलाते हुए भी हो सकते हैं! यह हमारे ख्याल में ही नहीं था।" न मालूम कितने लोगों ने लिखा है कि हम उत्सुक हैं आने को। पृथ्वी पर कोई एक जगह तो है, जहां लोग हंसते हैं; जहां परमात्मा जीवन-विरोधी नहीं है; जहां परमात्मा जीवन का ही नाम है। शायद मोरारजी देसाई इसीलिए परेशान हैं कि इस आश्रम की फिल्में न बनें, देश के बाहर प्रदर्शित न हों, क्योंकि जो तुम नहीं समझ सकते हो वह सारी दुनिया समझ लेगी। क्योंकि तुम तो बहुत जड़ हो गए हो, परंपरा का बोझ इतना है तुम्हारे ऊपर... । लेकिन पश्चिम से परंपरा का बोझ हट गया है। पश्चिम में धर्म की परंपरा खंडित ही हो गई है। पश्चिम में तो ईश्वर से लो
ग छुटकारा ही पा लिए हैं। और ईश्वर से छुटकारा हुआ तो उसके साथ-ही-साथ उसके पंडितपुरोहितों से छुटकारा हो गया है, उसके चर्च-मंदिरों से छुटकारा हो गया है। पश्चिम नास्तिक है। नास्तिक का मतलब यह है कि अब परंपरा का, धार्मिक परंपरा का कोई कूड़ा-करकट नहीं है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुझमें पश्चिम से आनेवाले लोग बड़ी संख्या में उत्सुक हो रहे हैं, जबकि भारतीय कभी आते भी हैं तो दर्शक की भांति। लेकिन पश्चिम से कोई आता है तो तत्क्षण डुबकी मार लेता है। कारण क्या होगा? उसके पास परंपरा का पक्षपात नहीं है। वह कोई अपेक्षा लेकर नहीं आता। वह यह मानकर नहीं आता कि झोपड़ों में बैठे हुए होने चाहिए लोग, तो ही आश्रम सच्चा है। वह यह मानकर नहीं आता कि लोग उदास होने चाहिए, सूखे होने चाहिए, उपवास करते हुए होने चाहिए। वह यह मानकर नहीं आता, इसलिए उसे कोई अड़चन नहीं होती। वह तत्क्षण जुड़ जाता है। जब कोई भारतीय आता है तो वह हिसाब पहले से रखकर आया है; उसके पास सब मापदंड तय हैं; उसने निर्णय ही ले लिया है कि धर्म कैसा होना चाहिए। धर्म का उसे कुछ पता नहीं है और निर्णय ले लिया है। और जिस धर्म का उसे पता है, वह सिर्फ सड़ी हुई लाश है। पांच हजार साल पहले कृष्ण को उसने देखा होता तो शायद समझता। अब तो हालत बड़ी अड़चन की है, जो धार्मिक है वह भी नहीं समझता कृष्ण को। और जो नास्तिक है भारत में, वह तो समझेगा ही कैसे? कल मैं सरिता में एक लेख पढ़ रहा था। सरिता में लेख है कृष्ण के खिलाफ, कि वे हजारों स्त्रियों के प्रेम में पड़े। और यह तो ठीक है, मगर वे कुब्जा नाम की तीन जगह से तिरछी, आड़ी-टेढ़ी स्त्री के प्रेम में भी पड़ गए। खिलाफ और भद्दा लेख है। कोशिश यह बताने की की गई है कि यह सब लम्पटता है। उस पर मुकदमा चल रहा है अदालत में। जिन पंडितों ने अदालत में, विपरीत में वक्तव्य दिए हैं; उनकी बातें और मूढ़तापूर्ण हैं । वे लीपापोती करने की कोशिश करते हैं। वे समझाने की बात करते हैं कि नहीं ऐसा इसका मतलब नहीं है, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। मगर दोनों की चेष्टा एक ही है मेरे देखे। दोनों में से कोई, जैसे कृष्ण हैं, वैसा स्वीकार करने को राजी नहीं है। क्यों अड़चन है? कृष्ण भोजन करते हैं तो तुम्हें अड़चन नहीं है, स्नान करते हैं तो अड़चन नहीं है; अगर किसी स्त्री से प्रेम हो गया है तो तुम्हें अड़चन है? कृष्ण का न होगा तो किसका होगा? लेकिन हम डर गए हैं, हम कंप गए हैं। हम तो मानते हैं प्रेम सांसारिक है, प्रेम तो बात ही गलत है। प्रेम और परमात्मा, ये तो विपरीत मामले हैं। तो कृष्ण के विपरीत जो हैं, जैसे सरिता का लेखक और सरिता का संपादक, उनका तर्क भी वही है कि यह कैसा भगवान! और जो पक्ष में हैं वे केवल सुरक्षा कर रहे हैं। उनको भी भीतर तो शक है कि ऐसा भगवान नहीं हो सकता। इसलिए यह व्याख्या ठीक नहीं है। इसलिए व्याख्या को तोड़-मोड़ करो, यहां-वहां से जमाओ। और संस्कृत भाषा में सुविधा है, एक शब्द के बहुत अर्थ होते हैं, उसको इरछा-तिरछा क
िया जा सकता है, चालबाजी की जा सकती है। हालांकि कहानी बिल्कुल साफ है और कहानी में कोई न तो एतराज होने की जरूरत है न छिपाने की कोई जरूरत है। कृष्ण का प्रेम है। अनेकों से हुआ, अड़चन क्या है? परमात्मा प्रकृति के प्रेम में है, इतना ही तो अर्थ हुआ! अगर परमात्मा प्रकृति के प्रेम में नहीं है तो प्रकृति हो ही न। परमात्मा अनंत रूपों को प्रेम कर रहा है, इसलिए तो अनंत रूप प्रगट हो रहे हैं, नहीं तो अनंत रूप प्रगट न हों। परमात्मा आह्लादित है। कृष्ण उस आहह्लाद के एक प्रतीक हैं। इसलिए जब हिंदू हिम्मतवर थे तो उन्होंने कृष्ण को पूर्णावतार कहा। यह जानकर तुम हैरान होओगे कि हिंदू पुराण एक अदभुत बात कहते हैं। वे कहते हैं कि यह कुब्जा नाम की जो दासी थी कंस की, यह पहले जन्म में जब कृष्ण राम की तरह पैदा हुए थे क्योंकि वे भी विष्णु का ही अवतार हैं, तब भी मौजूद थी। बड़ी सुंदरी थी ! और राम से उसकी अनुरक्ति हो गई थी। किस की न हो जाए! राम जैसा व्यक्ति दिखाई पड़े तो कौन मोहित न हो जाए! सिर्फ अंधे शायद मोहित न हों! इसमें कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं कि कोई सुंदरी स्त्री राम पर मोहित हो गई थी। मोहित होने में कोई पाप तो नहीं। वह इतनी दीवानी हो गई कि एक रात पहुंच ही गई राम के महल। राम और सीता सो रहे हैं। उसने जाकर राम को आहिस्ते से हिलाया। राम ने आंख खोली। उन्होंने कहा कि तू क्षमाकर और वापिस जा, कहीं सीता न जग जाए! वही पुरानी कथा, पति-पत्नी का उपद्रव, कहीं सीता न जग जाए ! राम भी डरे हुए हैं कि कहीं सीता न जग जाए! मगर उसने कहा कि मैं निवेदन करने आई हूं कि मुझे आपसे बहुत लगाव हो गया है, मैं क्या करूं? तो राम ने कहा कि अगले जन्म में जब मैं कृष्ण होऊंगा... अभी तो मैं मर्यादा पुरुषोत्तम हूं, अभी तो एक पत्नी-व्रत को म
ानता हूं, अभी तो आदिष्ट के हिसाब से चल रहा हूं, जब अगले जन्म में कृष्ण होऊंगा, तब तू कुब्जा के नाम से पैदा होगी और जब मैं आऊंगा द्वारिका, तू मेरे मामा कंस के घर दासी होगी, तब तेरा आमंत्रण स्वीकार कर सकूंगा। सीता तो जग गई। सुन ही रही होगी पड़ी-पड़ी, यह सब हो रहा था जो। और नाराज भी हुई, क्योंकि यह कोई बात हुई! यह तो ऐसे ही हुआ कि आज एकादशी है, आज हम शराब न पियेंगे, कल पियेंगे। यह कोई बात हुई! यह तो बात साफ जाहिर हो गई कि राम कह रहे हैं कि अगले जन्म में, अभी इस जन्म में तो फंस गए हैं, यह एकादशी है, एक पत्नी - व्रत ले लिया, मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं! अभी बाई तू जा ! अगले जन्म में जब मैं कृष्ण के रूप में पैदा होऊंगा... । सीता इतनी नाराज हो गई। उन्होंने कहा कुब्जा को कि तू सुंदरी तो होगी क्योंकि राम ने तुझे आशीष दिया, लेकिन मैं तुझे अभिशाप देती हूं कि तू तीन जगह से तिरछी होगी। इसलिए वह कुब्जा हुई। इसलिए वह तीन जगह से आड़ी-टेढ़ी हुई। मगर एक बात मजे की है इस कथा में, कि राम को मर्यादा अनुभव होती है, कि राम को सीमा का बोध है, कि राम सीमित हैं। जिन्होंने यह कहानी लिखी होगी ---- ऐसा हुआ या नहीं हुआ, यह सवाल नहीं है.... जिन्होंने पुराण में यह कथा जोड़ी वे बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे, एक बात तो जाहिर वे कह रहे हैं कि राम की सीमा है, कृष्ण की सीमा नहीं है! राम तक को कहना पड़ा कि जब मैं कृष्ण की तरह आऊंगा, जब मैं पूर्णावतार होऊंगा, जब मैं परमात्मा का पूरा उल्लास लेकर प्र, गट होऊंगा, सब रंगों में! अभी तो मैं एक रंग का हूं, जब मैं सातों रंगों का होऊंगा, तब। बड़े हिम्मत के लोग रहे होंगे तब! जीवित धर्म था तो कृष्ण को उन्होंने पूर्णावतार कहा। राम को अंशावतार कहा। अगर कमजोर लोग होते तो राम को पूर्णावतार कहते, और कृष्ण को तो अवतार भी नहीं कहते, अंशावतार की भी बात कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन कृष्ण को पूर्णावतार कह सके जो लोग, उस समय देश जिंदा रहा होगा। परंपरा की बहुत पकड़ न रही होगी। लोगों के शास्त्र सिर पर ज्यादा नहीं बैठ गए होंगे। अभी मुर्दा धर्म का बहुत बोझ नहीं हुआ होगा। अभी जिंदगी ताजी थी, लोग युवा थे । कृष्ण को भी स्वीकार कर सके! अब एक मुर्दा देश है। उसमें कोई विपक्ष में लिखता है, उसकी भी नजर वही है कि अगर कृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख हुआ है, अगर यह सच है तो कृष्ण का जीवन फिर धार्मिक जीवन नहीं है। क्यों? प्रेम का धर्म के जीवन से कोई संबंध नहीं ? तुम प्रेम को धार्मिक न होने दोगे? तुम धर्म को प्रेमपूर्ण न होने दोगे? तुम धर्म और प्रेम को दुश्मन की तरह ही मानकर चलते रहोगे? और जो पक्ष में हैं उनमें भी कुछ भेद नहीं। वे कोशिश करते हैं लीपा-पोती करने की। वे कहते हैं कि नहीं इसका ऐसा अर्थ नहीं, इसका वैसा अर्थ नहीं, यह ठीक नहीं, आलोचना करनी ठीक नहीं, वह तो भगवान हैं, उनके लिए सब ठीक है। इसके बड़े गहरे अर्थ हैं, वे कहते हैं, इसके साधारण अर्थ नहीं। हालांकि कुछ गहरे अर्थ बता नहीं पात
े हैं कि क्या गहरे अर्थ हैं। मगर दोनों की बात एक संबंध में एक ही है कि कृष्ण को ऐसा नहीं होना चाहिए। मैं इसलिए उल्लेख कर रहा हूं कि आज देश इतना मर गया है कि यहां आस्तिक और नास्तिक दोनों मुर्दा हैं। जीवन का उल्लास धर्म का सबूत है। और धर्म जब भी होता है तब वह अपूर्व प्रेम की वर्षा अपने साथ लेकर आता है। मधुमय कंपन ले तन-मन में फागुन पाहुन बन आया घर। जीवन की असीम मुसकानें संचय कर निस्पंद हृदय में, इंद्रधनुष का बिखराने रंग लाया फागुन घोल मलय में; श्रांत पथिक की आशाओं का -- स्वप्न संजो फागुन आया घर! दुर्गमतम निःश्वासों का फल निर्वासित होकर हत्तल से, सरल हास का सौरभ बिखरा पोत रहा रोली करतल से परिमालय अनुराग दृष्टि में सृष्टि मधुर फागुन लाया घर! स्नेहमयी चंदन-सी शीतल जीवन की लघु परिभाषा यह, क्षितिजपार के निर्मित नभ से प्रतिध्वनि आती है अब रह रह, विश्वासों के अधर-पात्र में सप्तरंग फागुन लाया भर! जब भी आता है धर्म, जीवंत, सतरंगा होता है, पूरा इंद्रधनुष होता है। एक स्वर नहीं होता, पूरे सातों स्वर होते हैं। लेकिन आदमी की छाती छोटी पड़ गई है। आदमी बहुत सिकुड़ गया है, विस्तार भूल गया है। खासकर इस देश में हम इतने सिकुड़ गए हैं कि हम अपने ही हाथों अपनी फांसी लगा लिए हैं। हमारी सांसें रुंधी जा रही हैं। हमारा जीवन कठिन हुआ जा रहा है। मगर फिर भी हम जिद्द किए जाते हैं कि हम ऐसे ही जियेंगे। फांसी ही हमारे जीने की शैली हो गई है। सीताराम! तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम इस आश्रम को, इस आश्रम के नृत्य को, इस आश्रम के गीत-हंसी को, मुस्कुराहट को देखकर भी विचलित नहीं हो गए, भाग नहीं गए, दुश्मन नहीं हो गए। नहीं तो मैं एक दोस्त पैदा करता हूं और हजार दुश्मन पैदा होते हैं। तुम भाग्यशाली हो । तुम्हारे पास थोड़ा ह
ृदय है-- थोड़ा विस्तीर्ण हृदय है। इसलिए तुम आंख खोलकर देख पाए। जो तुमने देखा है, जो तुम देखने के लिए राजी हो सके हो, वह तुम्हारे जीवन को बदलने वाला भी सिद्ध होगा। जो बसंत को पहचान ले वह बसंत के रंग में रंग जाता है। यहां बंसत आया है। डूबो इसमें! रंग जाओ इसमें! ऐसी घड़ी इतिहास में कभी-कभी होती है। मुर्दा धर्म तो सदा उपलब्ध होते हैं, जीवंत धर्म कभी-कभी उपलब्ध होता है--जब राख नहीं होती, अंगार होते हैं। लेकिन अंगार तो कुछ थोड़े-से साहसी लोगों को ही आकर्षित कर पाते हैं। नहीं तो ऐसा उल्टा खेल चलता रहता है। मोरारजी देसाई की कल मैंने एक किताब देखी, गीता पर किताब लिखी है। मोरारजी देसाई कृष्ण को समझ कैसे सकते हैं? गीता पर क्या खाक किताब लिखेंगे! मैंने गीता पर बहुत किताबें देखी हैं। इस देश में जिसको भी लिखना आता है वही गीता पर किताब लिख देता है। तृतीय श्रेणी की इतनी टीकायें गीता पर हैं, मगर मोरारजी देसाई ने उन सबको मात कर दिया ! वह तृतीय श्रेणी में भी नहीं आती। एकदम कचरा है। गीता
गली में से लूले कक्का की वैशाखी की आवाज आई तो उन सब की भवें सिकुड़ीं। एक-दूसरे की ओर बड़ी गहरी नजरों से देखा उन सबने। चम्पा महाराज की नजर में लूले कक्का ऐसे फरेबी हैं कि हरदम ऐब करने का मौका तलाशते रहते हैं। कौये की तरह हरहमेश यही गुनताड़ा लगाते रहेंगे कि कुछ ऐसा-वैसा देखने को मिल जाये। कभी होनहार ऐसी हुई कि उन्हे वैेसा मिल गया तो ऐसी धरउल बात कहते हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाये, ...भले फिर उन्हे मन ही मन लाख गालियाँ दे ले। काम तो वे कौओं के करते हैं लेकिन उन्हें देख के पंडित चम्पा प्रसाद को कौआ नहीं गिद्ध याद आता है। रामायण की एक अर्धाली गुनगुना उठते हैं वे-"गीध अधम खल आमिष भोगी" लूले कक्का ने पाया कि दालान में बिछे तख्त पर चम्पा प्रसाद जमे हैं और नीचे बिछे डोरिया पर उनके तीनों पार्षद मौजूद हैं-परमा खवास, खेता भोई और रतना परजापत; यानी कि चम्पा प्रसाद की पूरी परिषद। उनके हाँेठ फड़क उठे-यही परिषद तो गाँव में फसाद की जड़ है। ...यही परिषद चम्पाप्रसाद को बलशाली बनाती है। ...गाँव के निबल लोगों को परेशान करने की साजिश यही परिषद रचतीे है। ज़रूरत मन्दों को चम्पा महाराज के जाल में फंसाने के लिये ये ही लोग लाते हैं। वे दालान में पहुंचे तो पाया कि वहाँ महुआखेड़ी के पुजारी वाला प्रसंग चल रहा है। ...पिछले दिनों पुजारी देवचन्द अपने गाँव की एक विधवा औरत को लेकर कहीं भाग गये थे न, सो आसपास के निठल्ले गाँव वालों के बीच इन दिनों यही रोमाँचक प्रसंग ताल ठोंकता रहता है। ...किसी के पास उन दोनों के दिल्ली पहुंचने की खबर है तो किसी को वे ग्वालियर में मजदूरी करते मिले। कोई तो भागने वाले दोनों को एक दुर्घटना में मर जाने की खबर बताता है तो कोई उन्हे ब्राह्मण बिरादरी पर कलंक। चम्पा प्रसाद जोर-जोर से बोलते हुए देवचन्द को गरिया रहे थे। वे इस तरह उत्तेजित थे, मानो पुजारी देवचन्द परिषद के इज़लास में मुज़रिम बने खुद कटघरे में खड़े हों और अदालत में अपनी लांछना सुन रहे हों। लूले कक्का ने पंडित जी से जुहार की और तख्त के बगल में बिछे डोरिया पर अपनी वैशाखी रखके बैठ गये। पुजारी देवचन्द के बहाने रामायण में बताये गये कर्मकाण्डी ब्राह्यणों के आचरण और नियम बखानते चम्पा प्रसाद उन्हें देखकर एक पल को रुके फिर आगे शुरु हो गये "तो मैं कह रहा था कि-सोचिय बिप्र जो वेद बिहीना... यानी कि वह ब्राह्यण सोचने योग्य है जो वेद के रास्ते पर नहीं चलता। वेद के रास्ते वाली मेरी बात पर ध्यान दो तुम सब, ...अब वेद के बताये रास्ते तो थोड़े से ही हैं भैया कि चारों वरन अपने-अपने धरम का ख्याल रखें और श्रुति मार्ग में बताये अनुसार अपना कर्तव्य निबाहें। ब्राह्मण के लिए कहा गया है कि मारग चलते छुआ-छूत का ध्यान धरो, खान-पान में शुद्धता का ख्याल रखो। जित्ती बार घर से बाहर निकलो हर बार घर लौट के स्नान करो। ...हो सके तो पात्र-कुपात्र से बातचीत का भी विचार रहे।" आखिरी बात कहते हुए उन्होने लूले कक्का की तरफ बड़े ध्यान से देखा था। चम
्पाप्रसाद के प्रवचन सुनकर लूले कक्का मन ही मन बोले 'मीठा मीठा गप्प और कड़वा थू! तुम तो सहस मुख हो चम्पा प्रसाद, अभी तो वेदों के बहाने से चारों वरन के लिए धर्म-अधर्म की बात कर रहे हो, लेकिन हाल ही कहीं हरिजनों के उद्धार की कोई ऐसी बात सामने आ जाये, जिसमें तुम्हें लाभ पहुंचता हो तो तुम तुरंत ही रामायण में से शबरी और निषाद का उदाहरण देकर तुलसीदास और भगवान रामचन्द्र के हवाले से वेद को हरिजनोद्धारक बता दोगे। तुम्हारे तो सैकड़ों मुंह हैं जिनसे अपने मतलब की हजारों बातें निकलती हैं।' उधर चम्पाप्रसाद कह रहे थे-"ब्राह्मण को अपने रसोई-घर में जाने वाली हर चीज अमनिया कर लेना चाहिये, माने जल से पवित्र। रोटी का आटा घर की चक्की का पिसा हुआ होना चाहिए. पीने का पानी घर के कुंआ और नये जमाने में कहें तो पाताली नल से लेने का विधान है।" "तभी तो आपके यहाँ चूल्हे की लकड़ी भी धो के जलाई जाती है महाराज" परमा खवास चम्पा प्रसाद के घर के बारे में भीतरी जानकारी प्रकट करता हुआ पुलकित था। यह सुनकर चम्पा प्रसाद को बहुत अच्छा लगा। पर लूले कक्का कहाँ मानने वाले थे, वे सदा की तरह बीच में ताल ठोकने लगे-"आजकल तो हरेक के रसोईघर में गैस के चूल्हे चल पड़े है न महाराज, उनमें गैस की टंकी जुड़ी रहती है। अब गैस की शुद्धि-अशुद्धि को कौन जांच सकता है!" खेता भोई को लूले कक्का की बात में दरार निकालने का उम्दा मौका हाथ लगा। वह तो उन पर चढ़ ही बैठा-"वाह रे लूले कक्का, वैसे तो दुनिया भर की जानकारी अपने खीसा में डार के घूमते फिरते हो और तुम्हें इतनी-सी बात पता नहीं है कि गैस की टंकी में कोई गन्दी चीज नहीं, पेट्रोल से बनी गैस रहती ह, ...और सब जानते हैं कि पेट्रोल तो धरती मैया की कोख से पैदा होने वाली कुदरती चीज है, दुनिया में इस
से ज़्यादा शुद्ध चीज और क्या होगी? वैसे ईंधन में शुद्धि अशुद्धि क्या देखना।" लूले कक्का ने पैंतरा बदला "खेता भैया, तुम्हें शायद पता नहीं है कि गोबर से भी गैस बनती है और दारी इस जीभ को आग लगे भैया कि ये बात भी सोलहा आना सच्ची है कि अब तो आदमी के गू से भी गैस बनने लगी हैं।" "कक्का तुम भी..." रतना ने घिनाते हुये मुंह बनाया। "सच्ची कह रहे, हमने तो अपनी आँखन से देखा कि अगल-बगल के कित्तेई गाँवन में बड़े-बड़े धर्मात्मा और कर्मकाण्डी लोगों के घर में वायो-गैस की मशीन लग गई है, उसी की गैस से उनके घर के चूल्हे से लेकर बैठका दियावट तक जलते हैं। ...हाँ ये बात और है कि आपत्ति काल में पढ़े लिखे विद्धानों को ऐसी बातों की चिन्ता करने की छूट रहती है। इन दिनों आपत्तिकाल ही तो है, आप सब कहो कि धर्म पर जैसा आपत्तिकाल इन दिनों है, सृष्टि के निर्माण से लेकर अब तक कभी रहा क्या? विश्वास न हो तो चम्पा महाराज से पूछ लो। शास्त्रांे में साफ-साफ लिखा है 'आपात काले मर्यादा नास्ती' माने आपत्ति के दिन में मर्यादा की चिन्ता मती करो।" वे एक पल को रुके फिर अपनी बात के कारण उन सबके चेहरे से उड़ती आभा को देखकर खुश हुए और गहरी नजरों से चम्पा प्रसाद को भीतर तक बेधते हुए बोले-"आज भिनुसारे जब हम टहलने निकले तो तुम्हारे बड़े भैया कालकाप्रसाद अस्पताल के पास वाली सड़क पर चेलम्मा नर्स की गलबहियाँ डाले टहलते मिले थे। हमे लगता है कि कालका भैया पिछली रात वहीं सोये थे। बल्कि...अब आज की क्या कहें, हमने खुद देखा है कि वे रोज वहीं रुकते हैं। चँपा भैया एक दिना जाके देख तो लो कि वह आग लगी नर्स है कौन विरादरी की । कल को ऐसा न हो कि कालकाप्रसाद के संग-संग पूरे गाँव की नाक कटा दे वो।" चम्पा प्रसाद ऐसे समय बड़ी पशोपेश में पड़ जाते है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि वे किसी जिजमान के यहाँ कथा भागवत बांचते-बांचते पवित्रता, वैदिक आचरण और हिन्दू समाज की वर्ण परम्परा की तारीफ कर रहे होते है और अचानक वही जिजमान उनके भैया कालकाप्रसाद के आचरण के बारे में कुछ पूछने लगता है। वैसा ही इस वक्त हुआ। लूले कक्का ने रंग में भंग कर दिया। चम्पा प्रसाद भीतर ही भीतर तिलमिला उठे, पर प्रकट में चुप रहे। लूले कक्का जैसे खोजी आदमी को सिरजाना ठीक नहीं है। दुष्टों को दूर से ही नमस्कार कर लो शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं-दुर्जन दूरतः परिहरेत। लूले कक्का ने देखा कि महफिल फीकी हो चली है। ... वे यही चाहते थे। अपने मिथ्या अहंकार, पाखण्ड और बौद्धिकता के ठहरे सड़े जल के पोखरे में आकण्ठ डूबे इन लोगों में कुछ बेचैनी पैदा हा, े यही मंतव्य था उनका, वह हो चली थी, सो उन्होने अपनी वैशाखी सम्भाली और उठ के सब पंचों से "जय राम जी की" कहते हुए मूंछों ही मूंछों में मुस्कराते वहाँ से चल पड़े। ...वे शुरू से इस सिद्धांत के हामी रहे कि खुद मस्त बने रहो और इन शोषकों को चिन्ता एवं बेचैनी मंे डाले रहो। वह बेचैनी पैदा हो गई थी सो अब उनका काम भी क्या बचा था। लूले कक्का की ठक
-ठक अब अपने प्रिय क्षेत्र हरिजन टोले की ओर बढ़ने लगी थी, जहाँ बैठे दर्जनों लोग उनका इंतजार कर रहे होंगे। इधर बड़ी देर तक उनकी वैशाखी की ठक-ठक दालान के एकदम शान्त हो गये वातावरण में गूंजती रही। फिर परिषद के लोग एक-एक करके वहाँ से खिसकने लगे। संवदिया की भूमिका निभा के लूले कक्का चले गये थे, पर चम्पा प्रसाद तो जैसे अपने तख्त पर कीलित से होकर रह गये थे। मन में भारी उथल-पुथल थी। ...अब कालका भैया से खुली बात करना बहुत ज़रूरी है कि दादा ये रंग-ढ़ंग छोड़ो, घर की बदनामी हो रही है। ताज्जुब है कि पचपन साल की वानप्रस्थी उमर में भी तुम्हें ऐसे ऐल-फैल अच्छे लग रहे है। आने वाले समय में सैकड़ों दिक्कतें आ जायंगी ऐसे तो, मेरी बच्ची सयानी हो रही है, कल कहीं उसकी सगाई करने जायेंगे तो लड़के वाले यही उलाहना ठोक देंगे कि लड़की के ताऊ तो ऐसा-वैसा करते फिरते हैं, ऐसे घर में कैसे रिश्ता करें। शादी-ब्याह की चर्चा करते वक्त ब्राह्मणों में वैसे ही सात पीड़ी तक की खोज खबर ली जाती है। वरणशंकर और दशा ब्राह्मणों को तो देहरी से टिटकार के भगा दिया जाता है। सोचते-सोचते चम्पा प्रसाद को अपना माथा भारी-सा होता महसूस हुआ। वे तख्त पर पाँव पसार कर पूरी तरह लेट गये। जाने कब बिटिया उन्हें अकेला बैठा देख गयी थी, सो चाय बना लाई. पीतल के गिलास को कटोरी से ढक के उसने तख्त के पायताने रखी तो गुमसुम चम्पा प्रसाद बैठ गये और गिलास उठाया फिर फूंक-फूंककर जोर-जोर से चाय के सरुटा भरने लगे। बड़े भैया की खबरें सुन-सुन के कान पक गये हैं। अब पानी सिर के ऊपर निकलने ही वाला है। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा। लेकिन वे "कुछ" क्या करेगे...? यही तय नहीं कर पा रहे हैं। कदाचित, आज अम्मा जीवित होती, तो उनसे परामर्श करते। पहले तो उन्ही से कालका भैया
को तगड़ी डांट दिलवाते। आज तो पुरा-पड़ौस और पूरे गाँव में कोई ऐसा बुजुर्ग नहीं बचा है जिससे सलाह लें। जिससे कहेगे, वही जुबान पकड़ लेगा। घर-घर जाके कह देगा कि दुबे महाराज के यहाँ फूटन पड़ गई है बात-बात में छुआ-छूत और जाति-पांति की दुहाई देने वाले चम्पा प्रसाद के निज बड़े भाई को किसी तरह की अपवित्रता का लिहाज नहीं है। हँस जैसे बेदाग कुल-खानदान का सयाना पक्षी, गंदी तलैया में किलोल कर रहा है। चम्पा महाराज के विचारों ने पलटा खाया, ...वैसे सच तो यह हैं कि आज अम्माँ भी जिन्दा होती तो कुछ न कर पाती। कालका भैया ऐसे सांड़ हैं जिन्हे नाथने वाला कोई नहीं हैं। वैसे आज जो स्थिति आई है उसके लिये पूरी तरह से अम्माँ ही दोषी है। न कम उम्र में कालका भैया को इस लफड़े में डालतीं और न वे आज इस हालत में होते। तब पन्द्रह साल के ही हो पाये थे कालका भैया कि सगाई के लाने आमखेड़े के ज्वालाप्रसाद सगया बनके आ गये थे। इर्द-गिर्द के गाँवों में ज्वालाप्रसाद का चौधरी खानदान खूब बजीता खानदान था। सात पीढ़ी से उनके कुल में न कोई ऐब था, न किसी तरह का दाग। सो अम्माँ उनके घर से रिश्ता आया जान कर भैरा के गिर पड़ी। न किसी जान पहचान वाले से कुछ पूछा, न आमखेड़े वाले रिश्तेदारों से सलाह ली। यहाँ तक कि पिताजी के पास बैठकर दो पल की चर्चा तक न की और खुद मुख्तार होके रिश्ता तय कर दिया। ज्वालाप्रसाद नारियल-रुपया देकर चले गये तो अम्माँ ने दूसरे दिन ही नाई के हाथ शगुन की धोती और पोलका (साड़ी-ब्लाउस) भेज दिये थे। सम्बन्ध पक्का हो गया। अम्माँ बहुत खुश थीं। जो भी धर आता उसे इस ऊंचे घर के रिश्ते की बात बतातीं। आठवीं पास करते-करते कालका भैया की शादी हो गई. बहू उमर में छोटी थी, सो उन दिनों के रिवाज के मुताविक बहू की विदा नहीं हुई. कई साल बाद तब दसवां पास किया था कालका प्रसाद ने, जब कि उनका गौना हुआ। अबकी बार बहू साथ में आई थी। चमकीली चुनरी ओढ़े, लाल-सिन्दूरी साड़ी में लिपटी गोरी-भूरी बहू के मेंहदी रचे हाथ-पाँव देख-देख कर दूसरे किशोर रोमाँचित हो रहे थे, कालकाप्रसाद का तो हाल खराब था! वे अपनी दुल्हन को देखने, उससे बतियाने, उससे मिलने को बड़े उतावले थे। आमखेड़ा से सुबह छिरिया-बेरा विदा कराके वे लोग चले थे और दोपहर होते-होते अपने घर आ गये थे। मर्द लोग दालान में बैठ के सुस्ता रहे थे और अम्माँ मेहमानों की पहुनई के किस्से सुन रहीं थी कि मुन्नी जिज्जी ने उबलते दूध के उफान में ठण्डे पानी की कटोरी उड़ेल दी। वे कह रहीं थी-भौजी तो निराट पागल है। यह सुनकर स्तब्ध हो गये थे सबके सब। अम्माँ उठीं और लपकती हुई भीतर र्गइंं। दो-पल बहू से बातचीत करी फिर माथा ठोकती बाहर निकलीं थीं-नासपीटे ज्वालाप्रसाद ने धोखा दे दिया। मीठी-मीठी बातें करके सिर्रन मोड़ी ब्याह दी धुंआ लगे ने। हर बाप को अपनी लड़की के अनुरुप वर देखना चाहिए, लेकिन इस काले मन वाले ने अपनी लड़की के लच्छन नहीं देखे। मेरे हीरा से लड़के को ठग लिया कपटी ने। अम्माँ लगातार बड़बड़ा
रहीं थीं-देखा होगा कि घर में साठ बीघा की जोत है, विरासत में गाँव के डाकघर का काम हैं। हजारों में एक दिखे ऐसा लम्बा-लछारा लड़का हैं। सो राख भये ज्वाला की नीयत डोल गई और मेरे घर को बर्बाद कर डाला। नाश मिट जायेगा ठठरी बंधे का। अम्माँ चुप हो गईं थीं। गप्पो खवासन बड़ी सयानी औरत थी। अम्माँ ने चुपचाप उसे बुलवाया। घर की बात घर में रखने के लिये आस-औलाद की सौगंध देकर उसे बहू के पास भेजा। तीन चार दिन तक दुल्हन से बातें करती गप्पो उसकी मालिश करने के बहाने पूरे शरीर पर हाथ फेर आई थी। उसने अम्माँ को बताया कि बहू की देह में लुगाइयों जैसा कुछ नहीं है। उसकी तो सूखे मैदान-सी मर्दो जैसी छाती है। सख्त हाथ-पाँव में बड़े-बड़े रोम और कड़क-चामड़े की जांघ वाली ये दुल्हन आदमी-बइयर के आपसी सम्बंधो के बारे में कुछ भी नहीं जानती। गप्पो तो चली गई पर अम्माँ का जियरा सुलग उठा था। उन्होने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। एक दिन पड़ौस में गारी के बुलौआ का बहाना कर वे मुन्नी और चँपा को साथ ले गई थी, ताकि घर पर अकेले बचे कालका और बहू की आपस में कोई बातचीत शुरु हो सके. दस मिनिट बाद ही बाखर में से बहू के रोने चीखने की आवाजें आने लगी तो किसी ने जाकर अम्माँ को खबर की थी। अम्माँ मन ही मन अनुमान लगाती लौट आई थीं कि घर में क्या हुआ होगा। घर आके बहू को पुचकार के चुप कराया और झेंपते खड़े कालका को बाहर जाने का इशारा किया था। अम्माँ ने बहू को सुदमती करने के लिए गाँव भर के गौड़-घटोइया, देई-देवता मनाने शुरु कर दिये थे। एक सयाने को बुला के झाड़ा भी दिलाया था। पर सब बेकार रहाँ चँपा को याद है कि पहले की तरह भौजी बावरी-सी बनी सिर खोले, पल्लू लटकाये कभी भी अपने कमरे से बाहर चली आतीं। वे कभी आंगन की मोरी पर बिना लिहाज धोती उठाके पेशाब
को बैठ जातीं। कभी घर भर में समय-बेसमय झाड़ू लगाने लगतीं, तो कभी धुले-अनधुले कपड़े उठाके पानी में भिगो देती और कुटनी से कूट-कूट कर उनका मलीदा बना देतीं। वे दिन बड़ी मुश्किल के दिन थे। भौजी की बात गाँव में फैलने लगी थी। अम्माँ शर्म संकोच में डूबी हूई घर में बंद रहने लगी थीं। गाँव में कुछ औरतों का कुटनी का ही जन्म होता है न, सो उनमें से कोई किसी न किसी बहाने घर में चली आतीं और सुर्र-फंू निकालने का यत्न करतीं। अम्माँ कुछ न कहतीं। भौजी की बात यूं ही टाल जातीं। पर ऐसी बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सो एक मुंह से दूसरे, फिर तीसरे होती हुई कालका की बहू के पागलपन की बातें घर-घर में पहुंच गयीं थीं। घर के दूसरे सदस्य भी परेशान थे। मुन्नी जिज्जी आपसी चर्चा में भौजी की बात उठने के डर से अपनी सहेलियों के पास जाने का साहस नहीं कर पातीं थीं और चम्पा प्रसाद पढ़ाई के बहाने गाँव में नहीं लौटते थे, कस्बे में ही बने रहते थे। पिताजी तो सदा से इकल मिजाजी रहे, न ऊधो का लेना न माधो का देना। सो उन्हें कोई दिक्कत न थी। वे अपने डाकघर के काम में लगातार व्यस्त रहते। कालका भैया तो सबसे ज़्यादा दुखी व परेशान थे। ़ सावन का महीना आया। आमखेड़ा से कालका भैया के साले अपनी बहन को लिवाने आये तो अम्माँ ने उनकी खूब आव-भगत की और भौजी को बिदा करके हमेशा के लिये अपने हाथ झटकार लिए. महीनों बीते। आमखेड़ा से एक दो कहनातें आयीं। तीसरी बार ज्वालाप्रसाद खुद आये। पर अम्माँ नहीं मानी। वे सिर्रन बहू को अपने घर में रखने को तैयार नहीं हुई. भौजी मायके में ही ज़िन्दगी बिताने लगी। चाय का खाली गिलास उठाने पंडिताइन खुद आई थी। पति को टोकना चाह रहीं थीं पर पंडित जी को गंभीर बना देखके कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ। सो चुपचाप लौट गई. इस वक्त चम्पा प्रसाद भी चाह रहे थे कि रोक के कमला (पत्नी) से कुछ मशविरा करें। लेकिन वे पुरानी यादों में डूब उतरा रहे थे, सो मन नहीं हुआ कि अतीत के गुनगने जल में से ऊपर उछरंे और वर्तमान की कड़क धूप में अपनी देह तपायें। आदमी का अतीत कैसा भी क्यों न हो वह सदैव ही अच्छा और स्मरणीय लगता है उसे। वर्तमान में तो विकल्प चुनने के खतरे ही खतरे है, लेकिन अतीत में कोई विकल्प नहीं होता। दसवीं पास करते-करते चम्पा प्रसाद की भी शादी कर दी थी अम्माँ ने। इसके पहले उन्होने मुन्नी जिज्जी को भी शादी करके ससुराल विदा कर दिया था। चम्पा प्रसाद की बहू घर में आई, तो कालका भैया का आंगन में प्रवेश निषेध हो गया। वे दालान या पौर में ही बैठे रहते या फिर पिताजी के साथ डाकघर का काम निपटाते रहते। चम्पा प्रसाद जब भी पत्नी के साथ होते एक अजीब-सा अपराध बोध उन्हें घेर लेता। वे भारी संकोच में रहते। घर में बिना घरवाली वाला ब्याहा थ्याहा बड़ा भाई बैठा था और छोटा जवानी का सुख भोग रहा था। कालका भैया का ध्यान खेती में लगने लगा था और वे भुरहरा-बेला खेत-टगर में निकल जाते फिर रात गये तक ही उधर ही रहते। ऐसे में ही एक दिन अचानक पिताजी सोते के सो
ते रह गये। घर पर आफत टूट पड़ी थी। अम्माँ का धीरज एक बार फिर काम आया। उन्होने तेरही होने के पहले ही कालका प्रसाद को डाकघर का काम संभलवा दिया। डाकखाने के बड़े अफसरों को दरख्वास्त भेजी गयी कि पिता की जगह पुत्र को डाकघर का काम दे दिया जाये। बाद में कालकाप्रसाद के नाम का रुक्का भी आ गया था, तो अम्माँ ने चैन की सांस ली थी। चम्पा प्रसाद की पढ़ाई छुड़ा के वापस बुलाया और अम्माँ ने उन्हें घर द्वार संभालने की जिम्मेदारी सौप दी थी। सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था। गाँव के एक मात्र पूजा स्थल राम जानकी मन्दिर की सेवा पूजा भी पंचों ने कालकाप्रसाद को सौंप दी, तो उनकी दिनचर्या सुबह से शाम तक एकदम तंग और कसी-कसी-सी हो गई थी। कार्तिक का महीना आया तो गाँव भर की औरते "कतक्यारी" बन गईं और कार्तिक नहान का व्रत ले बैठीं। हर दिन सुबह पांच बजे औरतों के ठट्ठ के ठट्ठ कुआँ-तालाब की तरफ चल पड़ते। नहाने के बाद भीगे कपड़ों में ही स्त्रियाँ मूर्ति के आसपास गोल बनाके बैठ जाती फिर देर तक भगवान को पूजती रहतीं। वे आपस में खूब चुहल बाजियाँ भी करतीं। इतनी स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एकाध मर्द बहुत ज़रूरी था, सो सब महिलाओं ने परस्पर घोका-विचारी करके पुजारी कालकाप्रसाद से थराई-विनती करी और उन्हें नहाने के बखत साथ चलने को राजी कर लिया। चम्पा प्रसाद अनुमान लगा सकते हैं कि बाहर से वैराग्य का प्रदर्शन करते कालका भैया का मन भीतर से कैसा क्या रहा होगा। उन क्षणों में उनका मन कैसे स्थिर रह पाता होगा, जब सिर्फ़ एक गीली साड़ी बदन पर लपेटे, अगल-बगल से अपने गुदाज-ठोस स्तनों की झलक दिखाती, कनखियों से कालका की नजरों को पढ़कर आँखें में सुखानुभूति भरे अर्धनग्न महिलायें पूजा करती हुई गीले कपड़ो में देर तक उनके सामने चुहल करती होंगीं। ...औ
र जब कोई कतक्यारी अपनी सखी के कान में फुसफुसाती होगी कि 'रात को कुत्ता छू गया सो मेरा तो धरम भिरस्ट हो गया। मैं पूजा कैसे करूं गुइयां' या 'कल मेरे ऊपर कल छिपकली गिर पड़ी जो हर बार चौथ-पांचे को गिरती थी दारी इस दफा परमा को ही आन गिरी, सो आज मैं पूजा नहीं कर पाऊंगी।' साधारण बात है कि "कुत्ता" और "छिपकली" के प्रतीकार्थ कालका भैया खूब समझते होंगे। प्यारी यहाँ दधिदान लगे, मम घाट यहाँ तुम जानत नाहीं। इकली छेड़ी वन मैं आय श्याम तूने कैसी ठानी रे। कंस राजा ते करुं पुकार, मुसक बंधवाय दिवाऊँ मार, तेरी ठकुराई देय निकार, कंस का खसम लगे तेरो, वह तनहा कहा मेरो, काउ दिन मार करु ढेरो, कालका भैया को सैकड़ों कवित्त, सवैया, लावनी और दोहे मुखाग्र याद थे, जबकि सखियाँ अपने हाथ में किताबें लेकर मुकाबला करतीं। पर अन्त में कालका भैया की ही जीत होती और सखियों को प्रचलित रिवाज के मुताबिक उन्हें थोड़ा-थोड़ा दान और माखन मिश्री देना पड़ता। तीसरे पहर उजले सफेद धोती कुर्त्ता में सजे-धजे, इत्र से महकते कालका भैया मन्दिर में बैठ के प्रेमसागर की कथा कहते। कृष्ण चरित्र की गाथायें सुनाते-सुनाते कालका भैया कथारस में गहरे डूब जाते और कथा में चल रहे हर प्रसंग, हर दृश्य और हर भाव का बारीक-बारीक वर्णन करते। उन्हें सारी बृज लीलायें अपने समक्ष साकार होती दिखतीं। गाँव वृन्दावन लगने लगता और सारी स्त्रियाँ गोपी. कालका भैया को भ्रम होता कि वे कान्हा बन गये हैं और वे कुछ ऐसी-वैसी हरकत कर डालते। शुरु-शुरु में मजाक मान के किसी ने कुछ न कहा पर रोज-रोज वही हरकत देख एक महिला ने घर जाके शिकायत कर दी, तो उस दिन लखन नौगरैया उलाहना लेकर अम्माँ के पास आ गये थे। अम्माँ ने उन्हे समझा-बुझा के वापस भेजा, तो अगले दिन पंचमसिंह दाऊ आ धमके थे। अब कर्री बीध गई थी, पटक्का होना था। अम्माँ ने उनसे थराई विनती कर क्षमा माँगी और कालकाप्रसाद को तत्काल ही कथा-भागवत के कार्य से बेदखल कर चम्पा प्रसाद को उनका चार्ज दिला दिया था। चम्पा प्रसाद ने निर्पेक्षभाव से कथा सुनाानी शुरू कर दी थी। कुछ ही दिनों में उन्हे अनुभव होने लगा कि सखियों को इस रूखी-सूखी कथा में मजा नहीं आ रहा है। वे कथा में दो अर्थ वाले संवाद नहीं जोड़ते थे, न रासलीला प्रसंग को लम्बा खींचते थे। दरअसल उनके घर में नवयौवना, सुंदर, सुघड़ दुलहन थी, सो उन्हे फुरसत ही नहीं थी कि गाँव की किसी भौजी को नजर भर के देखें। साठ बीघा खेतों की भरपूर फसल, कालका भैया की डाकघर की तनख्वाह और पुरोहिताई-चढ़ौत्री से इतनी आमदनी हो जाती कि अल्लै-पल्लै पैसा बरसता। उनके घर के लोग कभी भी ज़्यादा खर्चीले नहीं रहे। सब मोटा खाते-मोटा पहनते। सो टाईम-बेटाईम घर में पैसा बना रहता। अड़ौस-पडौस में जिसे ज़रूरत होती, अपना काम चलाने को रुपया माँग ले जाता। बाद में चम्पा प्रसाद ने बाकायदा ब्याज पर रुपया उधार देना शुरू कर दिया। इससे उनका मान-सम्मान और ज़्यादा बढ़ गया। अब वे कंगला ब्राह्यण न थे, बल्कि गाँव के इज्जत
दार बौहरे हो गये थे। धन और प्रतिष्ठा बढ़ी, तो ब्राह्यण समाज की बिरादरी-पंचायतों में वे पंच बनाये जाने लगे। गाँव की ग्रामीण पंचायतों में भी वे सर्वमान्य पंच बन गये। ज्यों-ज्यों इज्जत मिली, त्यों-त्यों वे छुआछूत और ब्राह्यणी संस्कारों के प्रति ज़्यादा कठोर होते चले गये। इस प्रतिष्ठा और मान-सम्मान ने उनके मन पर ऐसा असर छोड़ा कि वे कालका भैया के दूसरे ब्याह की बात तक नहीं सोच पाये। दरअसल कालका भैया को अब इस उमर में कोई कुंवारी लड़की तो देता नहीं, हाँ कोई विधवा या परित्यक्ता ब्राह्यणी मिल पाती। ऐसी औरत ले आने से चम्पा प्रसाद की सारी इज्जत धूल में मिल जाती। शुरूआत में तो अम्माँ के पास जब-तब कालका भैया की बदचलनी की शिकायतें आतीं तो अम्माँ उन्हे खूब डांटतीं और वे चुप बने सुनते रहते। पर बाद में वे बेशर्म और उग्र होने लगे। एक बार खेती के मईदार (हलवाहे) नत्था की परित्यक्ता बहन झुमकी से सम्बंध बने और अम्माँ ने उनको रोका तो उन्होने अम्माँ को खूब खरी-खोटी सुनाई थीं। उनका तर्क था कि अम्माँ सिर्फ़ चम्पा प्रसाद और उसके बच्चों की फिकर करती हैं, कालकाप्रसाद की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। इसी तरह जब एक बाल विधवा गाँव के स्कूल में मास्टरनी बनकर आयी और कालका भैया का उससे परिचय बढ़ गया तो उनका स्कूल में ज़्यादा आना-जाना होने लगा, तब अम्माँ ने उन्हें टोका तो कालका भैया ऐसे ही बिफर पड़े थे। दरअसल खेती पाती संभालने का हुनर तो घर में सिर्फ़ उन्हीं के पास था, चम्पा प्रसाद तो ऊपरी उठा-धराई करते थे। इसलिए कालकाप्रसाद को खुद के पसीना पर बड़ा घमण्ड था और सब लोग उनसे दबते भी थे। अभी साल भर पहले की बात है। उस रात अम्माँ को अचानक हैजा हुआ, तो उन्हें तुरन्त ही मोटर सायकिल पर बिठा के कस्बे तक भागे गये। सारा घर पर
ेशान हो उठा। इन्जेक्शन लगेे। बोतलें चढीं। पर अम्माँ बच नहीं पाईं। घर पर अचानक गाज-सी गिर गई. सब लोग बुरी तरह टूट गये। सबसे ज़्यादा सदमा कालका भैया को लगा। उन पर ऐसा असर हुआ कि वे काम-वासना से एक बार फिर वैरागी से हो गये। उनका ध्यान पूरी तरह से खेती में लगने लगा। एक-एक करके चार कुंये खुदवाये और पूरी जमीन पटवारी की बही में सिंचित रकवा के रूप में दर्ज हो गई. बैल की तरह वे खेत टगर में घूमते रहते और फसल के सीजन में धन-धान्य से घर भर देते। हाँ ठसके से रहने का नया शौक चर्राया था उन्हें। सफेद उजले कमीज-पजामा पहनकर पावों में वे चमड़े के पंप-शू पहन लेते। सिर में महकौआ तेल चुपड़ कर प्रायः गाँव के बस स्टैण्ड पर सुबह ही जा बैठते, फिर सांझ ढले वहाँ से लौटते। एक बार फिर सब कुछ ठीक हो गया था। छह महीना पहले गाँव में नया सरकारी अस्पताल खुला और दक्षिण भारत की एक नर्स उसमें स्थायी रूप से नियुक्त होकर रहने के लिए आ गई थी। पता लगा कि यह नर्स केरल की रहने वाली है और इसका नाम चेलम्मा है। गाँव की औरतें कई दिनों तक चटखारे लेकर नर्स के नाम का उच्चारण करने की कोशिश करती रहीं थीं। चम्पा प्रसाद ने चेलम्मा की सराहना सुनी थी कि इतने दूर से अकेली चली आई चेलम्मा सचमुच बड़ी निडर और समझदार औरत है। उसकी तत्परता का ये हाल था कि गाँव में से रात बिरात जब भी बुलौआ पहुँचता वह तुरंत ही अपने कंधे पर सरकारी बेग लादकर हाथ में टॉर्च ले तेज कदम रखती फटाक से गाँव में आ धमकती। गाँव में किसी की जचगी होती या किसी दुल्हन के पहली बार पाँव भारी होने की खबर फैलती चेलम्मा सदा ही वहाँ मौजूद मिलती। धीरे-धीरे गाँव भर में वह इतनी लोकप्रिय हो गई कि लोग उसे घर का सदस्य मानने लगे। चर्चा सुनी तो एकदिन चम्पा प्रसाद भी टहलते हुये भी अस्पताल जा पहुँचे थे। अस्पताल के चौकीदार ने नर्स को उनका परिचय दिया तो चेलम्मा ने उनके प्रति खूब आदर प्रकट किया और सिर पर पल्लू लेकर बैठ गई. उन्हें सुखद विस्मय था कि देश के किसी भी कोने की महिला क्यों न हो सब एकसी होती हैं-वही शालीनता, वही लज्जा और वही सौहाद्रता। देखने में साँवली और सूखे से चेहरे की चेलम्मा की उम्र मुश्किल से तीस वर्ष दिखती थी। रहन-सहन में वह बड़ी साफ और गरिमामय महिला दिखती थी। उसका हिन्दी बोलना अच्छा लगता था। वह खूब पढ़ी-लिखी थी और दुनियादारी की बातें अच्छे से समझती थी। उस दिन मन ही मन चेलम्मा की तारीफ करते वे वहाँ से लौटे थे। उन्हीं दिनों की बात है। अचानक कालका भैया को पूरे बदन में खुजली का रोग फूट निकला। ऐसा भयानक कि वे बेहाल हो उठे। हाथ की उंगलियों के जोड़ से शुरु र्हुइं छोटी-छोटी पीली फुंसियाँ जांघों-रानों और जहाँ जगह मिली, बढ़ती चली गईं। खुजली टांगों में फैली तो चलना मुश्किल हो गया, लुंगी बांधे वे टांगें चौड़ी करके चलते थे तो बड़ी तकलीफ होती थी। कांयफर को गुड़ में मसल कर खाया और तेल में मिलाके उन्होने कई दिन लगाया, चिरौंजी और मिश्री कई दिनों तक भसकी पर ठीक न हुये। पहले त
ो हिचकते रहे, फिर एक दिन अस्पताल जाकर कालका भैया ने खुजली की दवा माँगी, तो नर्स चेलम्मा ने बिना किसी लिहाज के अपने हाथों कालका भैया के शरीर पर नीली-सी दवा पोत दी थी। उसके बेलिहाज आचरण, समर्पित सेवाभाव और खुलेपन पर कालका भैया भावाविभूत हो उठे थे। चम्पा प्रसाद को ठीक से याद है कि कालका भैया तब से रोज ही अस्पताल पहुंचने लगे हैं। शरीर की बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी थी, पर शायद दिल की बीमारी लग गई थी कालका भैया को। फिर तो घर से प्रायः दालें-दफारें, गेंहूँ-चना यानी कि फसल पर जो भी चीज पैदा हो झोलों में भर-भर के चेलम्मा के पास पहुंचने लगी हैं। चम्पा प्रसाद यह सब देखके जान बूझकर चुप रहते हैं। आरंभ में उनके मन में आया कि चेलम्मा पढ़ी-लिखी खुद-मुख्तार औरत है। उसने जो भी किया होगा अच्छी तरह से सोच समझ के किया होगा। फिर दूसरी औरतो की नांई दूर देश की इस अकेली औरत के वास्ते लड़ने-तकरार करने को कोई नहीं आने वाला है। यह सब उनने खूब सोचा है। चलो अच्छा है, इस बहाने बड़े भैया का कुछ दिन मन बहलता रहे। क्या हर्ज है? कई रातों से बड़े भैया के घर न लौटने पर इसी लिये उनने कुछ नहीं कहा है। पर आज जिस तरह से लूले कक्का ने उन्हें उलाहना दिया, उससे लगता है कि अब गाँव वालों के पेट में दर्द हो उठा है। बेटी की आवाज से वे चौंके. वह याद दिला रही थी कि दोपहर के दो बज गये हैं और उनने अभी तक न नहाया-धोया न पूजा करी। उदास से वे उठे और अपनी धोती-बनियान लेकर बाखर के पिछवाड़े वाले हैण्डपम्प पर जा पहुंचे। पाठ पूरा होते ही उनने धुले कपड़े पहन लिये थे और पीतल का लोटा माँज के शुद्ध पानी से भर लिया था। बाखर में रखी सैकड़ो साल पुरानी बलुआ पत्थर की खंडित और सांगोपांग रखी अनेक अज्ञात देवताओं की अस्पष्ट-सी प्रतिमाओं पर रोज की
तरह जल ढार के उन्होने सूरज भगवान की ओर मुंह उठाया और लोटे को थोड़ा ऊँचा उठाके तुलसाने में जल धार गिराना शुरु कर दी-ऊँ तापत्राय हरं दिव्यं परमानंद लक्षणम्। तापत्राय विमोक्षायतवार्ध्य कल्पयाभ्यहम्। अटारी के नीचे वाले मढ़ा में बने पूजा के स्थान पर अगरबत्ती जलाके वे पूजा करने बैठे तो लाख जतन करने से भी ध्यान में मन न लगा। न वे जप कर सके, न गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ। ...संध्यावंदन तो वैसे भी संभव न था। वे आँख मूंद के वहाँ चुपचाप बैठे रहे। लेकिन मन कहाँ चुपचाप था...! बूढ़े-पुराने सच कह गये हैं कि किसी के बारे में कुछ निर्णय लेने से पहले दस बार सोचना चाहिये। लूले कक्का भी खानदान से ब्राह्मण हैं लेकिन पूरे बीस बिश्वा नहीं है, सो गाँव के ब्राह्मण उनसे दूरी बना के रखते हैं। ब्राह्मण दूर रहेे तो प्रतिक्रिया में लूले कक्का शुरू से हरिजनों के हितचिंतक रहे और वहीं उठते बैठते रहे। सो कौन ब्याह करता उनके बेटे के साथ? कक्का का छोटा बेटा प्रकाश पैंतीस साल का होकर अनब्याहा बैठा था। पांच साल पहले प्रकाश ने एक बाल विधवा हरिजन लड़की से सम्बंध जोड़े तो समाज की पंचायत बैठी थी। तब पंच की हैसियत से चम्पा प्रसाद ने प्रकाश के खिलाफ फैसला दिया था और तब से लूले कक्का का बाकायदा गाँव भर में हुक्का पानी बंद है। चोट खाये नाग से फुफकारते हैं तबसे लूले कक्का, दूसरों पर तो वश नहीं चलता, पर चम्पाप्रसाद को नोचिया मार ही लेते है। खुद तो मन मार के कहीं भी चले जाते हैं पर कोई भी उन्हें दिल से आदर नहीं देता। अब कालका भैया के मार्फत उन्हे चम्पा प्रसाद पर निशाना साधने का मौका मिला है, ...वे ऐसे नहीं त्याग देेंगे इसे। आज लूले कक्का पूरे गाँव में चर्चा फैला देंगे कि कालका दुबे ने अस्पताल की मद्रासी-सी दिखती केरली नर्स को रखैल बना लिया है और पखवारे भर से उसी के क्वार्टर में रात रुकते हैं। कल यही बात ब्राह्मन विरादरी में जायेगी तो मुंह दिखाने काविल नहीं बचेंगे वे। उनने जिन आरोपियों का फैसला किया है, वे अब आकर मुंह पर उलाहना ठोकेंगे। बरतन के मुंह पर तो ढकना हो सकता है, अब आदमी के मुंह पर काहे का ढकना लगायें। कौन-कौन का मुंह रोकते फिरेंगे वे! मुन्नी जिज्जी की ससुराल तक भी बदनामी पहुंचेगी तो बहनोई और उनके पिता की कहलान आ जायेगी। चम्पा प्रसाद की खुद की ससुराल में यह प्रसंग नमक-मिर्च लगाके पहुंचेगा तो कितनी शर्मिन्दगी उठाना पड़ेगी। सालों और ससुर पर आज जो नाक ऊंची करके अपनी शान बघारते हैं वह सब पल भर में फीकी हो जायगी। उनके घर तो कच्चा कुड़बारा है, घर में जवान होती लड़की है। लड़की की पीठ का लड़का भी सयाना है। वे दोनों अपने ताऊ की बदनामी सुनेंगे तो गाँव में लोगों से कैसे आँख मिला पायेंगे। अपने बाप से भी कैसे नजर मिला सकेंगे। तो? तो क्या समाधान है इस समस्या का? ...समाधान कहो, रास्ता कहो अब हल तो एक ही है कि कालका भैया को खुली साफ जुबान से समझा दिया जाये कि-तुरंत बंद करो अब अपने ये एैल-फैल। तिलांजलि दो अपने कुकर्
मों को। तुम्हारे कुकर्मों की वजह से आज पूरे खानदान की नाक कट रही है। जिस जात कुजात से रिश्ता बनाके बैठ गये हो, छोड़ो उसे! कालका भैया यदि चम्पा प्रसाद की बात न समझें तो उन पर रिश्तेदारों का दबाब बनायेंगे। मुन्नी जिज्जी के ससुर को बुला लेंगे, उनसे कहलायेंगे। न होगा तो मामा को बुला लेंगे। उनका कहना तो मानेंगे कालका प्रसाद। जिसका भी कहा मानें, उसी से कहलायेंगे। किसी भी तरह अब ये सम्बंध खत्म करवाना है उन्हें। चम्पा प्रसाद ने अनेक धर्मग्रंथ पढ़ रखे हैं। उन्होने अध्ययन किया है कि जब किसी व्यक्ति पर वासना का भूत चढ़ता है, तो वह किसी की नहीं मानता। बुढ़ापे में उठी वासना की आग तो वैसे भी ज़्यादा भड़कती है, इसके कितने ही उदाहरण हैं ग्रंथों में। भीष्म के पिता शांतनु इसी उम्र में मछुआरे की लड़की पर मोहित हुये थे और इसी अवस्था में पहुंचकर राजा ययाति भी देवलोक की अप्सरा के वशीभूत हो गये थे। वे तो इस कदर दीवाने हुये कि अपने बेटे की जवानी तक उधार ले ली थी उन्होने। सहसा उनके विचारों के अश्व रुके... कहीं कालका भैया इस बात पर अड़ गये और चेलम्मा से सम्बंध नहीं तोड़े, तो? इस एक अक्षर के प्रश्न की अभेद्य दीवार को भेदने के लिये दो-तीन रास्ते सूझते हैं उन्हें। एक तो यही कि बदचलनी के अपराध में ब्राह्मणों की बिरादरी से बहिष्कृत करवा सकते हैं वे कालका प्रसाद को। ताकि भूत-प्रेत की तरह ता उम्र अकेले जियें। रखें रहे और निहारते रहें उस काली-कलूटी बदजात औरत को। दूसरा यह भी कि पूरे गाँव के लोगों को भड़का कर थू-थू भी करा सकते हैं वे अपने बड़े भैया की। गली-गली में लोगों के उलाहने सुनेंगे, तो सारी अकल ठिकाने आ जायेगी। एक रास्ता यह भी है कि अस्पताल और डाकघर के बड़े अफसरों के पास जाकर चम्पा प्रसाद खुद शिकायत कर सक
ते हैं। नौकरी ही खतरे में होगी तो दोनों की मस्ती क्षण भर में काफूर हो जायेगी। नर्स को यहाँ से दूर कहीं तबादले पर भी फिकवा सकते हैं वे थोड़े प्रयत्न से, ... और तबादला न हो पाये तो उसके हाथ-पाँव भी तुड़वाये जा सकते हैं। उनके ये इगड़े-बिगड़े चेले कब काम आयेंगे भला! ज़्यादा तीन-पांच करेंगे तो कालका भैया को भी सबक सिखाया जा सकता है। जमीन जायदाद के हक के लिए तो महाभारत जैसे युद्ध हो गये हैं भाई-भाई के बीच। शास्त्र कहते हैं कि ऐसे युद्ध धर्मयुद्ध होते हैं। नये-नये उपाय तलाशती उनकी बुद्धि के सामने फिर एक प्रश्न चिह्न उठा-कालका भैया आखिर उनके बड़े भाई हैं, हर रास्ते की काट सोच लेंगे। उन पर विरादरी और गाँव के प्रतिबंधों का भला क्या असर होगा? वैसे भी सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक खेत-टगर में समय काटने वाले कालका भैया को इन गाँव वालों, जाति वालों और सरकारी अफसरों का भला क्या डर? उन्हें क्या मूसर बदलना है किसी से! किसी से अपनी संतान थोड़े ब्याहने जाना है। निःसंतान रण्ड-सण्ड आदमी। आज मरे कल तीसरा। डरता-हिचकता वह हैं जिसके पास गंवाने के लिए, खोने के लिये कुछ हो। इनके पास कुछ है ही नहीं, तो खोंयेगे क्या? क्या बिगड़ेगा उनका? हाँ, सचमुच कालका भैया का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, यह सोचकर चम्पा प्रसाद बैचेन हो उठे। कालका भैया कल को ये भी कह सकते हैं कि चलो मैं छोड़ देता हूँ तुम्हारा घर! मेरा हिस्सा-पटा कर दो इसी वक्त! हाँ सचमुच वे अपना हिस्सा तो माँग ही सकते हैं। हिस्सा माने आधी जायदाद, माने कुल जायदाद में से तीस बीघा जमीन, दो कुँआ, दो भैंसे, तीन बैल और आधी बाखर। अर्थात घर का सब कुछ आधा-आधा। यदि आधा धन चला गया तो क्या बचना है! बहुत कमजोर होके रह जायेंगे चम्पा प्रसाद। कुछ भी तो शेष नहीं रहेगा। जिस जमीन जायदाद के जोर पर उछल रहे हैं वहीं न बची तो क्या इज्जत रह जायेगी? कानी-बूची जायदाद क्या माथे से ठोकेंगे वे! कहाँ तो इस बरस नया ट्रेक्टर उठाने का मीजान लगा रहे थे और कहाँ अब मौजूदा चीजें बचाने के लाले पड़ गये हैं। तीस बीधा जमीन में तो कोई भी बैंक वाला ट्रेक्टर का कर्जा नहीं देगा। सारे अरमान अधूरे रह जायेंगे। घर से ऊँचा-पूरा भाई चला गया तो हिम्मत ही टूट जायेगी उनकी। फिर कैसे संभालेंगे वे अपनी कच्ची ग्रहस्थी? गाँव के लोग तो वैसे ही दुश्मन हैं। वे सब ऐसे ही मौके की तलाश में रहते हैं। अकेला देख के चढ़ ही बैठेंगे चम्पा प्रसाद पर। ... और अगर अपने हिस्से की खेती संभालने की जिम्मेदारी चम्पा प्रसाद पर आन पड़ी तो कैसे संभालेंगे वे अपनी खेती? उन्होने अपनी ज़िन्दगी में खेती करी ही नहीं है कभी। खेती तो बिगड़ ही जायेगी अनाड़ी हाथों में पड़ के. खेती बिगड़ी तो सब कुछ बिगड़ा। फिर भरी-पूरी गृहस्थी का साथ है, आधी-अधूरी फसल में क्या नहायेंगे, क्या निचोड़ेंगे! उधर कालका भैया और उस कल्लो चेलम्मा के मजे ही मजे होंगे। तीस बीघा खेत में दक्ष-सुघड़ हाँथों से पैदा की गई अल्लै-पल्लै फसल, दो-दो तनख्वाहें और खर्च के
नाम पर सुखे-पुछे दो जने। रईसी ठाठ होंगे उनके तो। चम्पा प्रसाद को कालका भैया का जीवन बड़ा सुखी दिखा। उनने मन ही मन अपनी जीवन शैली से कालका भैया की शैली की तुलना की वह एक ईर्ष्या-सी हो आई उन्हें। बस एक पत्नी की ही तो कसर रही ज़िन्दगी में, इस कमी की क्षतिपूर्ति दर्जनों जगह से करते रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिया है कालका भैया ने, हर बिरादरी, हर नस्ल और हर उम्र की बछिया पर हाथ फेरा है। चम्पा प्रसाद हैं कि अपनी पत्नी के खूंटे से बंधे बैठे रहे शुरु से। पंडिताईन की मौटी थुल-थुल देह पहली थी। ...और वही शायद आखरी रहेगी। उन्हें जजमान प्रोहिताई में ऐसी-ऐसी औरतें देखने को मिली हैं कि उनके आगे इन्द्र के दरबार की अपसरा भी फीकी लगें। संगमरमर-सी तराशी नाक-नक्श वाली युवतियाँ जिन्हें देखकर ही अच्छे-अच्छों का मन विचलित हो जाये। पर वे कभी विचलित नहीं हुए. या यों कहो कि उनके भाग्य में पर नारी को भोगना लिखा ही न था। सो वे लंगोट के पक्के बने रहे। चम्पा प्रसाद को लगा कि मन कुछ बैठ-सा रहा है। उन्हें अपने भाई पर एक बार फिर झुंझलाहट हो आई-ये कालका भैया भी खूब हैं! अरे दिल भी लगाना था तो किसी ब्राह्मणी से लगाते। आज इतनी बात बढ़ गई थी तो मन मार के उस औरत को घर में ले आते। देखो तो, इस बदसूरत जात-कुजात अंजान मजहब की, कहाँ की औरत से नेह लगाया है, कालका भैया ने। उन्होने गहरी सांस खींचते हुये सोचा-कदाचित यही औरत उत्तरी न सही दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती। तो भी वे कुछ सोचते। सोचते क्या, खुशी-खुशी तैयार हो जाते। इधर घर की जायदाद बची रहती, उधर नर्स की तनख्वाह के नये करारे पांच हजार रुपये के नोटों की गड्डी हर माह घर में आने लगती। उनकी आँखों के आगे पांच हजार रुपये की गड्डी तैरने लगी। उन्हें लगा कि उनके मन में इतनी दे
र से उठ रहा बवंडर कुछ ज़्यादा ही तेज हो चला है। प्रतिकूल और आपदाग्रस्त स्थितियों में सदा से चम्पाप्रसाद का मस्तिष्क कुछ तेज ही चलता रहा है। वे अपनी बिरादरी में चतुर दिमाग के माने जाते हैं। खुद की विलक्षण और शरारती क्षमताओं पर उन्हें भी खूब गर्व है। गहरी नींद में भी उन्हें अहसास रहता है कि वे समाज की सर्वोच्च बिरादरी में हैं। लोगों को सही ग़लत बतलाना उनका खानदादी अधिकार है, जो हर ब्राम्हण बच्चे को स्वतः ही जन्म जात मिलता है। बड़ी जाति वालों की मजबूरियों और तकलीफों के शुभचिंतक हैं वे। छोटी जाति वाले तो पशु योनि में रहे हैं। भला इनसे क्या सहानुभूति रखना। यह उन्हें बचपन से ही बताया गया है। अब ब्राह्मण तो ब्रह्मा का मुख हैं-ब्राह्मणो मुख मासीत्। सारे ब्राह्मण एक ही तो हैं चाहे उत्तरी हो चाहे दक्षिणी। यह तो भौगोलिक भेद हैं। सब ब्राह्मणों के गोत्र, पटा, आसपद, वेद और बैक (आंकना) एक है। सब के ग्रन्थ एक, संस्कार एक और धार्मिक प्रतीक भी एक से होते हैं। खाल के रंग और भाषा, पहनावा तो ऊपरी भेद हैं। इन्हें छोड़दे तो सब गड्डम-गड्ड हो सकते हैं। मनुष्य-मनुष्य वैसे भी एक से होते हैं। वही हाथ-पाँव, वही खून-माँस, काहे का फर्क और काहे का भेदभाव? वे अनायास चेते। मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा-यह क्या क्षेत्रवाद और जातिवाद का सबसे बड़ा समर्थक रहा उन जैसा व्यक्ति ऐसा उदार कैसे हो सकता है। उन जैसा कर्मकाण्डी-वेदपाठी व्यक्ति ऐसा सोचने लगेगा तो समाज के दूसरे लोगों का क्या होगा? यह तो पाप हैं, घोर पाप। ऐसा सोचने का दण्ड मिलेगा उन्हें। एक पल मस्तिष्क शून्य रहा फिर मन ने तर्क गढ़ा-कलियुग में सोचने मात्र से कभी पाप नहीं लगता, पुण्य ज़रूर लगता है। तुलसी बाबा कह गये हैं-कलिकर एक पुनीत प्रतापा, मनसा पुण्य होइ नहीं पापा। समाज के दूसरे लोगों की चिन्ता करने से भला उनका कैसे काम चलेगा! ये भौतिक जमाना है। रुपया पैसा ही सबकुछ है इस युग में। सम्पत्ति बचा लेना सबसे बड़ी सफलता होगी इस जमाने में। वैसे भी छोटी जाति की लड़की लेना तो सदा से अधिकार रहा है बड़ी जाति वालों का। कृष्ण द्वैपायन व्यास की प्रिया भला कोई उच्च वर्ण से थी क्या? मनु स्मृति में कहा गया है कि स्त्री की कोई जाति नहीं होती। जिस बिरादरी का व्यक्ति कन्यादान करे, लड़की का गोत्र वही होता है। जिस खानदान में ब्याही जाये उसी जाति की कुलवधू कहलाती है। चम्पा प्रसाद को याद आया कि समाज में हजारों साल पुरानी कहावत है-राजा घर आई रानी कहलायी, पंडित घर आई पंडिताईन कहायी। स्त्री तो समाज की गूंगी गाय है। न उसकी अनुमति लेना न जाति पूछना, यह पुरातन रीति है इस देश की। पूजा पर बैठे-बैठे ही चम्पा प्रसाद ने अनुभव किया कि उन्होने आज क्या-क्या नहीं सोच लिया। कभी-कभार आत्म निरीक्षण करने पर वे अपने आप को बड़ा सीधा, सौम्य और नीतिवान पाते हैं। लेकिन आज उन्हें स्वयं पर विस्मय था कि आदमी को खुद पता नहीं होता कि उसके अवचेतन मन में परिवार, समाज और विरादरी से क्या-क्य
ा अवधारणा जम जाती हैं। गाँव में लूले कक्का और उनके सहयोगी लोग अब तक जो धूर्त, चालाक और गुरु घंटाल की उपाधियाँ देती रहे वे शायद सच्ची थीं। उन्हें ताज्जुब था कि इन उपाधियों को याद करके उन्हें ज़रा भी लज्जा और हीन भावना अनुभव नहीं हो रही है-बल्कि गर्व-सा लग रहा है। वे चैतन्य हो गये। मन ही मन उन्होंने एक निर्णय लिया कि उनने जो सोचा है "कदाचित यही औरत उत्तरी न सही दक्षिणी भारतीय ब्राह्मण होती तो वे कुछ सोचते" वह कल्पना हवाई नहीं है। उसे सच भी किया जा सकता है। हो सकता है चेलम्मा सचमुच दक्षिण भारतीय ब्राह्मण बिरादरी यानी नम्बूदरी या आयंगर ब्राह्मण हो। अब तक उससे जाति पूछी ही किसने है? चम्पा प्रसाद मन ही मन एकाएक उन्होंने बड़ा भीष्म निर्णय लिया जो न उनके पहले किसी ने लिया था न उनके खानदान में शायद कोई ले पाये। चेलम्मा अब इस घर में ज़रूर आयेगी। वह अगर ब्राह्मण जाति की ना भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी भविष्य में उसकी असली जाति का पता किसे लगना है। अभी उसी से कहला देंगे की वह केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण खानदान की कन्या है। फिर क्या है, गाँव में मंदिर में जाकर विधि विधान से कालका भैया की सप्तपदी करा देंगे, गाँव वालों को खीर-पूरी के साथ पचबन्नी मिठाई की पंगत जिमा देंगे सो वे भी चुप। ब्राह्मण समाज के अध्यक्ष को बुलाकर कहेंगे-पंडित जी आप जो कान्य-कुब्ज, जिझौतिया, सनाड्य और भार्गव जैसे उपभेद समाप्त करने की बात करते हैं ह उससे सहमत हैं और अपने घर में ही यह दिखाने को तैयार हैं। हम तो दो करम आगे जाकर दक्षिण भारतीय ब्राह्मण की लड़की घर में ला रहे हैं। चलो कन्यादान आप ही कर दो। चेलम्मा से कहके केरल के रहने वालों में से इधर आसपास कहीं कोई परिवार होंगे तो उन्हें न्यौता भेज देंगे। विवाह संस्कार
को "दक्षिणी विवाह पद्धति" से सम्पन्न करा देंगे। मलयाली स्त्रियाँ इस अवसर पर कितनी भलीं लगेंगी जब वे एक स्वर होके मलयानी में ब्याहगीत गायेंगी। विवाह करने के निर्णय के साथ ही उनके मन का सारा द्वंद्व धूल के अंधड़ की तरह एकाएक मंदा पड़ता हुआ शांत हो गया-चलो जायदाद बची रह गई तो जाति और समाज भी सम्मान देगा। अपने इष्ट देव के सामने उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। उठे और उतावली में आंगन में चले आये। दिन ढल रहा था पर उन्हें न भूख थी न प्यास। कुछ देर बाद ही वे धुले-चमकदार धोती-कुर्ता पहन कर नये पम्पशू पगँव में उलझाये घर से बाहर निकल पड़े थे। बाहर दरवाजे के आगे नौहरे में भैंसे और गायें बंधी थीं। उन्हें देखकर चम्पा प्रसाद को एकाएक लाड़-सा उमड़ आया। वे उनके पास गये और पुचकारने लगे। उन्होने सींग की जड़, कान और गर्दन को खुजलाया फिर ढोर के गले में नीचे लटकी नर्म खाल की झालर सहलाते हुये उनका मन मोह में डूबने उतराने लगा। कुछ देर बाद ही वे अपने खेतों के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ से वहाँ तक भरपूर जवानी से लदी गेंहूँ की सुनहरी फसल खड़ी थी। चारों ओर जैसे सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। फसल देखकर उनकी आँखों की चमक और ज़्यादा बढ़ गई-इस साल बीघा पीछे छह क्विंटल से कम क्या झरेगा! अस्पताल जाने वाले रास्ते पर मुड़ते हुये वे एक कुशल संवाद लेखक की तरह ऐसे वाक्य रच रहे थे, जो चेलम्मा के मुंह से बुलवाये जाने पर न तो बनावटी लगें और न अस्वाभाविक। अब न उन्हें बैचेनी थी और न कोई भय। बल्कि एक अजीब-सी उत्तेजना थी। उनकी चाल को देख के यह उत्तेजना सहज ही समझ में आ जाती थी।
पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेंद्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेंद्रसिंह् भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चंद्रकांता की शादी वीरेंद्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया ।' महाराज ने कहा - 'मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गए। कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेंद्रसिंह की मुहब्बत जाती रही । हाय, इस क्रसिंह ने तो गजब ही किया । इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है ।' महारानी ने कहा - 'देखें, अब वह चुनारगढ़ में जा कर क्या करता है?' जरूर महाराज शिवदत्त को भड़काएगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा । महाराज ने कहा - 'खैर, देखा जाएगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।' यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गए। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया। क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए । नाजिम को साथ लिए चुनारगढ़ पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर लें कर हाल पूछा । क्रूरसिंह ने कहा - 'महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकांत में कहूँगा।' हुआ, शाम को तखलिए (एकांत) में महाराज ने क़रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि - 'लश्कर का इंतजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है । चंद्रकांता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।' ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया । आखिर महाराज ने कहा 'हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चारों ऐयारों के साथ पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को ले कर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर ले कर पहुँच जाएँगे ।' उन ऐयारों के नाम थे - पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह । महाराज ने पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्र
ूरसिंह के हवाले किया । अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया - 'महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रुरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनारगढ़ जाने का हाल सुन कर महाराज जयसिंह ने घर-बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म है?' यह सुन कर क्रूरसिंह के होश उड़ गए। महाराज शिवदत्त ने सभी को अंदर बुलाया और हाल पूछा । जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया। इसके बाद रसिंह और नाजिम की तरफ देख कर कहा - 'अहमद भी तो आपके पास आया है।' नाजिम ने पूछा, अहमद । वह कहाँ है? यहाँ तो नहीं आया ।' सभी ने कहा - 'वाह! वहाँ तो घर पर गया था और यह कह कर चला गया कि मैं भी चुनारगढ़ जाता हूँ ।' नाजिम ने कहा - 'बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं । उसी ने महाराज को भी खबर पहुँचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है ।' यह सुन क्रुरसिंह रोने लगा । महाराज शिवदत्त ने कहा - 'जो होना था सो हो गया, सोच मत करो । देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हुमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुंब को रखो, रुपए की मदद सरकार से हो जाएगी।' क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया। कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर रसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया । सब इंतजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया । ऐयार लोग भी अपने-अपने सामान से लैस हो गए। कई तरह के कपड़े लिए, बटुआ, ऐयारी का अपने-अपने कंधे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया, ज्योतिषी जी ने भी पोथी-पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी-बहुत ऐयार
ी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुंड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ । इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था । देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं? वीरेंद्रसिंह् और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिए चंद्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे । एक तरफ से चंद्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई हैं और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है, जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं । कुँवर वीरेंद्रसिंह उदास बैठे हैं, चंद्रकांता के विरह में मोरों की आवाज तीर - सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊँची साँस ले रहे हैं। इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनंदी तिलक लगाए, हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा 'गए चुनारगढ़ क्रूर बहुरंगी लाए चारचितारी । संग में उनके पंडित देवता, जो हैं सगुन विचारी ।। इनसे रहना बहुत सँभल के रमल चले अति कारी । क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी ।।' यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा । वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुँह करके गा रहा था । तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दाँत निकाल कर दिखला दिए और उठ के चलता बना। वीरेंद्रसिंह अपनी चंद्रकांता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं । वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है । एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया । कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा- 'कुछ सुना?' कुमार ने कहा - 'क्या? नहीं तो, कहो।' तेज सिंह ने कहा - 'उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकांत में कहेंगे।' वीरेंद्रसिंह सँभल गए और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आए और अपने कमरे में जा कर बैठे। अब एकांत है, सिवाय इन दोनों के इस समय इस कमरे में कोई नहीं है। वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से पूछा - 'कहो क्या कहने को थे?' तेजसिंह ने कहा - 'सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनारगढ़ गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए। वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मंडली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सँभल कर रहिए। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई-न-कोई जरूर इस तरफ भी आएगा और आपको फँसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहिएगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न
सूँघिएगा और इस बात का भी ख्याल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आएँ तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आँख के अंदर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से ले कर दिन में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा । अगर यह काम मैं न करूँ तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।' और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने समझाईं जिनको खूब गौर के साथ कुमार ने सुना और तब पूछा - 'तुमको कैसे मालूम हुआ कि चुनारगढ़ से इतनी मदद इसको मिली है?' तेजसिंह ने कहा - 'किसी तरह मुझको मालूम हो गया, उसका हाल भी कभी आप पर जाहिर हो जाएगा, अब मैं रुखसत होता हूँ, राजा साहब या मेरे पिता मुझे पूछे तो जो मुनासिब हो सो कह दीजिएगा । पहर रात रहे तेजसिंह ऐयारी के सामान से लैस होकर वहाँ से रवाना हो गए। चपला बालादवी के लिए मर्दाने भेष में शहर से बाहर निकली। आधी रात बीत गई थी। साफ छिटकी हुई चाँदनी देख एकाएक जी में आया कि नौगढ़ चलूँ और तेसिंह से मुलाकात करूँ । इसी ख्याल से कदम बढ़ाए नौगढ़ की तरफ चली । उधर तेजसिंह अपनी असली सूरत में ऐयारी के सामान से सजे हुए विजयगढ़ की तरफ चले आ रहे थे। इत्तिफाक से दोनों की रास्ते ही में मुलाकात हो गई। चपला ने पहचान लिया और नजदीक जा कर अपनी असली बोली में पूछा - 'कहिए आप कहाँ जा रहे हैं?' तेजसिंह ने बोली से चपला को पहचाना और कहा - 'वाह । वाह ।। क्या मौके पर मिल गईं। नहीं तो मुझे बड़ी मेहनत तुमसे मिलने के लिए करनी पड़ती क्योंकि बहुत-सी जरूरी बातें कहनी थीं। आओ इस जगह बैठो ।' एक साफ पत्थर की चट्टान पर दोनों बैठ गए। चपला ने कहा - 'कहो वह कौन-सी बातें हैं?' तेजसिंह ने कहा - 'सुनो, यह तो तुम जानती ही हो कि क
्रूर चुनारगढ़ गया है। अब वहाँ का हाल सुनो, चार ऐयार और एक पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी को महाराज शिवदत्त ने मदद के लिए उसके संग कर दिया है और वे लोग यहाँ पहुँच गए हैं। उनकी मंडली अब भारी हो गई और इधर हम तुम दो ही हैं, इसलिए अब हम दोनों को बड़ी होशियारी करनी पड़ेगी। वे ऐयार लोग महाराज जयसिंह को भी पकड़ ले जाएँ तो ताज्जुब नहीं, चंद्रकांता के वास्ते तो आए ही हैं, इन्हीं सब बातों से तुम्हें होशियार करने मैं चला था ।' चपला ने पूछा - 'फिर अब क्या करना चाहिए? तेजसिंह ने कहा - 'एक काम करो, मैं हरदयालसिंह नए दीवान को पकड़ता हूँ और उसकी सूरत बना कर दीवान का काम करूँगा। ऐसा करने से फौज और सब नौकर हमारे हुक्म में रहेंगे और मैं बहुत कुछ कर सकूँगा। तुम भी महल में होशियारी के साथ रहा करना और जहाँ तक हो सके एक बार मुझसे मिला करना । मैं दीवान तो बना रहूँगा ही, मिलना कुछ मुश्किल न होगा, बराबर असली सूरत में मेरे घर अर्थात हरदयालसिंह के यहाँ मिला करना। मैं उसके घर में भी उसी की तरह रहा करूँगा।' इसके अलावा और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने चपला को समझाईं। थोड़ी देर तक चहल रही इसके बाद चपला अपने महल की तरफ रुखसत हुई। तेजसिंह ने बाकी रात उसी जंगल में काटी और सुबह होते ही अपनी सूरत एक गंधी की बना कई शीशी इत्र को कमर और दो-एक हाथ में ले विजयगढ़ की गलियों में घूमने लगे। दिन-भर इधरउधर फिरते रहे । शाम के वक्त मौका देख हरदयालसिंह के मकान पर पहुँचे । देखा दीवान साहब लेटे हुए हैं और दोचार दोस्त सामने बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं। बाहर-भीतर खूब सन्नाटा है। तेजसिंह इत्र की शीशियाँ लिए सामने पहुँचे और सलाम कर बैठ गए, तब कहा - 'लखनऊ का रहने वाला गंधी हूँ, आपका नाम सुन कर आप ही के लायक अच्छे-अच्छे इत्र लाया हूँ।' यह कह शीशी खोल फाहा बनाने लगे। हरदयालसिंह बहुत रहमदिल आदमी थे, इत्र सूँघने लगे और फाहा सूँघसूँघ अपने दोस्तों को भी देने लगे। थोड़ी देर में हरदयालसिंह और उसके सब दोस्त बेहोश हो कर जमीन पर लैट गए। तेजसिंह ने सभी को उसी तरह छोड़ हरदयालसिंह की गठरी बाँध पीठ पर लादी और मुँह पर कपड़ा ओढ़ नौगढ़ का रास्ता लिया, राह में अगर कोई मिला भी तो धोबी समझ कर न बोला । शहर के बाहर निकल गए और बहुत तेजी के साथ चल कर उस खोह में पहुँचे जहाँ अहमद को कैद किया था। किवाड़ खोल कर अंदर गए और दीवान साहब को उसी तरह बेहोश वहाँ रख मोहर की उनकी अँगूठी उँगली से निकाली, कपड़े भी उतार लिए और बाहर चले आए। बेड़ी डालने और होश में लाने की कोई जरूरत न समझी । तुरंत लौट विजयगढ़ आ कर हरंदयालसिंह की सूरत बना कर उसके घर पहुँचे। इधर दीवान साहब के भोजन करने का वक्त आ पहुँचा । लौंडी बुलाने आई, देखा कि दीवान साहब तो हैं नहीं, उनके चार-पाँच दोस्त गाफिल पड़े हैं। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और एकाएक चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुन नौकर और प्यादे आ पहुँचे तथा यह तमाशा देख हैरान हो गए। दीवान साहब को इधर-उधर ढूँढ़ा मगर कहीं पता न लगा। तीन पहर रात गुजर गई, उनक
े सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आए मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे । लोगों ने पूछा - 'आप लोग कैसे बेहोश हो गए और दीवान साहब कहाँ हैं?' उन्होंने कहा - 'एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूँघते-सूँघते हम लोग बेहोश हो गए, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है । अब कान उमेठतें हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे।' ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा होने ही वाला ही था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि 'आप कहाँ गए थे?' दोस्तों ने पूछा - 'वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गए?" दीवान साहब ने कहा - 'वह चोर था, मैंने पहचान लिया । अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूँघा, अगर सूँघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस... ।' इतने में लौंडी ने अर्ज किया- 'कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा ।' दीवान साहब ने कहा - 'अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।' यह कह कर पलँग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गए। सवेरे तय वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयार का बटुआ कमर में बाँध दरबार की तरफ चले । दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुँचे। महाराज अब नहीं आए थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ
थे । उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गए। दरबार में मौका पा कर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे - 'महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनारगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह ने रसिंह की मदद की है और पाँच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर ले कर आएँगे। इस वक्त बड़ी मुसीबत आन पड़ी है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क़ुरूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदल कर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे ।' महाराज जयसिंह ने कहा - 'ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बंदोबस्त किया?' धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सँभल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा - 'पकड़ो उस चोबदार को ।' हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रख कर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गए थे वापस आ गए। दीवान साहब ने कहा - 'महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था और जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।' महाराज को यह तमाशा देख कर खौफ हुआ, जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गए। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा- 'क्यों जी अब क्या करना चाहिए? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भाई को हमारा दुश्मन बना कर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।' दीवान साहब ने कहा - 'महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार पाँच सौ की जान ले-लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता । सुना है राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद कर्ता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए माँगेगे तो राजा सुरेंद्रसिंह को देने में कोई हज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेंद्रसिंह का आना-जाना बंद कर दिया, अब भी राजा सुरेंद्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था ।' हरदया
लसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले - 'तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेंद्रसिंह और उनका लड़का वीरेंद्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेंद्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना ले कर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई फर्क नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले ।' ह्रदयालसिंह ने कहा - 'बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाऊँगा और इस काम को करूँगा । महाराज ने अपनी मोहर लगा कर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अंगूठी की मोहर लगा कर उनके हवाले किया ।' हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आए और अंदर जनाने में न जा कर बाहर ही रहे, खाने को वहाँ ही मँगवाया । खा-पी कर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जाएँ । थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई । एकांत में ले जा कर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी । चपला बहुत ही खुश हुई और बोली - 'हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जाएगा, वह बहुत ही लायक है । अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।' चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेंद्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई। नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली। नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा
घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं । मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा। कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आए और किधर जाएँगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे । जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बंदर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं । परिंदो में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं । गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं । उन ऐयारों ने जो चुनारगढ़ से क्रूर और नाजिम के संग आए थे, शहर में न आ कर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जा कर ऐयारी करें तथा जब जरूरत हो जंगल जफील बाजा कर इकट्ठे हो जाया करें । बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफा सब कोई अलग-अलग भेष बदल कर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आएँ तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसंद किया। नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया। वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदल कर महल में भी घुस आए और सब कुछ देख-भाल आए, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते। जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गए, तब ऐयारी करना शुरू किया । भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेंद्रसिंह को फँसाने के लिए चला । वहाँ पहुँच कर जिस कमरे में वीरेंद्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुँच पहरे वाले से कहा - 'जा कर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।' उस प्यादे ने जा कर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुँवर वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियाँ निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊँची साँस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आ कर अर्ज किया - 'पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई है और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं । क्या हुक्म होता है ? कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश हो कर बोले - 'उसे जल्दी अंदर लाओ ।' हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चंद्रकांता का हाल पूछा। चपला ने कहा -
'अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरव्वत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई । आज घबरा कर मुझको भेजा है और यह दो नाशपातियाँ अपने हाथ से छील-काट कर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।' वीरेंद्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चंद्रकांता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गए, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चंद्रकांता की कसम कैसे टालते, झट नाशपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुँह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेंद्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गए। ललकार कर बोले - 'खबरदार, मुँह में मत डालना।' इतना सुनते ही वीरेंद्रसिंह रुक गए और बोले - 'क्यों क्या है?' तेजसिंह ने कहा - 'मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको ख्याल न हुआ । कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी। आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार । बस सामने रंडी को देख, मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गए।' तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेंद्रसिंह तो शर्मा गए और चपला के मुँह की तरफ देखने लगे मगर नकली चपला से न रहा गया, फँस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी । वीरेंद्रसिंह भी जान गए कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊँचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाएँ। तेजसिंह ने आवाज दी - 'हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जाएगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।' यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बाँध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिं
ह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ढूँस बेहोश किया और गठरी में बाँध किनारे रख बातें करने लगे। तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा - 'देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा ।' कुमार बहुत शर्मिंदा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेंद्रसिंह के नाम लिखी थी । कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले - 'अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।' तेजसिंह ने कहा - 'हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत ।' इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई । सवेरा होने ही वाला था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आए थे। तहखाने का दरवाजा खोल अंदर गए, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले । देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाए बैठे हैं। तेजसिंह को देख कर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले - 'क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रखा है?' तेजसिंह ने हँस कर जवाब दिया- 'अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा । आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जाएँ। मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इंसाफ पसंद सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ ।' हरदयालसिंह ने कहा - 'सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई हर्ज नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रख कर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?" तेजसिंह - मैं आपकी सूरत बना कर आपके जनाने में नहीं गया, इससे आप खातिर जमा रखिए। हरदयालसिंह - तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था। खैर, कहो। तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयालसिंह के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिए और अब खुलासा हाल कह कर बोले - 'अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी ले कर दरबार में जाइए, राजा से मुझको माँग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूँ, नहीं तो वे ऐयार जो चुनागढ़ से आए हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चल कर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा । आप दो बातों का सबसे ज्यादा ख्याल रखिएगा, एक यह कि जहाँ तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हि
ंदुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिए और महाराज से बराबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलाएँ ।' हरदयालसिंह ने कसम खा कर कहा - 'मैं हमेशा तुम लोगों का खैर, ख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊँगा।' तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाएं। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है। ऐयार होने के कारण चुनागढ़ के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले । दरवाजे के पास आए, हरदयालसिंह से कहा कि - 'मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊँगा ।' हरदयालसिंह ने कहा - 'इसमें मुझको कुछ हर्ज नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूँ, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देख कर क्या करूँगा?" तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बाहर लाए और होश में ला कर बोले - 'अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।' उन्होंने वैसा ही किया। शहर में आ कर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग हो कर अकेले राजा सुरेंद्रसिंह के दरबार में गए। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ ले कर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा । राजा सुरेंद्रसिंह चिट्ठी पढ़ कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देख कर बोले - 'मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चा
हें बुला लें मुझे कुछ हर्ज नहीं, तेजसिंह आपके साथ जाएगा।' यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानदारी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया । दीवान हरदयालसिंह की मेहमानदारी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत माँगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझा कर दीवान साहब के संग किया । बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेंद्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत (सम्मान) दे कर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि - 'इनके रहने के लिए मकान का बंदोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानदारी का बोझ अपने ऊपर समझो।'
चौबीसवां प्रवचन आज लहरों में निमंत्रण पहला प्रश्नः जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं, इसलिए दूसरे शासन में नहीं जाना चाहिए। जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख नहीं होते। क्या उन्हें सन्मार्ग पर लाना संभव नहीं है? पहली बातः मानते तो ठीक ही हैं वे, कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं। लेकिन वे जानते नहीं कि जिन-शासन क्या है। जिसे वे जिन-शासन समझते हैं, वह जिन-शासन नहीं है। उनकी मान्यता में भ्रांति नहीं है। जिन-शासन का इतना ही अर्थ हुआः जाग्रत पुरुषों का, जीते हुए पुरुषों का शासन । जो स्वयं जागा हो, उस के साथ ही होने में सार है; सोए हुओं के साथ होने में सार नहीं। तो मान्यता तो बिल्कुल ठीक है। अब कठिनाई यह है कि जागे हुओं को कैसे जानें, कौन जागा हुआ है? तो सस्ता उपाय यह है कि जिसे परंपरा से लोग मानते रहे हैं जागा हुआ, उसे मान लो और उसी के साथ बंधे रहो। परंपरा से ज्यादा सोयी हुई कोई बात हो सकती है? महावीर जागे थे। जिसको तुम जैन कहते हो, यह अगर महावीर के समय में होता तो महावीर को न मानता। तब यह पार्श्वनाथ को मानता, क्योंकि पार्श्वनाथ के पीछे ढाई सौ साल की परंपरा थी। और महावीर के समय में विवाद खड़ा हो गया था। पार्श्वनाथ को माननेवाले लोग महावीर के विरोध में थे। उसी विरोध से तो दिगंबर और श्वेतांबरों का जन्म हुआ। श्वेतांबर वे लोग हैं, जिन्होंने पार्श्वनाथ को माना और महावीर को इनकार करने की वृत्ति रखी। वह विरोध अब भी कायम है। ढाई हजार साल हो गए, लेकिन श्वेतांबर की जो मान्यता है, वह अभी भी पार्श्वनाथ से प्रभावित है। पार्श्वनाथ जाग्रत पुरुष थे। लेकिन जो पार्श्वनाथ की आंखों में आंखें डालकर देखे उनके लिए जाग्रत पुरुष थे। पार्श्वनाथ के समय में अगर ये जैन होते तो पार्श्वनाथ को न मानते; ये आदिनाथ को मानते। आदमी अतीत को मानता है। और जाग्रत पुरुष हो सकता है केवल वर्तमान में । महावीर मिल जाएं तो कुछ और खोजने की जरूरत नहीं है। आदिनाथ मिल जाएं तो कुछ खोजने की और जरूरत नहीं। लेकिन आदिनाथ अतीत में तो मिलेंगे नहीं। अतीत तो जा चुका । खोजना तो आज होगा। इसलिए एक अनिवार्य दुविधा खड़ी होती है। जो आदमी परंपरा को मानता है, वह जिन-शासन को नहीं मान सकता। क्योंकि जिन का अर्थ हुआः जागा हुआ, जीवंत व्यक्ति । परंपरा को माननेवाला, परंपरा को मानने के कारण ही वर्तमान के जाग्रत पुरुषों से वंचित रह जाता है। और ऐसा कुछ जैन ही कर रहे होते तो भी ठीक था। सभी ऐसा कर रहे हैं। हिंदू कृष्ण को मानते हैं। जब कृष्ण मौजूद थे तो बड़ी अड़चन थी। हिंदू राम को मानते हैं। जब राम मौजूद थे तो बड़ी अड़चन थी। जाग्रत पुरुष जब मौजूद होता है तो बड़ी कठिनाई है। कठिनाई यह है कि अगर तुम उसे मानो तो तुम्हें बदलना पड़े। बदलाहट की झंझट है। तुम्हें अपना सारा जीवन रूपांतरित करना पड़े। मानने का और क्या अर्थ होता है? चरण छू आए, सिर झुका आए, इससे क्या होगा? इसलिए मुर्दा पुरु
षों को मानने में सुविधा होती है। वे तुम्हें बदल नहीं सकते। उनके साथ कोई जोखिम नहीं है--मरे महावीर क्या करेंगे तुम्हारा ? जा चुके महावीर क्या करेंगे तुम्हारा ? जहां बिठाओगे वहां बैठेंगे, जहां उठाओगे वहां उठेंगे। जो पूजा लगा दोगे वही स्वीकार करेंगे। न लगाओगे तो बैठे रहेंगे। भूखे बैठे रहेंगे। फूल न चढ़ाओगे तो क्या करेंगे? अतीत के महापुरुष जा चुके । अब तो राख के ढेर रह गए। उनके साथ बड़ी सुविधा है। तुम बदलते नहीं। तुम जैसे हो वैसे ही रहते हो। वस्तुतः तुम अपने महापुरुष को अपने ढंग से बदल लेते हो। लेकिन यह तुम केवल मरे हुओं के साथ कर सकते हो। जिंदा पुरुष, जिंदा जाग्रत व्यक्ति को, जिंदा सिद्ध को तुम नहीं बदल सकोगे। वह तुम्हें बदलेगा। जब तुम उसके पास जाओगे तो तुम मिटोगे, नए होओगे। वह तुम्हारी मृत्यु बनेगा और नया जीवन भी। उसके माध्यम से तुम एक नए आलोक को उपलब्ध होओगे। लेकिन अंधेरे की दुनिया छोड़नी पड़ेगी। बहुत कुछ खोना पड़ेगा, तब तुम कुछ पा सकोगे। बात तो बिल्कुल ठीक है कि जिन शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं। लेकिन मानने का कारण, मानने की मूल वृत्ति बड़ी खतरनाक है। सत्य बातों को भी हम गलत कारणों से मान सकते हैं। हम इतने गलत हैं कि ठीक बातें भी हमारे हाथ में पड़ते-पड़ते गलत हो जाती हैं। हम ऐसे गंदे हैं कि अमृत भी हम पर बरसे तो जहर हो जाता है। आखिर हमारी प्याली में ही भरेगा। हमारी प्याली की गंदगी उसे रूपांतरित करती है। सत्य के खोजी को अभी खोजना होगा। गुरु अभी हो सकता है। कल के गुरु काम नहीं आएंगे। बीते कल के गुरु काम नहीं आएंगे। आनेवाले कल के गुरु भी काम नहीं आएंगे। आज--जीवन आज है। तुम महावीर के समय में जी कैसे सकते हो? तुम महावीर के साथ चल कैसे सकते हो? तुम महावीर की छाया में हो कैस
े सकते हो? वह वृक्ष न रहा। अगर आज तुम्हें भरी दुपहरी में सिर से पसीना बहने लगता है तो तुम छाया खोजते हो किसी वृक्ष की, जो है; तुम उस वृक्ष की छाया में नहीं बैठते जो कभी था। पागल होओगे तुम अगर उस वृक्ष की छाया में बैठोगे । न वृक्ष है, न छाया है। धूप से जलोगे। अगर प्यास लगती है तो तुम उस सरोवर के पास जाते हो, जो अभी है। तुम उस सरोवर के पास नहीं जाते, जो कभी था। रहा होगा। बड़ा सुंदर था। पुराणों में उल्लेख है लेकिन उससे प्यास तो न बुझेगी । भूख लगती है, तो तुम अभी ताजा भोजन खोजते हो। जो भूख और प्यास के संबंध में सही है, वही सत्य के संबंध में भी सही है। सत्य खोजो अभी। जाओ किसी सरोवर के पास, जो अभी हो। खतरा यह है कि शायद तुम इस सरोवर के पास भी जाओगे, लेकिन जब यह जा चुका होगा। तुम्हारी बुद्धि इतनी मंद है कि जब तक तुम्हारी समझ में आ पाता, तब तक जिन पुरुष विदा हो जाते हैं। घसिट-घसिटकर बामुश्किल तुम्हारी अकल में घुस पाती है बात कि अरे! लेकिन जब तक तुम अरे कहते हो तब तक विदाई हो गई। बुद्ध एक गांव से गुजरे तीस सालों तक। कहते हैं करीब-करीब पंद्रह बार उस गांव से गुजरे । और एक आदमी तीस सालों से चाहता था कि उनके दर्शन कर ले; न कर पाया। कभी दुकान पर ग्राहक थे और न जा पाया। कभी लड़की की शादी थी और न जा पाया। कभी बीमार था, कभी पत्नी से झगड़ा हो गया। कभी जा रहा था और रास्ते में कोई पुराना परिचित मित्र मिल गया तो फिर घर लौट आया। कभी घर मेहमान आ गए तब उनको छोड़कर कैसे जाए? ऐसे हजार बहाने मिलते रहे और बुद्ध आते रहे और जाते रहे--तीस साल । एक दिन अचानक गांव में खबर आयी कि बुद्ध आज शरीर छोड़ रहे हैं, तब वह भागा । बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से पूछा उस सुबह, कुछ पूछना तो नहीं है? क्योंकि अब विदा की वेला आ गई। अब मैं जाऊंगा। कहा होगा, मेरी नाव लग गई किनारे, अब मैं जाता हूं दूसरी तरफ। कुछ और तो पूछना नहीं है? कोई आखिरी बात? भिक्षु तो रोने लगे। इतना दिया था बुद्ध ने। बिना पूछे दिया था। पूछा था तो दिया था, न पूछा था तो दिया था। पूछने को कुछ बचा न था। और ऐसी दुख की घड़ी में, जब वे विदा हो रहे हों, किसको प्रश्न उठे? ऐसी दुख की घड़ी में मन तो बंद हो जाता है, हृदय रोने लगता है। आंसू बहने लगे। उन्होंने कहा, हमें कुछ पूछना नहीं है। जितना दिया है उसे भी अगर हम कर पाए, उसका अंश भी कर पाए तो बस काफी है। तुमने सागर उंड़ेला है अमृत का, अगर हम एक बूंद भी पी पाए तो बस पर्याप्त हो जाएगी। बुद्ध ने तीन बार पूछा, जैसी उनकी आदत थी। फिर से पूछा कि किसी को कुछ पूछना हो। फिर से पूछा कि किसी को कुछ पूछना हो । जब किसी ने कुछ न कहा तो उन्होंने कहा, अलविदा । वे वृक्ष के पीछे चले गए। उन्होंने आंख बंद कर ली और वे देह को छोड़ने लगे। उन्होंने देह छोड़ दी। भीतर धारणा की कि देह से अलग हो जाऊं, अलग हो गए। मन को छोड़ रहे थे, तभी वह आदमी भागा हुआ गांव से पहुंचा। और वह चिल्लाया कि बुद्ध कहां हैं? मुझे मिलने दो, मुझे जाने दो, म
ुझे कुछ पूछना है। भिक्षुओं ने कहा, बड़ी देर लगाई। तीस साल तुम्हारे गांव से गुजरे। और अनेक बार हम तक ऐसी खबर भी आयी कि तुम आना चाहते हो लेकिन तुम कभी आए नहीं। उसने कहा, करूं क्या, कभी मेहमान आ गए, कभी पत्नी बीमार पड़ गई। कभी दुकान पर ग्राहक ज्यादा थे। कभी आया भी था तो रास्ते में कोई मित्र मिल गया कई वर्षों का, तो फिर घर लौट गया। हजार कारण आ गए, मैं न आ पाया। लेकिन मुझे रोको मत। कहां हैं बुद्ध ? भिक्षुओं ने कहा, अब असंभव है। हम तो उन्हें विदा भी दे चुके । अब तो वे अपनी ज्योति को समेटने में लगे हैं। लेकिन कहते हैं, बुद्ध ने आंखें खोलीं और उन्होंने कहा, अभी मैं जीवित हूं और वह आदमी आ गया! चलो देर सही, अबेर सही, आ तो गया। मेरे नाम पर यह लांछन न रह जाए कि मैं अभी सांस ले रहा था और कोई आदमी द्वार से प्यासा चला गया। कहां है? उसे बुलाओ। वह क्या पूछना चाहता है ? वह आदमी फिर भी जल्दी पहुंच गया। और भी उस गांव में लोग रहे होंगे, जो फिर भी न पहुंचे। आदमी बड़ा मंदबुद्धि है । मंदबुद्धि ही रोग है। न तो जैन का सवाल है, न हिंदू का, न मुसलमान का; मंदबुद्धि... । मंदबुद्धि जड़ चीजों को पकड़ लेता है। अब इतना सुंदर विचार है कि जिन शासन के अतिरिक्त सब मिथ्या है। इसका अर्थ हुआ, जाग्रत पुरुष जो कहे उसके अतिरिक्त सोए हुए आदमी जो कह रहे हों, उनका कोई मूल्य नहीं है। उनका आदेश मानकर मत चल पड़ना, अन्यथा भटकोगे। अंधे अंधों को और भटका देंगे। अंधों का सहारा पकड़कर मत चलना । अंधे तो गिरेंगे, तुम भी गिरोगे । अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत। इतना ही अर्थ है जिन-शासन को स्वीकार करने का कि जहां जिनत्व दिखाई पड़े, जहां कोई जाग्रत और जीता हुआ व्यक्ति दिखाई पड़े, जहां तुम्हारे प्राण कहने लगें कि हां, संभावना यहां है,
जहां सुबह होती दिखाई पड़े, जहां सूरज ऊगता दिखाई पड़े, वहां झुक जाना; उस शासन को स्वीकार कर लेना। तो बात तो ठीक ही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं लेकिन कि जो उसको मानते हैं वे ठीक हैं। बात तो ठीक है, बात को माननेवाले गलत हैं। कहते तो हैं, जिन-शासन एकमात्र सत्य है और बाकी सब मिथ्या। लेकिन मानते शास्त्र को हैं, जिन को थोड़े ही! मानते परंपरा को हैं, जिन को थोड़े ही! मानते पंडित को हैं, पंडित की व्याख्या को मानते हैं। जाग्रत पुरुष का सीधा दर्शन तो जलानेवाला है। वहां तो कुछ छूटेगा, मिटेगा, गिरेगा, बदलेगा। वहां तो तुम अस्तव्यस्त होओगे। तुम, तुम ही न रह सकोगे। वहां तो तुम आग से गुजरोगे। आग से गुजरे बिना कोई शुद्ध कुंदन बनता भी नहीं। वहां तो तुम पीटे जाओगे, मिटाए जाओगे, रचे जाओगे। बिना विध्वंस के सृजन होता भी नहीं। वहां तो जैसे कुम्हार मिट्टी को रौंदता है, ऐसे रौंदे जाओगे। बिना रौंदे तुम्हारे जीवन का घट बनता भी नहीं। वहां तो तुम चाक पर चढ़ाए जाओगे। सम्हालेगा भी गुरु, थपकारे भी देगा, मारेगा भी, पीटेगा भी, जगाएगा भी। जीवित गुरु के पास होने का अर्थ हुआ, तुम्हें नींद छोड़नी पड़ेगी। इसलिए मुर्दा गुरुओं को छाती से लगाए पड़े रहने में बड़ी सुविधा है। मूर्तियों को पूजने में बड़ी सुविधा है। और भी बड़े मजे की बात है कि जो कहते हैं कि "जिन-शासन के अतिरिक्त सब मिथ्या है।" उन्हें यह भी पता नहीं कि जिनों ने क्या कहा है। उन्हें यह भी पता नहीं कि जिन-शासन का मौलिक सूत्र यही है कि सभी में कुछ न कुछ सत्य का अंश है। तब आदमी की मंदबुद्धि पर बड़ी हैरानी होती है। यह तो विरोधाभास हो गया। समस्त जिन पुरुषों ने-महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने, सभी ने कहा है कि मैं ही ठीक हूं ऐसी धारणा अहंकार की घोषणा है। और महावीर ने तो बहुत आग्रहपूर्वक कहा है कि जरा भी आग्रह रखा कि मैं ही ठीक हूं, तो तुम गलत हो गए। दूसरे में भी ठीक को देखने की क्षमता चाहिए। इस पृथ्वी पर कोई भी बिल्कुल गलत तो हो ही नहीं सकता। इस जगत में पूर्णता जैसी कोई चीज होती ही नहीं। बिल्कुल गलत का तो अर्थ हुआ, एक आदमी गलती में पूर्ण हो गया। मुल्ला नसरुद्दीन पर कोई नाराज हो गया और उसने कहा कि तुम, तुम पूर्ण मूर्ख हो । मुल्ला ने कहा, ठहरो। इस जगत में पूर्ण कभी कोई होता ही नहीं। तुम मेरी खुशामद मत करो। तुम मेरी स्तुति मत करो। इस जगत में पूर्ण कभी कोई होता ही नहीं। यहां सब अधूरा है। पूर्ण मूर्ख खोजना ही असंभव है। पूर्ण गलत आदमी भी खोजना असंभव है। अगर पूर्ण गलत होता तो जी ही नहीं सकता था। जी रहा है तो कहीं न कहीं सत्य के सहारे ही जीएगा। जीवन सत्य के साथ है। किरण भला हो, न हो सूरज सत्य का। छोटी-मोटी क्षीण धारा हो, न हो बाढ़ आयी हुई नदी, मगर होगी जरूर। जी रहा है, जीवन है, तो जीवन असत्य के साथ तो हो नहीं सकता। कहीं न कहीं सत्य से जुड़ा होगा। कहीं न कहीं परमात्मा अभी भी उसमें बह रहा होगा। महावीर ने तो कहा है, सभी में सत्य है। इसी से तो उनका स्यातवाद
पैदा हुआ, अनेकांतवाद पैदा हुआ । महावीर ने कहा है कि जो-जो भी तुम्हें बिल्कुल भी गलत लगता हो, उसकी दृष्टि में भी खोजोगे तो कुछ न कुछ तो अंश पाओगे सत्य का। पूर्ण चाहे सत्य न हो, पूर्ण असत्य भी नहीं हो सकता। और महावीर ने तो कहा है, पूर्ण सत्य को कहने का कोई उपाय ही नहीं है। इसलिए दो बातेंः जितनी दृष्टियां हैं, सभी अंश सत्य हैं और पूर्ण सत्य को अब तक किसी ने कहा नहीं; कहा जा सकता नहीं। कहते से ही अपूर्ण हो जाता है। वाणी में लाते ही अधूरा हो जाता है। अनुभव में हो सकता है पूर्ण, अभिव्यक्ति में अपूर्ण हो जाता है। लाख सम्हालकर कहो, कहने के माध्यम में ही अपूर्ण हो जाता है। जैसे तुम एक लकड़ी को पानी में डालो--सीधी लकड़ी को, पानी में तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। लाख सम्हालकर डालो, इससे कोई संबंध नहीं है। पानी का माध्यम तिरछापन पैदा करता है। तुम कहो कि हम और सम्हालकर डालेंगे। हम लकड़ी को और सीधा कर लेंगे, बिल्कुल सीधा कर लेंगे, रेखाबद्ध कर के डालेंगे; इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। धीमे-धीमे डालेंगे, इससे कोई फर्क न पड़ेगा। पानी का माध्यम ही लकड़ी को तिरछा कर जाता है। लकड़ी तिरछी होती नहीं दिखाई पड़ने लगती है, तिरछी हो गई। भाषा का माध्यम अनुभव को तिरछा कर देता है। इसलिए भाषा में आकर कोई भी सत्य पूर्ण नहीं रह जाता। और असत्य तो कभी भी पूरा नहीं है। इसलिए जो भी हम कहते हैं, आधा-आधा है। यही तो जिन-शास्त्र है, यही तो जिन देशना है कि जो भी हम कहते हैं, आधा-आधा है। सभी दृष्टियां हैं, दर्शन कोई भी नहीं। दर्शन तो अनुभव है। तुम खुद ही सोचो; सुबह हुई, वृक्षों के पार क्षितिज पर सूरज निकला, पक्षियों ने गीत गाए, गुनगुन मचाई, मोर नाचे, रंगीन बादल फैले, तुमने देखा -- दर्शन । अब तुमसे कोई कहे वर्णन करो उसका। तो त
ुम जो भी वर्णन करोगे, तुम पाओगे बहुत कुछ शेष रह गया है, जो नहीं कहा जा सकता। तुम लाख रंगों का वर्णन करो, सुननेवाले पर तुम वही प्रभाव थोड़े ही पैदा कर पाओगे, जो तुम पर पैदा हुआ था सुबह के सूरज को ऊगते देखकर। तुम बड़े से बड़े कवि होओ, तो भी तुम पाओगे, हाथ कंपते हैं, बड़े से बड़े कवि को भी लगता है कि हम सिर्फ तुतलाते हैं। तो जितना बड़ा कवि होता है उतना ही साफ लगता है कि हम सिर्फ तुतलाते हैं। छोटे-मोटे कवियों को लगता है कि हमने कह दिया। उनके पास कहने को कुछ है नहीं। जिसके पास जितना बड़ा दर्शन है उतनी ही भाषा की असमर्थता मालूम होती है। रवींद्रनाथ ने मरते क्षण कहा कि हे प्रभु! यह भी तू क्या कर रहा है? अब, जब कि मैं थोड़ा गाने में कुशल हुआ जा रहा था, तू मुझे विदा करने लगा? एक बूढ़ा मित्र पास बैठा था, उसने कहा, क्या कह रहे हो तुम? कुशल हो रहे थे? तुम महाकवि हो। रवींद्रनाथ ने कहा, दूसरे कहते होंगे। मेरी पीड़ा मैं जानता हूं। अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं इतना ही कह सकता हूं कि मैंने अभी तक जो गीत गाए, वे ऐसे ही हैं जैसे संगीतज्ञ संगीत शुरू करने के पहले साज को बिठाता है। वीणाकार तार खींच-खींच कर देखता है, ठीक है? तबलाबाज तबला बजा बजाकर ठोंक-ठोंककर देखता है, ठीक है? रवींद्रनाथ ने कहा कि अभी तक जो मैंने गाए, वे केवल साज को संवारने जैसे थे। अभी असली गीत शुरू कहां हुआ था? असली गीत तो अपने साथ ही ले जा रहा हूं। जितना बड़ा कवि होगा उतना ही असमर्थ पाएगा। जितना बड़ा अनुभव होगा उतना ही प्रगट करना मुश्किल हो जाएगा। छोटे-मोटे अनुभव प्रगट नहीं होते। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए, भाषा असमर्थ हो जाती है। क्या कहो? कैसे कहो ? तो जिन्होंने सत्य को जाना, इतने विराट में डूबे, लौटकर जो भी वे कहते हैं, सभी अधूरा है। इसलिए महावीर ने कहा, जो भी दृष्टियां हैं, सभी दृष्टियां हैं। सभी में सत्य का अंश है। जैन कहता है कि महावीर के अतिरिक्त सभी मिथ्या है। लेकिन इसका अर्थ क्या हुआ? अगर महावीर सही हैं तो सभी में सत्य है। और अगर सभी मिथ्या हैं यह सही है, तो महावीर मिथ्या हो गए। यह तुम ऐसा समझो, कहते हैं एक सम्राट ने -- जो बड़ा खूंखार आदमी था -- कहा कि इस गांव में जो भी असत्य बोलेगा उसे सूली पर लटका देंगे। और उसने कहा कि सिखावन के तौर पर, नगर का बड़ा द्वार जब सुबह खुलेगा, तो वहां जल्लाद मौजूद रहेंगे फांसी लगाकर । और जो भी आदमी आएंगे उनसे पूछेंगे। अगर उनमें से कोई भी असत्य बोला तो तत्क्षण सूली पर लटका देंगे, ताकि पूरा गांव रोज सुबह देख ले कि असत्य बोलनेवाले की क्या हालत होती है। मुल्ला नसरुद्दीन उसके दरबार में था, उसने कहा अच्छा, तो कल फिर दरवाजे पर मिलेंगे। उस सम्राट ने कहा, तुम्हारा मतलब? उसने कहा, कल वहीं तुम भी मौजूद रहना । हम असत्य बोलेंगे और तुम हमें फांसी पर लगाकर देख लेना। सम्राट बड़ा नाराज हुआ। उसने बड़ा इंतजाम किया कि यह आदमी चाहता क्या है ! और सुबह जब दरवाजा खुला, सम्राट मौजूद था, और वजीर
मौजूद थे, पूरे दरबारी मौजूद थे, फांसी का तख्ता मौजूद था, जल्लाद मौजूद थे। और मुल्ला अपने गधे पर सवार दरवाजे के भीतर प्रविष्ट हुआ। सम्राट ने कहा, "कहां जा रहे हो नसरुद्दीन?" नसरुद्दीन ने कहा, "फांसी के तख्ते पर लटकने जा रहा हूं।" अब बड़ी मुश्किल हो गई। अगर उसको लटकाओ तो वह सच हो जाए। अगर न लटकाओ तो वह झूठ है । अब करो क्या? अगर उसको फांसी पर लटका दो तो एक सच्चे आदमी को फांसी हो गई। अगर उसको फांसी पर न लटकाओ, तो एक झूठा आदमी पहले ही दिन छूटा जा रहा है। सम्राट ने अपना सिर ठोंक लिया। नसरुद्दीन ने कहा कि सत्य और असत्य का निर्णय इतना आसान नहीं । हटाओ फांसी वगैरह। कौन जानता है कौन सत्य बोल रहा है, कौन असत्य बोल रहा है! कौन जानता है क्या सत्य है, क्या असत्य है! सत्य और असत्य बड़ी नाजुक बातें हैं। महावीर ने अगर कोई भी बात सिखाई है तो इतनी ही बात सिखाई है कि दूसरे को अत्यंत हार्दिकता से समझने की कोशिश करना । तुम्हारे लिए इतनी ही खोज काफी है कि उसमें कुछ भी सत्य हो तो खोज लेना। असत्य से तुम्हें लेना-देना क्या है? एक आदमी जंगल में भटक गया हो, राह खोजते-खोजते सूरज ढल गया हो, अंधेरा घिर गया हो, पैर काटों से चुभे हों, झाड़ियों ने कपड़े फाड़ दिए हों, राह न सूझती हो, उसे दूर एक झोपड़े से दीया जलता हुआ दिखाई पड़ता है। उस झोपड़े के चारों तरफ अंधेरा है, जरा-सी रोशनी है। वह रोशनी देख लेता है, अंधेरा छोड़ देता है। वह यह थोड़े ही कहता है कि इतने अंधेरे में रोशनी कहां हो सकती है? वह अंधेरा देखकर बैठ थोड़े ही जाता है। वह जो टिमटिमाती दीये की रोशनी है, उसको देखता; अंधेरे को नहीं देखता। वह कहता, धन्यभाग! कोई है। पास ही कोई है। मिल गई राह, चला चलूं। पहुंच ही जाऊंगा । घबड़ाने की कोई बात नहीं। जब कोई आदमी
कुछ कहे तो तुम उसमें दीये की टिमटिमाती रोशनी भी देखना । वही देखना। जितना सत्य का अंश है उतना देख लेना। तुम्हें असत्य से लेना-देना क्या है? हंसा तो मोती चुगे। तुम अपने मोती-मोती चुन लेना, कंकड़ छोड़ देना। लेकिन तुम कंकड़ों ही कंकड़ों पर चोंच मारते हो। तुम मोती चुनने में उत्सुक नहीं हो। तुम तो यही सिद्ध करने में उत्सुक हो कि मोती तो बस हमारे ही घर होते हैं और सब जगह कंकड़ होते हैं। तुम अंधेरे में ही आंख गड़ाए बैठे हो। तुम रोशनी को देखना ही नहीं चाहते। जिन-शासन का मौलिक आधार यही है--सत्य सब कहीं है। अनंत रूपों में प्रगट होता है। अनेकांत का अर्थ होता है सत्य के अनेक पहलू हैं। सत्य एकांत नहीं है। जो कहता है, मैं ही सत्य, वह यह कहने से ही असत्य हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहना, "मैं भी सत्य।" "मैं ही सत्य"--असत्य हो गया। मैं भी सत्य, और भी सत्य हैं। लेकिन अहंकार दावा करता है, "मैं ही सत्य।" "भी" पर अहंकार का जोर नहीं है, "ही" पर जोर है। महावीर का जोर "भी" पर है। इसलिए महावीर तो कहते हैं कि वह व्यक्ति भी, जो तुम्हारे बिल्कुल विपरीत बोल रहा हो, उसकी भी बात ध्यानपूर्वक सुनना । उसमें भी कुछ सत्य होगा। अंश तो होगा ही, कुछ तो होगा ही। यहां पापी से पापी व्यक्ति में थोड़ा संतत्व होता है और यहां संत से संत व्यक्ति में थोड़ा पापी होता है। यहां कोई पूर्ण तो होता नहीं। इसलिए तो हम कहते हैं इस देश में कि जो पूर्ण हो गया, दुबारा नहीं आता। पूर्ण होते से ही फिर दुबारा आने का उपाय नहीं। यहां तो आना हो तो थोड़ी अपूर्णता रखनी होती है। जैन कहते हैं--जैन दर्शन; बड़ा महत्वपूर्ण दर्शन है - वह कहता है, तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। वह भी पाप है। तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। दूसरों पर करुणा की वासना रखनी पड़ती है तो ही कोई तीर्थंकर हो सकता है, नहीं तो तीर्थंकर भी नहीं हो सकता। दूसरों की सहायता करूं, इतनी वासना तो बचानी ही पड़ती है। नहीं तो तीर्थंकर भी कैसे होगा? इसलिए सभी सिद्ध पुरुष तीर्थंकर नहीं होते। अनेक सिद्ध पुरुष तो सिद्ध होते ही विलीन हो जाते हैं महाशून्य में। थोड़े-से सिद्ध पुरुष तीर्थंकर होते हैं। वे, वे ही सिद्ध पुरुष हैं, जिनकी सिद्धि में थोड़ी-सी वासना भी जुड़ी है अभी, कि दूसरों की सहायता करूंगा। जिनको अभी इतना और भाव बचा है, वे तीर्थंकर की तरह पैदा होते हैं। शुभ है कि इतनी वासना कुछ लोग बचाते हैं, अन्यथा जगत बड़ा अंधेरे से भर जाए। "जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं ।" बिल्कुल ठीक मानते हैं और बिल्कुल गलत कारणों से मानते हैं। "इसलिए दूसरे शासन में जाना नहीं चाहिए।" जिनपुरुष मिल जाएं तो जाने की जरूरत भी नहीं है। जैन शास्त्र में मत अटके रहना। शास्त्र न तो जागे होते हैं, न सोए होते हैं। शास्त्र तो बस शास्त्र हैं। किताब किताब है। किताब में कुछ भी नहीं होता। खोजो कहीं जीवित व्यक्ति को। किसी को
खोजो, जिसके पास तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठने लगें; जिसकी अभीप्सा तुम्हें भी संक्रामक रूप से पकड़ ले; जिसके बवंडर में तुम भी थोड़े उड़ने लगो। जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख नहीं होते। " दुनिया में सबसे कठिन बात वही हैः जाग्रत पुरुषों की तरफ उन्मुख होना । उसका मतलब है, अपने से विमुख होना। जाग्रत पुरुष के सन्मुख होने का एक ही उपाय है, अपने से विमुख होना। जो अपनी तरफ पीठ करे, वही जाग्रत पुरुष की तरफ मुंह कर सकता है। लेकिन अगर अभी तुम उतनी हिम्मत नहीं कर पाओ तो कुछ आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह होता है कि तुम इसी में अकड़ अनुभव करते हो । जानना चाहिए कि मैं अभी दीन-हीन । अभी मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं कि सूरज की तरफ सीधी आंखें करके देखूं। अभी तो मैं सूरज की तस्वीरें ही शास्त्र में बनी हैं, उन्हीं को देख पाता हूं। अभी तो उन्हीं तस्वीरों में मन को लुभाता हूं। मेरी हिम्मत नहीं। मैं कमजोर हूं। अभी मेरा बल नहीं। इतना साहस नहीं इस यात्रा पर निकलने का। अभियान पर जाने का दुस्साहस अभी मुझसे होता नहीं । अगर तुम विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करो तो कोई खतरा नहीं है। एक न एक दिन साहस भी इकट्ठा हो जाएगा। लेकिन आदमी अपने अहंकार को बचाता है। वह यह नहीं कहता कि यह मेरी कमजोरी है कि मैं शास्त्र देख रहा हूं। वह अपनी कमजोरी को भी आभूषणों से अलंकृत करता है, शृंगार करता है। वह कहता है, यही सत्य है, इसलिए कहां, कौन सिद्ध पुरुष ? कहीं कोई सिद्ध पुरुष नहीं। पंचम काल में होते ही नहीं। हो चुके वक्त! जा चुका समय, जब सिद्ध पुरुष होते थे! वह महावीर के साथ ही बंद हो गया। महावीर के बाद हम व्यर्थ ही जी रहे हैं। महावीर के बाद कुछ घट ही नहीं रहा। इतिहास रुक गया वहीं । महावीर के बाद द
ुनिया रही ही नहीं है। महावीर क्या मरे, सब मर गया। महावीर क्या गए, सब गया। सब संभावना, सत्य को पाने की सारी सुविधा, सब चली गई। यह भी कोई बात हुई ? यह तो बड़ी खतरनाक धारणा हुई। इस धारणा का अर्थ तो बड़ी हताशा होगा। तब हमारे हाथ में कुल इतना ही है कि हम महावीरों की स्तुति करते रहें, स्वयं महावीर न बनें। इसलिए तुम जब उन्हें सिद्ध पुरुषों की बात कहोगे, वे राजी न होंगे। तुम शायद सोचते हो कि तुम बड़ी सरल-सी बात कह रहे हो कि देखो! कोई सिद्ध पुरुष है, कोई जाग्रत पुरुष है, आओ, सुनो, समझो, बैठो पास; थोड़ा सत्संग करो। चलो थोड़ी सेवा करें। तुम सोचते हो, सीधा-सा निमंत्रण दे रहे हो। यह निमंत्रण इतना सीधा नहीं है। यह निमंत्रण खतरनाक है। क्योंकि वह आदमी अगर आ जाए तो फिर वही न हो सकेगा, जो था। वह अपनी सुरक्षा कर रहा है। और दूसरी बात ध्यान रखना, दूसरे के बताए कोई कभी आता नहीं। तुम यह चिंता ही छोड़ो। इसमें समय खराब भी मत करो। जिसको जब आना है, तभी आता है। जिसकी प्यास जब पक जाती है तभी आता है। तुम किसी को खींच-तानकर लाना मत। तुम जितनी खींचतान करोगे, उतने ही वह सुरक्षा के उपाय करेगा। तुम जितना सिद्ध करने की कोशिश करोगे कि चलो, कोई जाग्रत पुरुष है, वह उतना ही सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि नहीं, जाग्रत नहीं है। सब पाखंड है। सब धोखाधड़ी है। सब शड्यंत्र है, जालसाजी है। तुम यह कोशिश ही मत करो। तुम आ गए, इतना बहुत । तुम बदलो। सारी शक्ति तुम अपनी बदलाहट में लगा दो। तुम्हारी बदलाहट ही शायद, जिन्हें तुम लाना चाहते हो, उन्हें आकर्षित करे तो करे। तुम्हारी आंखों में आ गई नई चमक, तुम्हारे चेहरे पर आ गई नई दीप्ति, तुम्हारे पैरों में आ गया नया संगीत का स्वर, तुममें उतर आया माधुर्य, मार्दव, शायद किसी को बुला लाए तो बुला लाए। तुम्हारे जीवन में अगर थोड़ी मधुरिमा फैल जाए, थोड़ा स्वाद तुम्हारा बदल जाए तो जो तुम्हारे निकट हैं, जिन्हें तुम स्वभावतः चाहते हो आएं, जागें, वे भी मार्ग को पाएं, उनके जीवन में भी फूल खिलें... तुम्हारी आकांक्षा तो ठीक है, लेकिन जल्दबाजी मत करना। तुम लाने की कोशिश ही मत करना। तुम तो चुपचाप अपने को बदलने में लगे रहो। तुम्हारी बदलाहट जैसे-जैसे सघन होगी वैसे-वैसे वे उत्सुक होंगे। और दूसरा कोई उपाय नहीं है। अगर तुम उन्हें मेरे पास लाना चाहते हो तो एक ही उपाय है -- तुम्हारे जीवन में किसी तरह मेरी खबर उन्हें मिलनी चाहिए; तुम्हारे शब्दों में नहीं । तुम्हारे कहने से वे न सुनेंगे। तुम्हारे होने को सुनेंगे। तुम्हारे भीतर गूंजने लगे नाद, तो शायद... फिर भी मैं कहता हूं शायद, कोई जरूरी नहीं है। क्योंकि ऐसे बज्र-बधिर लोग हैं
भोल्दाविया - निवासियों का दल, जिनके साथ में अंगूर तोड़ने का काम करता था, समुद्र तट की ओर घूमने चल दिया । मैं और एक बूढ़ी स्त्री, जिसका नाम इजरगिल था, रह गए । वह अंगूर की बेलों की घनी छांव में चुपचाप लेटी थी और समुद्र तट की ओर जाते हुए लोगों की छायाकृतियों को रात की नीली परछाइयों में विलय होते देख रही थी । वे गाते और हंसते-खेलते जा रहे थे । सूरज की धूप में तपे ताम्बेसा उनका रंग था, घनी और काली मूंछें और घुंघराले बाल, जो कंधों तक लहराते थे। छोटी जाकेट और ढीले-ढाले पायजामे वे पहने थे, जो टखनों पर खूब कसे हुए थे। औरतें और लड़कियां चहक और खिलखिला रही थीं । उनकी आंखें गहरी नीली और बदन सुघड़ थे । रेशम-से मुलायम उनके काले बाल लहरा रहे थे, सुहानी हवा उनके बालों के साथ खेल रही थी और उनमें गुंथे सिक्के आपस में टकराकर झंकार कर रहे थे । हवा की एक प्रशस्त और निर्बाध धारा हमारे सिरों पर से बह रही थी, लेकिन जब-तब ऐसा मालूम होता, मानो वह कहीं अवरुद्ध हो गई हो, और फिर हवा का एक भारी झोंका आता, जो स्त्रियों के बालों को छितरा देता और वे, जैसे अजीब शक्ल की प्रयाले हों, सिर के इर्द-गिर्द लहराने लगते । ऐसा मालूम होता, जैसे वे परी लोक की अद्भुत जीव हों । जितना ही वे दूर होते जाते, रात और मेरी कल्पना उन्हें उतने ही सुन्दर आवरणों में लपेटती जाती । कोई वायोलिन बजा रहा था, एक लड़की गहरे और भरपूर कंठ से गा रही थी, खिलखिलाकर हंसने की आवाज़ आ रही थी... हवा समुद्र की तीखी गंध और धरती की भाप से - सांझ से ठीक पहले बारिश ने धरती को खूब तर कर दिया था - भरी थी । आंधी से छितरे बादल, विचित्र शक्लों और रंगों में अभी भी आकाश में तैर रहे थे कहीं धुंवों के बगूलों की भांति अस्पष्ट, भूरे और राख जैसे हल्के नीले रंग के, कहीं चट्टान के खण्डों की भांति कगारदार, एकदम काले और कत्थई । और उनके बीच से झांक रहा था सुनहरी तारों-जड़ा रात का कोमल आकाश । यह सबका सब - ये ध्वनियां और गंध, ये बादल और ये लोग - सभी कुछ उदास, सुन्दर और किसी अद्भुत कथा की भूमिका की भांति प्रतीत होता था । हर चीज़ ऐसी मालूम होती थी, मानो उसका विकास रुक गया हो और वह अब अपनी अंतिम घड़ियां गिन रही हो । लोगों की आवाजें, जैसे-जैसे वे दूर होते गए, धुंधली और उदास उसांसों में परिणत होकर शून्य में खोती गईं । 'तुम उनके साथ नहीं गए ? सिर हिलाकर समुद्र की ओर इशारा करते हुए बूढ़ी इजरगिल ने पूछा । समय ने उसकी कमर को झुकाकर दोहरा बना दिया था। उसकी आंखें, जो कभी खूब काली और चमकदार रही होंगी, अब धुंधली और पनीली हो गई थीं। और उसकी आवाज़ अजीब थी - ऐसा मालूम होता था, जैसे उसकी जीभ चरचराती हो । "मेरा जी नहीं चाहा, " मैंने जवाब दिया । " तुम रूसी लोग जन्म से ही बूढ़े होते हो । सबके सब अजगर की भांति उदास । हमारी लड़कियां तुमसे डरती हैं। हालांकि तुम मेरे बच्चे, अभी जवान और मज़बूत हो । चांद निकल आया - बड़ा, गोल और खूनी-लाल । ऐसा मालूम होता था मानो वह इस स्तेपी के -
अन्तहीन मैदानों के - गर्भ में से प्रकट हुआ जिसमें जाने कितना मानवीय रक्त और मांस समाया है और जो शायद इसीलिए इतने सम्पन्न और उपजाऊ है । बूढ़ी स्त्री और मैं पत्तों की बेलबूटेनुमा परछाइयों के जाल में घिरे थे । स्तेपी के ऊपर, जो हमारी बाईं ओर दूर तक फैली थी, बादलों की परछाइयां दौड़ रही थीं जिन्हें चांद की नीली चान्दनी ने झीना और पारदर्शक बना दिया था । "देखो, वह लारा है। मेरी आंखें उस ओर मुड़ गईं, जिधर बूढ़ी स्त्री की कांपती हुई टेढ़ी उंगली इशारा कर रही थी, और हरकत करती हुई परछाइयों पर मेरी नज़र टिक गई - कितनी ही परछाइयां थीं और उनमें से एक अन्य सबसे गहरी थी । वह तेज़ी से बढ़ रही थी । वह बादल के उस गाले की छाया थी जो धरती के सर्वाधिक निकट तैर रहा था और अपने साथी बादलों के मुक़ाबिले अधिक तेज़ी से उड़ा जा रहा था । वहां तो कुछ नहीं है, " मैंने कहा । "तुम्हारी नज़र मुझ बूढ़ी स्त्री से भी ज्यादा गयी- बीती है। देखो, क्या तुम्हें स्तेपी के ऊपर दौड़ती वह काली-सी चीज़ नहीं दिखाई देती ? मैंने फिर देखा, और परछाइयों के सिवा इस बार भी और कुछ दिखाई नहीं दिया । वह तो केवल परछाई है। तुम उसे लारा क्यों कहती हो ? "इसलिए कि वह लारा है । एक छाया ही तो वह अब बाक़ी रह गया है, और इसमें अचरज की बात भी क्या है - हज़ारों वर्ष हो गये उसे भटकते हुए । सूरज ने उसके मांस, रक्त और हड्डियों को सुखा दिया और हवा ने धूल की भांति उन्हें छितरा दिया। देखा तुमने जो घमंड करते हैं, उन्हें खुदा किस तरह सज़ा देता है । ' 'मुझे पूरी कथा सुनाओ, " मैंने वृद्धा से कहा, इस आशा से कि स्तेपी की गोद में जन्मी एक अन्य विलक्षण कहानी मुझे सुनने को मिलेगी । और वह मुझे कहानी सुनाने लगी । कई हज़ार साल हुए जब यह घटना घटी थी । समुद्र के पा
र बहुत दूर - जहां सूरज निकलता है - एक देश है, जिसमें एक बहुत बड़ी नदी बहती है, और इस देश में प्रत्येक पत्ता और घास का प्रत्येक फलका इतनी घनी छांव देता है कि उसमें बैठकर आदमी सूरज से अपना बचाव कर सकता है - उस सूरज से, जो पूरी बेरहमी से वहां आग बरसाता है । "देखा तुमने, उस देश की धरती इतनी उपजाऊ ļ " उस देश में कभी एक शक्तिशाली जाति बसती थी । वे अपने रेवड़ों को पालते, शक्ति तथा साहस के साथ जंगली जानवरों का शिकार करते और शिकार के बाद खूब जशन मनाते - खाते-पीते, गीत गाते और लड़कियों के साथ मौज करते । एक दिन उस समय, जब कि ऐसा ही एक जशन मनाया जा रहा था, सहसा आकाश में से एक बाज़ ने झपट्टा मारा और काले बालों वाली एक लड़की को, जो रात की भांति सुहावनी थी, उठा ले गया । लोगों ने तीर छोड़े, लेकिन बाज़ का बाल तक बांका नहीं हुआ और तीर वैसे ही धरती पर आ गिरे। इसपर लड़की की खोज में आदमी रवाना किए गए, लेकिन वे भी उसका पता नहीं लगा सके । समय बीता और वे उसे भूल गए, जैसे कि इस धरती पर हर चीज़ भुला दी जाती है। एक गहरी सांस लेकर वृद्धा चुप हो गई। जब वह अपनी चरचराती आवाज़ में बोल रही थी तो ऐसा मालूम होता था मानो वह उन सभी विस्मृत युगों की भावनाओं को व्यक्त कर रही है जिनकी स्मृति उसके हृदय की गहराइयों में संचित थी । समुद्र धीमे स्वरों में, सम्भवतः इन्हीं तटों पर जन्म लेनेवाली इस प्राचीन कथा को सुनकर, हुंकारे भर रहा था । 'लेकिन बीस वर्ष बाद वह अपने आप लौट आई, क्षीण और मुरझाई हुई। उसके साथ एक युवक था, उतना ही मज़बूत और सुन्दर, जितना कि वह खुद बीस साल पहले थी । और जब उससे यह पूछा गया कि इतने दिन कहां रही तो उसने जवाब दिया कि बाज़ उसे उठाकर पहाड़ों में ले गया और उसकी पत्नी के रूप में वहीं वह रही । यह युवक उनका पुत्र है। बाज़ अब नहीं रहा । यह सोचकर कि उसकी शक्ति अब जवाब दे रही है, वह आखिरी बार आकाश में खूब ऊंचे उड़ता चला गया और फिर अपने पंखों को समेट, जो नीचे गिरा तो कगारदार चट्टानों से टकराकर चकनाचूर हो बाज़ के पुत्र को सभी आश्चर्य से आंखें गड़ाए देख रहे थे और उन्होंने देखा कि वह उनसे ज़रा भी भिन्न नहीं है, सिवा इसके कि उसकी खें पक्षियों के राजा बाज़ की भांति ठंडे गर्व से चमक रही हैं। जब वे उससे कोई बात करते तो वह कभी-कभी जवाब तक न देता, और बड़े बूढ़े उसके पास जाते तो वह उनसे इस तरह बातें करता मानो वे उसके ही हम उम्र हों। इसे वे अपना अपमान समझते और वे उसे बे पर का तथा खुट्टल फलके वाला तीर कहते । वे उसे बताते कि उसके बराबर ही नहीं, बल्कि उससे दुगनी आयु वाले लोग भी - हज़ारों की संख्या में - उनका अदब करते और उनका हुक्म मानते हैं । लेकिन वह उद्धतपन के साथ उनकी आंखों में आंखें डालकर देखता और कहता कि अन्य कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता, अगर अन्य तुम्हारा अदब करना चाहते हैं तो करें, लेकिन उसका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं है। श्रोह, इसपर बड़े बूढ़े सचमुच खूब बिगड़े और गुस्से में बोले हम लोगों के
साथ इसके रहने की कोई गुंजायश नहीं है। जहां इसके सींग समाएं, चला जाए । वह हंसा और जहां उसके सींग समाए, चला गया - वह एक सुन्दर लड़की के पास पहुंचा जो बड़े ध्यान से उसका निरीक्षण कर रही थी। उसने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया । वह उसे दुतकारनेवाले उन बड़े बूढ़ों में से ही एक की लड़की थी । हालांकि वह बहुत खूबसूरत था, लेकिन लड़की ने उसे धकेलकर अलग कर दिया, क्योंकि वह अपने बाप से डरती थी । उसने उसे धकेलकर अलग कर दिया और वहां से खिसक चली । तभी पलटकर उसने पूरी शक्ति से उसपर प्रहार किया और जब वह गिर पड़ी तो अपनी एड़ियों से उसके सीने को उसने इतना रौंदा कि उसके मुंह से खून का फ़ौवारा छूटकर आकाश को छूने लगा । लड़की ने एक भारी आह भरी, सांप की भांति उसने बल खाया और मर गई । जो इस घटना को देख रहे थे, भय के मारे उनका बोल बन्द हो गया । स्त्री की इतनी निर्मम हत्या उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। काफ़ी देर तक वे उसी प्रकार निर्वाक् खड़े रहे । उनकी आंखें उस लड़की पर जमी थीं जो वहां पड़ी थी - आंखें फटी हुई, मुंह रक्त में सना हुआ । और वे देख रहे थे उस युवक को, जो अन्य सबसे अलग, खूब गर्व से भरा अपने सिर को इस तरह ऊंचा उठाए खड़ा था मानो आकाश को कहर बरपा करने के लिए ललकार रहा हो । आखिर लोगों को जब कुछ चेत हुआ और उनकी आहत बुद्धि लौट आई तो उन्होंन उसे पकड़ लिया और उसकी मुश्कें बांधकर उसे वहीं छोड़ दिया, यह सोचकर कि उसे अभी मार डालना एक मामूली बात होगी, इससे उनके हृदय की जलन नहीं मिट सकेगी। रात अधिक गहरी और अधिक काली हो चली । दुनिया भर की छोटीमोटी आवाजें सुनाई देने लगीं । गिलहरी की उदास चीं-चीं स्तेपी में छा गई, अंगूर की बेलों में झींगुरों की झंकार भर गई, पत्ते उसांसें छोड़ने और एक दूसरे से कानाफूसी करने
लगे, गोल चांद चांद, जो पहले खूनी-लाल था, धरती से ऊंचा उठता हुआ अब अधिक उजला हो गया था और स्तेपी के समूचे ओर-छोर में उदारता के साथ अपनी नीली रौशनी बिखेर रहा था । " और तब बड़े बूढ़े यह निश्चय करने के लिए जमा हुए कि इतने बड़े अपराध के लिए कौनसी सज़ा माकूल होगी। पहले तो उन्होंने सोचा कि घोड़ों से उसकी बोटी-बोटी रौंदवाई जाए, लेकिन यह सज़ा उन्हें काफ़ी नर्म मालूम हुई। फिर उन्होंने सोचा कि वे सब तीरों से उसका शरीर बींध डालें, लेकिन यह सजा भी कुछ जंची नहीं, इसलिए रद्द कर दी गई। फिर यह सुझाव आया कि उसे ज़िन्दा जला दिया जाए, लेकिन आग के धुवें में वे उसे तड़पता हुआ नहीं देख सकेंगे, इसलिए यह सुझाव भी गिर गया। इस तरह कितने ही सुझाव आए, लेकिन वे हरेक को सन्तुष्ट नहीं कर सके। और इस समूचे काल में युवक की मां उनके सामने घुटने टेके चुपचाप बैठी रही । उसे न तो उनके हृदयों में दया उपजानेवाले शब्द मिल रहे थे और न ही आंसू । बहुत देर तक वे मिलकर बातें करते रहे, अन्त में उनके बुद्धिमानों में से एक ने काफ़ी सोच-विचार के बाद कहा 'चलो, उससे ही चलकर पूछें कि उसने ऐसा क्यों किया? " और उन्होंने उससे पूछा । "मेरी मुश्कें खोलो,' उसने कहा - ' जब तक मैं बंधा हूं, एक शब्द भी मेरे मुंह से नहीं निकलेगा ।' और जब उन्होंने उसे खोल दिया तो उसने कहा'तुम लोग मुझसे क्या चाहते हो ?..' और उसका लहजा ऐसा था जैसे वह उनका स्वामी हो और वे उसके गुलाम । यह तुम जानते हो,' उस बुद्धिमान ने कहा । मैं अपने कृत्यों की तुम्हें क्यों सफ़ाई दूं?' इसलिए कि हम उन्हें समझ सकें । सुनो, गर्व में भले युवक यह निश्चित है कि तुम मारे जाओगे । इसलिए हमें समझने में मदद दो कि तुमने ऐसा काम क्यों किया । हम जीवित रहेंगे, श्रौर यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने ज्ञान के भंडार में वृद्धि करें । "" अच्छी बात है, मैं तुम्हें बताता हूं, हालांकि मैं खुद भी शायद पूरी तरह नहीं समझता कि मैंने ऐसा क्यों किया । मुझे ऐसा लगता है कि मैंने इसलिए उसकी हत्या की कि उसने मेरी अवहेलना की। और में उसे चाहता था । ' "लेकिन वह तुम्हारी नहीं थी,' उन्होंने उससे कहा । क्या तुम केवल उन्हीं चीज़ों से काम लेते हो जो तुम्हारी होती हैं ? मैं देखता हूं कि हर आदमी के पास हाथ, पांव और बोलने के लिए एक जुबान के सिवा और कुछ अपना नहीं होता । फिर भी वह ढोर-डंगरों, और स्त्रियों, और ज़मीन और अन्य कितनी ही चीज़ों का स्वामी होता है । इसका उन्होंने यह जवाब दिया कि जिस किसी चीज़ को मानव अपने अधिकार में रखना चाहता है, उसका उसे दाम चुकाना पड़ता हैअपनी बुद्धि से, या अपनी शक्ति से, या अपनी जान तक से । उसने कहा कि वह कोई दाम नहीं चुकाना चाहता । कुछ देर तक उससे बातें करने के बाद उन्होंने देखा कि वह अपने आपको अन्य सबसे ऊपर समझता है, यह कि वस्तुतः 'सवा अपने अन्य किसी का उसे खयाल नहीं है । और वे भय से सिहर उठे उस समय, जब उन्होंने देखा कि उसने अपने आपको समूची दुनिया से अलग कर लिया है । उसके प
ास न तो अपनी कोई जाति थी, न मां थी, न ढोर-डंगर थे, न पत्नी थी, न ही इन चीज़ों में से किसीसे वह कोई वास्ता रखना से चाहता था । " और, यह सब जानने के बाद उन्होंने फिर विचार किया कि उसके लिए कौनसी सज़ा उपयुक्त हो सकती है। लेकिन उन्हें ज्यादा देर बातचीत नहीं करनी पड़ी कि उसी बुद्धिमान आदमी ने, जो बातचीत में कोई हिस्सा न लेते हुए अब तक चुप बैठा था, उनसे कहा - ठहरो । उसके लिए एक माकूल सज़ा मिल गई, और यह एक बहुत ही भयानक सज़ा है । हज़ारों साल तक सिर खपाने के बाद भी तुम इसके टक्कर की सज़ा नहीं सोच सकते । यह सज़ा खुद उसके भीतर मौजूद है। उसकी मुश्कें खोल दो और उसे आज़ाद घूमने दो । यही उसकी सज़ा है ।' " और तब एक अद्भुत बात हुई। बादल रहित आकाश में बिजली की गरज सुनाई दी। इस प्रकार दैवी शक्तियों ने उस बुद्धिमान आदमी के निर्णय की पुष्टि की । अन्य सबने भी इसे स्वीकार किया और ऐसा करने के बाद वे चले गए। और वह युवक, आगे के लिए जिसका अब लारा नाम रख दिया गया था - लारा, अर्थात् लांछित और निष्कासित - उन लोगों पर हंसा, जिन्होंने उसे खारिज किया था, - वह ज़ोरों से हंसा, आपको अकेला और उतना ही आज़ाद देखकर, जितना आज़ाद कि उसका पिता था। लेकिन उसका पिता आदमी नहीं था, जब कि वह था । उसने यह नहीं देखा और बाज़ की भांति आजादी से रहना शुरू कर दिया । वह ढोर-डंगरों, लड़कियों और जो भी चीज़ वह चाहता उसे ही लोगों के घरों से चुरा ले जाता । वे उसे अपने तीरों का निशाना बनाते, लेकिन तीर उसके शरीर को न बींध पाते । कारण कि दैवी दंड का अदृश्य कवच उसके शरीर की रक्षा करता । वह बहुत ही तेज़, खून-मुंह- लगा, मज़बूत और क्रूर था। और वह लोगों से कभी मुंह दर मुंह नहीं भिड़ता था । वह हमेशा दूर से ही उन्हें देखता था। इस प्रकार, एक लम्बे
अर्से तक - बहुत बहुत दिनों तक - वह मानवीय बस्तियों के छोरों पर ही मंडराता रहा, - अकेला और एकाकी । उसके बाद, एक दिन वह एक बस्ती के निकट रेंग आया, और जब लोग उसपर आक्रमण करने के लिए लपके तो वह अपनी जगह से नहीं हिला, वहीं खड़ा रहा, और अपने बचाव के लिए भी उसने कोई प्रयत्न नहीं किया - ज़रा सा भी प्रयत्न नहीं किया । तभी एक आदमी ने उसके इरादे को भांप लिया और चिल्लाकर कहाw उसे हाथ नहीं लगाना । वह मरना चाहता है। 'और लोगों ने अपने हाथ खींच लिए। वे नहीं चाहते थे कि वह व्यक्ति, जिसने उन्हें इतनी गहरी चोट पहुंचाई, उनके हाथों मरकर अपनी यंत्रणा से छुट्टी पाए । उन्होंने अपने हाथ रोक लिए और वे उसपर हंसे । उनकी हंसी की आवाज़ से वह कांप उठा और अपने सीने को उसने दबोच लिया । ऐसा मालूम होता था मानो वहां कोई चीज़ है जिसे वह पकड़ना चाहता है। फिर, एकाएक वह लोगों पर टूट पड़ा और पत्थरों की बौछार करने लगा। लेकिन उन्होंने डुबकी लगाई और पत्थरों की जद में नहीं आए न ही इसका जवाब दिया- अपनी ओर से एक भी पत्थर उन्होंने नहीं फेंका । अन्त में, जब वह थक गया और निराशा से चीखकर धरती पर गिर पड़ा, तो वे पीछे हट गए और अलग खड़े उसे देखते रहे । उन्होंने देखा कि बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे वह खड़ा हुआ, ज़मीन पर पड़े एक चाकू को उसने जो भम्भड़ में किसीके हाथ से वहां छूट गया था, और अपने सीने पर उससे वार किया। लेकिन चाकू के दो टुकड़े हो गए, मानो किसी पत्थर से वह टकरा गया हो। इसके बाद वह फिर ज़मीन पर गिर पड़ा और अपना सिर उठा-उठाकर पटकने लगा, लेकिन ज़मीन भी उससे दूर खिसकती गई, - जिस जगह उसका सिर टकराता, वहीं एक गढ़ा बन जाताज़मीन झट नीचे खिसक जाती । "यह मर भी नहीं सकता,' लोग ख़ुशी से चिल्लाए । और वे उसे वहीं छोड़कर चले गए। वह पीठ के बल पड़ा आकाश में ताक रहा था और उसने देखा कि दूर, बहुत दूर, शक्तिशाली बाज़ काले धब्बों की भांति उड़ रहे हैं । और उसकी आंखों में इतना दुःख, इतनी वेदना तैर रही थी कि समूची दुनिया उसमें डूब सकती थी। तब से आज दिन तक वह अकेला और एकदम छुट्टा मौत की प्रतीक्षा कर रहा है । वह और कुछ नहीं करता, बस इस धरती पर मंडराता रहता है। तुम खुद देख चुके हो कि किस प्रकार वह एक परछाईं भर रह गया है, और अनन्तकाल तक इसी रूप में वह भटकता रहेगा । वह कुछ नहीं समझतान मानव की बोली, न काम-काज । वह बस चलता ही जाता है, किसी चीज़ की खोज में, हर क्षण और हर घड़ी । उसे जीवित नहीं कहा जा सकता, तिसपर भी वह मरने में असमर्थ है । और मानवों के बीच उसके लिए कोई जगह नहीं है । देखो न, गर्व मानव की क्या दशा कर डालता है। वृद्धा ने भारी सांस भरी, और एक या दो बार उसने अपने सिर को अजीब ढंग से हिलाया जो उसके सीने पर लुढ़क आया था । मैंने उसकी ओर देखा। ऐसा मालूम होता था कि नींद उसपर हावी हो रही है, और जाने क्यों मेरा हृदय उसके लिए एक वेदना से भर गया । एक ऊंचे और प्रताड़णा के स्वर में उसने अपनी कहानी का अन्त किया था, फिर भी मुझे ऐसा लगा म
ानो उसमें भय और दासता का पुट मिला हो । समुद्र तट पर लोग गा रहे थे और आज वे कुछ असाधारण ढंग से गा रहे थे। महीन स्त्री- कंठ ने इस राग को छेड़ा और दो या तीन कड़ियों के बाद एक दूसरी आवाज़ ने उसे फिर शुरू से उठाया, जब कि पहले वाली आवाज़ अगली कड़ियों पर पहुंच गयी। इसी प्रकार तीसरी, चौथी और पांचवीं आवाज़ ने उसे उठाया और फिर, एकाएक पुरुष - कंठों ने उसी राग को कोरस में गाना शुरू कर दिया। स्त्रियों की आवाज़ में से प्रत्येक अलग सुनाई दे रही थी, - ऐसा मालूम होता था मानो वे विभिन्न रंगों की धाराएं हों, जो चट्टानों को पार करती, उछलती और चमचमाती, पुरुष-आवाज़ों की उमड़ती-घुमड़ती बड़ी धारा की ओर लपक रही हों, उसमें डूब गई हों, बल खाकर फिर बाहर निकल आई हों और इस बार पुरुष आवाज़ों को उन्होंने डुबा दिया हो और फिर - एक-एक करके - भारी धारा से अलग होकर सबल प्रौर सुस्पष्ट, आकाश में खूब ऊंचे उठती चली गई हों । गीत के इन स्वरों में लहरों की ध्वनि गुम हो गई थी । क्या तुमने ऐसा गाना इससे पहले भी कभी सुना है ? सिर उठाते हुए इज़रगिल ने पूछा और उसका दन्तविहीन चेहरा पोपली मुसकराहट से खिल उठा । नहीं, कभी नहीं। ऐसा गाना अन्य कहीं सुनने को नहीं मिला । " और अन्य कहीं तुम्हें सुनने को मिलेगा भी नहीं । गाना हम लोगों की जान है। केवल सुन्दर जाति, जो जीवन के प्रति प्रेम में उमगी हो, इतना अच्छा गा सकती है । हमारी जाति ऐसी ही है। देखो, ज़रा सोचो कि ये लोग, जो गा रहे हैं, दिन भर काम करने के बाद क्या थककर चूर नहीं हुए ? सूरज निकलने से लेकर दिन छिपे तक उन्होंने हाड़ तोड़े, लेकिन अब, जब कि आकाश में चांद खिल आया है, वे गा रहे हैं । वे लोग, जिनकी जीवन में दिलचस्पी नहीं, बिस्तरों पर करवटें बदल रहे हैं, लेकिन वे, जो जीवन में रस